छंद-संसार
बरवै छंद
हर इंसा को जाना, छोड़ जहान।
रह जायेगा खाली, पड़ा मकान।।1।।
जग में यदि करना है, प्रेम प्रसार।
जाति-धर्म से उठकर, करो विचार।।2।।
सदा आपदा से लड़, बनकर ढाल।
मानवता की बन जा, एक मिसाल।।3।।
राजनीति की हैं अब, जुबां अनेक।
हे जन गण मन! जाग्रत, रखो विवेक।।4।।
यह भी देगी तारे, नभ में टाँक।
तनया को न तनय से, कमतर आँक।।5।।
हुए सखी सब मन के, भाव जवान।
कामदेव ने खींची, पुष्प कमान।।6।।
राजनीति का हो अब, नया विहान।
नेताओं का कम हो, कुछ अभिमान।।7।।
कर्म त्याग कर देखी, सिर्फ़ लकीर।
जागा भाग न बदली, यह तक़दीर।।8।।
उसको भी दे दाता, कुछ वरदान।
पाल रहा जो जग को, बना किसान।।9।।
कैसे कह दें हम अब, इसे स्वराज।
बँटा-बँटा सा है जब, यहाँ समाज।।10।।
पावस ऋतु में तन-मन, हुआ मतंग।
डोरहीन अम्बर ज्यों, उड़े पतंग।।11।।
मेलजोल का मिलकर, फूँके मंत्र।
अपना रहे सुशासित, यह गणतंत्र।।12।।
नहीं रंक के कटते, दिवस व रात।
आती जब-जब बैरन, यह बरसात।।13।।
अद्भुत छवि मोहन की, ललित ललाम।
गोप-गोपियाँ रीझें, आठों याम।।14।।
कहने को हैं सारे, जन स्वाधीन।
हुए दीन बेचारे, हरदिन दीन।।15।।
सीना ताने सरहद, डटे जवान।
दीर्घ आयु का माता, दे वरदान।।16।।
मुँह पर बोलें मीठा, हृदय कटार।
लोग घिनौने रखते, निम्न विचार।।17।।
– अनामिका सिंह अना