विशेष
बांग्ला लोक साहित्य में श्रीराम और श्रीकृष्ण की कथाएँ* (प्रथम भाग )
आदिकाल से श्रुति एवं स्मृति के सहारे जीवित रहनेवाले लोक साहित्य की रचना में व्यक्ति का नहीं बल्कि समूचे समाज का योगदान होता है। लोक साहित्य जनता के हृदय का उद्गार है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे ‘जनपद का हृदय-कलरव’ कहा है।
लोक साहित्य का कोई काल नहीं होता। लोक साहित्य में सक्रिय प्राणशक्ति है इसलिए अतीत से वर्तमान में आकर भविष्य की और अग्रेसर होता है। लोक साहित्य को सम्पूर्ण रूप से प्राचीन साहित्य नहीं कहा जा सकता, ना ही इसे आधुनिक साहित्य कहा जा सकता है। ‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ के चौदहवें संस्करण में ‘लोक-गीत’ शीर्षक के तहत आर.वी. विलियम्स ने लिखा है कि लोक साहित्य एक जंगल के विशाल वृक्ष की तरह है, जिसकी जड़ें अतीत की गहराई में छिपी हैं, पर वर्तमान में भी यह वृक्ष लगातार नई शाखाओं, नई पत्तियों, नए फलों को विकसित कर पल्लवित होता रहता है।
भारतीय दृष्टि मे लोक सदा विकास की प्रक्रिया मे रह्ने वाला मानवीय तत्व है। यहाँ लोक और शास्त्र मे एक सतत संवाद और आदान-प्रदान का संबंध है। जो कुछ लोक में है वही कभी लेखबद्ध होकर शास्त्र बन जाता है और जो शुद्ध शास्त्रीय रूप है वह कालांतर में लोक में जीवंत रहता है। लोक संस्कृति एवं नागरिक सभ्यता की परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया सतत होती रहती है। बंगाल का सबसे पुराना लोक साहित्य चर्यापद है। चर्यापद आठवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच सहजिया बौद्ध सिद्धों द्वारा रचित पद हैं जो सर्वाधिक प्राचीन बांग्ला साहित्य के उदाहरण हैं।
हमारा भारतवर्ष विदेशियों के आक्रमण को सहते हुए बार-बार टूटा, फिर भी अपने सांस्कृतिक सन्दर्भों के कारण एक सूत्र में बँधा रहा। भारतीय साहित्य में जो एक विशेषता है वह यह कि सभी भारतीय भाषाओं में लोक तत्त्व की प्रधानता है। भारतीय साहित्य में लोक नायक के रूप में जिन दो नायक चरित्रों ने हमारे जातीय चरित्र पर सर्वाधिक प्रभाव डाला है वे हैं श्रीराम और श्रीकृष्ण। रामायण और महाभारत के अनुवाद प्राचीन काल से सभी भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हैं। भारत की सभी भाषाओं में रामकथा और कृष्ण कथा को समान महत्त्व मिला है।
बंगाल के लोक साहित्य में भी संस्कृत महाकाव्य रामायण और महाभारत का प्रभाव अत्यधिक है। बंगाल के घर-घर में इन दो महाकाव्यों की कहानियाँ प्रसिद्ध हैं। इसी कारण बंगाल का लोक साहित्य कुछ हद तक धार्मिक है, कुछ हद तक आध्यात्मिक है।
बांग्ला साहित्य में श्रीराम-
600 ईसा पूर्व से पहले (त्रेतायुग) आदि कवि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया ‘रामायण’ संस्कृत एक अनुपम महाकाव्य है। यह हिन्दू स्मृति का वह अंग हैं जिसके माध्यम से रघुवंश के राजा राम की गाथा कही गयी।
पन्द्रहवीं शताब्दी में बंग-भाषा के आदिकवि संत कृत्तिवास ओझा ने बांग्ला में ‘कृत्तिवासी रामायण’ की रचना की। यह संस्कृत के अतिरिक्त अन्य उत्तर भारतीय भाषाओँ का पहला रामायण है। गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस के रचनाकाल से लगभग सौ वर्ष पूर्व ‘कृत्तिवासी रामायण’ की रचना हुई। लोक संस्कृति की प्रचलित धारा को मानस में रखकर कृतिवास ने पाँचाली स्टाइल में राम-कथा लिखी जो मूल रामायण का शब्दानुवाद नहीं है। कृतिवास ओझा ने मध्यकालीन बंगाल के सामाजिक रीति-रिवाजों, संस्कृति और बंगाल के लोककथाओं के कई पहलुओं को प्रस्तुत कर वाल्मीकि रामायण बांग्लाकरण किया। जैसे कवि ने अपने रामायण में रामचंद्र द्वारा की गई दुर्गा पूजा का उल्लेख किया। वाल्मीकि के रामायण में इस घटना का कोई जिक्र नहीं है, ना ही रामायण के किसी अन्य अनुवाद में है। उन्होंने साधारण बंगाली समाज के सन्दर्भ में रामायण के पात्रों को ढाला, जो वाल्मीकि रामायण में वर्णित पात्रों के समान नहीं है। रवींद्रनाथ टैगोर की भाषा में, इस काव्य में प्राचीन बंगाली समाज ने ख़ुदको ही उजागर किया है।
कृतिवासी रामायण को बंगाल का राष्ट्रीय काव्य कहा जाता है। इस पुस्तक ने बंगाल में राम लीलाओं को ख़ूब बढ़ावा दिया। उनसे प्रेरित होकर खंड और पूर्ण रामायण लिखने वालों की संख्या भी शताधिक है, जिनमें में बंगाल की निजी विशेषताओं, लोक कथाओं, जन स्मृतियों, प्राकृतिक परिवेश, लौकिक कलाओं का संयोजन भी हुआ।
सोलहवी शताब्दी की तीन प्रसिद्ध महिला कवियों में से एक बंगाल (अब बांग्लादेश) के मैमनसिंह ज़िले की पातुआरी गाँव की बाशिंदा चन्द्रावती की सबसे ज्यादा चर्चित कविता ‘चन्द्रावतीर रामायण’ है।
डॉ. योगेन्द्र प्रतापसिंह तथा डॉ. हरिश्चन्द्र मिश्रा के सम्पादन में प्रकाशित पुस्तक ‘भारतीय भाषाओं में राम-कथा (बांग्ला भाषा) में डॉ. योगेन्द्र प्रतापसिंह अपने वक्तव्य में कहा कि भारतीय संस्कृति राम संस्कृति है। भारतीय समाज रचना के चार तत्व हैं- दान, दया, सत्य और अहिंसा। रामराज्य का सन्दर्भ इन्हीं चारों तत्त्व के मूल सन्दर्भ में है।
बांग्ला साहित्य में श्रीकृष्ण-
1000 ईसा पूर्व से पहले वेद व्यास द्वारा रचा गया विश्व के सब से लम्बा महाकाव्य ‘महाभारत’ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ है। इसे हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसीमें हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है।
सोलहवीं और सत्तरवीं शताब्दी की अवधि में मध्ययुगीन बंगाली कवि काशीराम दास ने ‘महाभारत’ का संस्कृत से बांग्ला में अनुवाद किया। उनकी अनुवादित पुस्तक ‘भारत-पाँचाली’ या ‘काशीदासी महाभारत’ के रूप में जानी जाती है। यह मूल महाभारत का भावानुवाद है। कृतिवास ओझा और मालाधर बसु की तरह काशीराम दास ने भी अन्य ग्रंथों की कहानियाँ शामिल की। उन्होंने महाभारत के भीष्म पर्व में गीता पर्वाध्याय जिसे श्रीमद्भद्गीता के नाम से जाना जाता है, सहित कई गंभीर दार्शनिक चर्चाओं को छोड़ दिया।
महाभारत में हिंदू धर्म के मुख्य आधाररूप जिन सद्गुणों का उल्लेख किया गया है अनुवाद के माध्यम से कवि, बंगाली समाज में उन्हीं सद्गुणों का प्रचार करना चाहते थे। सांसारिक जीवन, सत्यनिष्ठा, धार्मिकता, वीरता, शुद्धता, भक्ति, उदारता, आत्म-विसर्जन प्रवृत्ति आदि। महाभारत का उनका अनुवाद बंगालियों में सबसे लोकप्रिय है।
बांग्ला लोक साहित्य में श्रीराम और श्रीकृष्ण की कथाएँ-
जब हम बांग्ला लोक साहित्य की बात करते हैं तब स्वाभाविक रूप से भारत विभाजन से पहले के बंगाल (पश्चिम बंगाल और पूर्व बंगाल जो अब ‘बांग्लादेश’ नाम से स्वतंत्र राष्ट्र है) के लोक साहित्य की बात करते हैं क्योंकि देश विभाजन और राज्य का विभाजन भारतीय संस्कृति का विभाजन नहीं कर पाया है।
लोकगीत, लोकगाथा, लोककथा, लोक नाट्य, लोकनृत्य, लोक कला, लोक शिल्प इत्यादि लोकसाहित्य के अंग माने गये हैं फिर भी ये सारे एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसके अलावा लोक-सुभाषित, मुहावरे, लोकोक्तियां, पहेलियां इत्यादि आते हैं जिनका व्यवहार प्रतिदिन लोक-जनजीवन में समान रूप से किया जाता है।
1. लोक गीत में राम-कृष्ण कथाएँ-
लोक गीत मानव जीवन की अनुभूत अभिव्यक्ति और हृदयोदगार है जिसमें समाज में व्यक्त जीवन का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। लोक गीतों में लोक संस्कृति विरासत के रूप में रखी होती है। लोक गीतों की प्रमुख विशेषता यही है कि छंद से परे इसकी लय में अद्भुत मिठास और संवेदना भरी होती है।
बांग्ला लोकसाहित्य का सबसे प्रचलित रुप लोकगीत है। आशुतोष भट्टाचार्य ने लोक गीतों को क्षेत्रीय, व्यावहारिक, आनुष्ठानिक, रचनात्मक और प्रेममूलक, इस पांच श्रेणियों में विभाजित किए।
बांग्ला लोक गीत के नाम और प्रकार अलग हैं। इस क्षेत्र में 100 से अधिक नाम हैं। श्रेणी के लगभग पचास गीतों की पहचान की जा सकती है। राधाकृष्ण के कथा पर लिखित आलकाप गान, घाटू गान, झूमूर गान, बारमासी गान, जात्रा गान, सारि गान, बाउल गान, धामाइल गान, कीर्तन गान आदि।
उदाहरण के लिए कुछ गान प्रस्तुत हैं।
(i) घाटू गान-
पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के मैमनसिंह, कोमिल्ला और सिल्हट जिलों में प्रचलित घाटू गान अब विलुप्ति के कगार पर पहुँचा ग्रामीण गीत है जिसे पल्ली गीत कहा जाता है। घाट पर नाव लगाकर इन गीतों को गाया जाता है।
16 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में घाटू गान का प्रचलन शुरू हुआ। अधिकांश शोधकर्ताओं के मतानुसार भगवान कृष्ण का एक भक्त राधा का रूप धर में कृष्ण के इंतजार में खड़ा था तब उसके कुछ अनुयायी बन गए। फिर, इन भक्तों में से किशोर लड़कों को राधा की सखियाँ बनाकर नृत्य के साथ विरह गीत गाए जाने लगे और इस तरह घाटू गान की शुरुआत हुई।
आमार मनेर बेदना, से बिने केऊ जाने ना।
काला जखन बाजाय बाँशि तखन आमि रान्ते बसि!
बाँसिर सूरे मन उदासी घरे थाकते पारि ना।
आमार मनेर बेदना, से बिने केऊ जाने ना।
मेरे मन की वेदना उसके सिवा किसीको नहीं पता। कालिया जब बाँसुरी बजाता है तब मेरा खाना बनाने का समय होता है। बाँसुरी सुनकर मन उदास हो जाता है और मैं घर पर नहीं रह पाती हूँ! मेरे मन की वेदना उसके सिवा किसीको नहीं पता।
घाटू गान में राधा कृष्ण की कहानी होती है फिर भी धार्मिक प्रभाव से मुक्त लौकिकता और आदिरस का प्राधान्य होता है।
(ii) धामाइल गान-
बांग्लादेश के सिलेट क्षेत्र का धामाइल गान और धामाइल नृत्य लोक साहित्य का एक हिस्सा है। यह कहानी पर आधारित एक प्रादेशिक नृत्य बांग्लादेश के सिलेट क्षेत्र का धामाइल गान और धामाइल नृत्य लोक साहित्य का एक हिस्सा है। यह कहानी पर आधारित एक प्रादेशिक नृत्य है। इस गीत-नृत्य का प्रदर्शन किसी भी मांगलिक घटनाओं में सामान्य है।
राधारमण दत्ता द्वारा रचित धामाइल गीत सर्वाधिक लोकप्रिय होने के नाते, उन्हें इन गीतों के निर्माता के रूप में जाना जाता है। यह एक नृत्य गीत है, जिसमें गीत की लय पर नृत्य होता है। यह केवल महिलाओं तक ही सीमित है।
प्राण सखी रे…
ओई सुनो कदम्ब तले बाँशि बाजाय के?
बाँसि बाजाय के रे सखी, बाँशि बाजाय के?
एगो नाम धरिया बाजाय बाँशि, तारे आनिया दे।
अष्ट आँगुल बांसेर बाँशि, मध्ये मध्ये छेदा।
नाम धरिया बाजाय बाँशि, कलंकिनी राधा।
कोन बा झाडेर बांशेर बाँशि, झाडेर लागल पाई।
जड़े पेड़े उगरायिया, सायरे भाषाई।
भाइबे राधारमण बोले, सुनो गो धनी राई।
जले गेले देखा होबे, ठाकुर कानाई।
प्यारी सखी रे जरा सुन कदंबतले कौन बंसी बजा रहा है? बंसी बजाकर जो मुझे बुला रहा है उसे मेरे सामने तो लाओ। आठ उंगली की बाँस की बाँसुरी जिसके बीच-बीच में छेद है। नाम लेकर बंसी बजाये देखो, कलंकिनी हुई राधा। कौन से बाँस से बनी बाँसुरी, उस पेड़ का नाम बताओ, मूल से खींचकर उसे सागर में बहा दूँ ! सोचकर राधारमण कहे, ‘सुनो मेरे भाई, पानी में जाओगे तो वहाँ भी ठाकुर कानाई ही मिलेंगे!’
(iii) बाउल गान-
बाउल गान बंगाल के पारंपरिक लोक संगीत की एक अनोखी परंपरा है जो लोक गीत की श्रेणी में आते हैं। बाउल एक विशेष लोकमत और धर्ममत है जो मानवता को ही श्रेष्ठ मानते हैं। बाउल गीतों में समानता और मानवता की अभिव्यक्ति है।
एक अनुमान है कि बाउल गान सत्रहवीं शताब्दी में या उससे भी पहले प्रचलन में थे लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी में लालन साईं के गीतों के माध्यम से ये गीत बेहद लोकप्रिय हुए। उन्होंने सर्वश्रेष्ठ बाउल गीत रचे। लालन साईं धर्म, वर्ण, जाति, गोत्र अनुसार लोगों के जातीय भेदभाव को नहीं मानते थे। वे मानवतावादी थे। लालन मौखिक रूप से गीत रचते और उसे सुरबद्ध भी करते यह अनुमान लगाया जाता है कि उन्हों ने लगभग दो हजार गीतों की रचना की। उनके गीतों में, वैष्णववाद और सूफीवाद दोनों का प्रभाव देखा गया है। राधा और कृष्ण के प्रेम की चाहत और व्याकुलता के माध्यम से आध्यात्मिक प्रेम को ही दर्शाया गया है।
लालन के बाद, पांडु शाह, दुग्ध शाह, भोला शाह, पागला कानाई, राधारमण, कंगाल हरिनाथ, हाशन राजा, अतुल प्रसाद, विजय सरकार, द्विजदास, जलाल खान, उकील मुंशी, रशीदउदीन, शाह अब्दुल करीम, रवीन्द्रनाथ टैगोर, काज़ी नज़रूल इस्लाम आदि ने मिलकर इस पारंपरिक लोक गीत को और समृद्ध किया।
भ्रमर कोइयो गिया।
श्रीकृष्ण बिच्छेदेर अनले अंग जाय ज्वलिया रे..
भ्रमर कोइयो गिया।
भ्रमर रे कोइयो कोइयो कोइयोरे भ्रमर…
कृष्णरे बुझायिया,
मुई राधा मोइरा जाइमु, कृष्णहारा होईया रे…
भ्रमर कोइयो गिया।
हे भ्रमर, जाकर कहना, श्रीकृष्ण के विरह में मेरा अंग अंग जल रहा है। हे भ्रमर, जरुर कहना और कृष्ण को समझाकर कहना कि मैं राधा, कृष्णाहारा होकर मर ही जाऊँगी!
(iv) झूमूर गान-
झूमूर गान का इतिहास बहुत प्राचीन है। यह पश्चिम बंगाल के पुरुलिया ज़िले की मिट्टी में पनपा जीवन का गीत है। पुरुलिया के लोकजीवन में झुमुर का अति महत्वपूर्ण स्थान है। सुकुमार सेन इसे नाट्य गीत कहते हैं। आसाम, झारखंड और उड़ीसा में भी यह लोकप्रिय गीत है। मूलतः यह आदिवासी संथाल जाति के जीवन धर्मी गान और नाच है। चौदहवीं शताब्दी में बांग्ला साहित्य में, संस्कृत काव्य ‘गीत गोविन्द’, श्रीकृष्णकीर्तन, विद्यापति की पदावलियाँ आदि संगीत के नए अंग जुड़े और और संथाली झूमूर गीतों ने बांग्ला झूमूर गीतों का रूप धारण किया। मूल लौकिक झुमूर के अनेक रूपों की पहचान हुई जैसे गाहा झुमूर, पौराणिक झुमूर, बैठकी झुमूर, दरबारी झुमूर, भादरिया झुमूर आदि। धीरे-धीरे झुमूर गान की व्याप्ति शृंगार रस से आगे बढ़कर आध्यात्मिकता तक पहुँच गई। बाद में झूमूर के साथ कीर्तन मिला और आगे जाकर जात्रा का रूप धारण किया।
कहा जाता है कि राघा ही झूमूर की प्रथम नृत्यांगना थी और श्रीकृष्ण उनके प्रेमी। बाद में झूमूर के साथ कीर्तन मिला और आगे जाकर जात्रा का रूप धारण किया। पौराणिक झूमूर में मुख्यतया राधा-कृष्णा की लीला का वर्णन है।
उदाहरण के लिए- इस झूमूर गान में राधा कहती है कि श्याम की बंसी दिनरात मुझे पुकारती रहती है। सुनकर मेरा मन व्याकुल हो जाता है और मैं घर में रुक नहीं पाती हूँ। भारी परेशानी होती है, बंसी ही मेरा काल बनी है।
श्यामेर बाँसी दिबानिशि, ओगो डाके नाम धरी।
आकुल हईल प्राण, गृहे रोईते नारि।
ज्वाला दिलो बडो भारी रे,
बाँसी काल होइलो।
शान्ति सिंह की लिखी पुस्तक ‘बृहद झूमूर रसमंजरी’ में कवि भवप्रीतानंद के 227 झूमूर गीतों को शामिल किया गया है। रवीन्द्रनाथ टैगोर तथा काज़ी नजरुल इस्लाम ने भी कई झूमूर गान की रचना की और संगीतबद्ध भी किए।
(v) कीर्तन गान-
बांग्ला साहित्य में वैष्णव कवियों द्वारा रचित साहित्य वैष्णब पदावलियों में राधा-कृष्ण के प्रति दर्शाए गए भावों की अभिव्यक्ति के लिए बंगाल में कीर्तन गान की रचना हुई। सुर और ताल के सहयोग से कृष्ण के गुणगान करना और राधा-कृष्ण के प्रेम को अभिव्यक्त करना ही कीर्तन गान का उद्देश्य रहा।
संगीत के इस विशेष रूप का मूल स्रोत संस्कृत कवि जयदेव द्वारा 12 वीं शताब्दी में लिखे गए ‘गीतगोविंद’ को माना जाता है। बारहवी शताब्दी के संस्कृत संस्कृत कवियों की परंपरा के अंतिम कवि जयदेव (ओडिशा) ने ‘गीत गोविंद’ और ‘रतिमंजरी’ की रचना की। जयदेव एक वैष्णव भक्त और संत के रूप में सम्मानित थे। उनकी कृति ‘गीत गोविन्द’ को श्रीमद्भागवत के बाद राधाकृष्ण की लीला की अनुपम साहित्य-अभिव्यक्ति माना गया है। ‘गीत गोविन्द’ का बांग्ला अनुवाद राधामाधव दत्त ने किया था। उनके पुत्र राधारमण दत्त बांग्ला लोक संगीत के संस्थापक थे। उनके द्वारा लिखे गए धामाईल गीत बंगालियों में बहुत लोकप्रिय है।
13 वीं शताब्दी में मध्ययुगीन कवि बरु चंडीदास ने अपनी पुस्तक ‘श्रीकृष्णकीर्तन’ के माध्यम से इस कीर्तन धारा को आगे बढाया। यह पुस्तक काफी हद तक ‘गीतगोविंद’ से प्रभावित है। चंडीदास बंगाल के पहले मानवतावादी कवि हैं। वर्ष 1916 में, बांग्ला साहित्य परिषद ने बांकुरा में बसंतरंजन रॉय विद्वद्वल्लभ द्वारा खोजी गई ‘श्रीकृष्णकीर्तन’ की पांडुलिपि प्रकाशित की। श्रीमद भागवद से प्रेरीत होकर लिखा गया ‘श्रीकृष्णकीर्तन’ मध्ययुगीन बांग्ला साहित्य की एक अमूल्य संपदा है।
चंडीदास से प्रभावित होकर मिथिला के कवि विद्यापति ने बंगाल में आए और ब्रजबुलि भाषा में लिखे पदों से राधा-कृष्ण के शाश्वत प्रेम को आगे बढ़ाया। ब्रजबुलि भाषा में लिखे गए उनके पद इतने मधुर हैं कि वे “मैथिल-कोकिल” या “मिथिलार कालिदास” नाम से जाने जाते हैं।
सोलहवीं शताब्दी में वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक चैतन्य महाप्रभु (18 फरवरी, 1486-1534) ने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी, भजन गायकी की एक नयी शैली कीर्तन को जन्म दिया। संगीत और ताल में प्रभु के नाम का निरंतर उच्चारण प्रस्तुत किया। ‘नाम कीर्तन’ की यात्रा शुरू हुई। उदाहरण के लिए- ‘हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे/ हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे’
उन्होंने विश्व मानव को एक सूत्र में पिरोते हुए यह समझाया कि ईश्वर एक है। उन्होंने लोगों को यह मुक्ति सूत्र भी दिया-
कृष्ण केशव, कृष्ण केशव, कृष्ण केशव, पाहियाम। राम राघव, राम राघव, राम राघव, रक्षयाम॥
बचपन में विश्वंभर नाम से परिचित चैतन्य महाप्रभु निमाई और गौरांग नामसे भी जाने जाते थे। उनके विचारों पर बहुत से ग्रंथ लिखे गए, जिनमें से प्रमुख है श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी रचित ‘चैतन्य चरितामृत’। इसके अलावा श्री वृंदावन दास ठाकुर रचित ‘चैतन्य भागवत, तथा लोचनदास ठाकुर का ‘चैतन्य मंगल’ भी हैं। इन ग्रंथों ने लोक गीतों या कीर्तन द्वारा लोक साहित्य में प्रवेश किया। कीर्तन बंगाल का सबसे पुराना लोक गीत है, जो लोक-जुबाँ पर बदलते हुए आज भी अपनी महिमा बचाए हुए हैं। इसलिए बांग्ला साहित्य और लोक साहित्य में ‘चैतन्यमंगल’ या ‘चैतन्यभागवत’ के समतुल्य बहुत कम ग्रन्थ हैं।
(vi) छड़ा गान (तुकबंद कविताएँ) –
आदि काल में साहित्य लिपिबद्ध होने से पूर्व मानव समाज में लौकिक साहित्य में मौखिक रूप में रची जानेवाली तुक बंद कविताएँ (छड़ा) ही अभिव्यक्ति का मुख्य माध्यम थीं। कोई छड़ा को बच्चों की कविताएँ भी कहता। आधुनिक साहित्यकारों ने स्पष्ट भाषा में कहा, ‘साहित्य में छड़ा, कहानी, कविता, निबंध, और नाटक की तरह ही एक महत्वपूर्ण शाखा है। अन्य शाखाओं की तुलना में अधिक लोकप्रिय भी है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने संपादित कविता संग्रह में सुकुमार राय के लिखे छड़ा काव्यों को संकलित किया और इन कविताओं की स्वीकार्यता को मजबूत किया। कविगुरु के अनुसार युगों से, चली आ रही इन कविताओं (rhymes) को जिन्होंने सुना, उन्होंने उनकी लय का आस्वाद लिया है। यही कारण है कि कई सुप्रसिद्ध कविताओं की तुलना में यह कविताएँ बांग्ला साहित्य में अपनी स्थिति बनाने में सक्षम रही है।
‘लोक साहित्य’ ग्रन्थ के ‘ग्राम साहित्य’ निबंध में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस विषय पर बड़ी रोचक बाते लिखी हैं, ‘एक दिन वर्षा थमने पर मैं पाबना, राजशाही इलाके में घूम रहा था। मैदान, घाट सभी पानी में डूबा हुआ था। छोटे-छोटे गाँव जलचर जीवों के आश्रयस्थान की तरह पानी में तैरते दिख रहे थे। कूल-किनारा कुछ नहीं दिख रहा था चारों ओर सिर्फ़ पानी ही पानी! इसी बीच, जब सूर्यास्त का समय हुआ तब मैंने देखा कि क़रीब दस-बारह लोग पानी में एक छोटी नाव में सवार आए। उन सबने मिलकर ऊँची आवाज़ में गाना शुरू किया साथ में अपनी हथेलियों से पानीको काटते हुए झप-झप आवाज़ से गीत से ताल मिलाते हुए द्रुतगति से नाव को आगे बढाने लगे। गीत के शब्दों को पकड़ने हेतु कवि ने अपना ध्यान केन्द्रित किया। बार-बार सुनने के बाद जो समझ में आया वह था-
जुबोती………… क्यान बा कॉरो मोनो भारी?
पाबना थेह्या आन्या देबो टॅहा दामेर मोटारी!
जिसका अर्थ है- हे रमणी, क्यों इतनी उदास हो? पाबना से मैं तुम्हारे लिए एक रुपया दाम की मोटरी ले आऊँगा! ( ‘मोटारी’ का अर्थ ‘मोटा सारी’ यानि ‘मोटे सूत से बनी साड़ी’, ऐसा एक सहेली ने बताया।)
मेघदूत के कवि कालिदास अल्कापुरी तक चले गए थे, वे उज्जयनी के राजा विक्रमादित्य के राजदरबारी कवि थे। हमारे अनामी कवि अपनी भारी जिम्मेदारियों के बीच पाबना शहर से आगे नहीं बढ़ सके!
ग्रामीण साहित्य में कल्पना की तान ज्यादा हो या न हो, खुशियों का तराना है। ग्रामवासियों में जो कवि है अपने जीवन की दिनचर्या को ताल-लय से सजाकर समस्त गाँव के हृदय को उक्ति प्रदान करता है। वह सही सूरताल का आग्रही नहीं होता। इसलिए, बांग्ला कस्बों में छड़ा गान के रूप में जो साहित्य हर समय ग्रामीणों के मन को तरंगित करता रहता है, उन्हें कविता रूप में ग्रहण करने के लिए हमें उनके दिल तक पहुँचना पड़ता है। वे इन्हीं गीतों को अपनी टूटी लय और अधूरे ताल से जीवंत कर देते हैं।’
इन गीतों को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। हर-गौरी से संबंधित और कृष्ण-राधा से संबंधित। हर-गौरी के विषय में बंगालियों के दैनिक जीवन की कथाएं और राधा-कृष्ण के विषय में सामाजिक बंधन से परे प्रेम की कथाएँ।
गुरुदेव कहते हैं, ‘बांग्ला ग्राम्य गान में हर-गौरी एवं राधा-कृष्ण की कथा के अलावा सीता-राम एवं राम-रावण की कथा भी पायी जाती है किन्तु तुलना की दृष्टि से बहुत कम संख्या में है। बंगाल की मिट्टी में रामायण की कथा हर-गौरी और राधा-कृष्ण की कथा के ऊपर सिर नहीं उठा पायी, वह हमारे प्रदेश का दुर्भाग्य है।’
———————– क्रमशः ——————–
*हमारे पाठक यह आलेख दो भागों में पढ़ सकेंगे.
– मल्लिका मुखर्जी