कुण्डलिया छंद
लटक लटक कर चल रहे, मास्टर दीना नाथ।
देख देख हर एक को, हिला रहे हैं हाथ।।
हिला रहे हैं हाथ, निरंतर बोल रहे हैं,
बिन झूले के झूल, रहे हैं डोल रहे हैं।
देते जो उपदेश, रोज़ चेलों को छक कर
पी होली में भंग, चल रहे लटक लटक कर।।
पीला था नीला हुआ, नीला कंगन लाल।
मुए पड़ोसी ने किया, देखो कैसा हाल।।
देखो कैसा हाल, चढ़ा फागुन कुछ ऐसे,
भंग चढ़ाए डोल, रहे हैं इत-उत कैसे।
देख रही है रुष्ट, पड़ोसन सारी लीला,
आयेगा जब होश, पड़ेगा चेहरा पीला।।
सपनों की पिचकारियाँ, उम्मीदों के रंग।
हिम्मत की पुरवा बहे, हो अपनों का संग।।
हो अपनों का संग, निराशा, डर, कुंठाएं,
तुच्छ क्रोध अभिमान, होलिका में दह जाएँ।
हो गुलाल सी लाल, खुशी सारी थकनों की,
फगुवाई रंगीन, माधुरी हो सपनों की।।
महुआ तक आकर कहे, पुरवा बारम्बार।
इतना क्यों इतरा रहे, आज भला तुम यार।।
आज भला तुम यार, उधर टेसू भी पागल,
जंगल पर्वत बाग़, सभी में है कुछ खलबल।
‘होली है’!! जब बोल, पड़ा मौसम बौरा कर,
पुरवा ने तब रास, रचे महुआ तक आकर।।
मौसम ने कुछ तो कही, है अलबेली बात।
फूल फूल हँसने लगे, थिरक उठें हैं पात।।
थिरक उठे हैं पात, मगन महुआ कुचिआया,
बौराया है आम, रंग टेसू पर छाया।
ढोल, मंजीरा झाँझ, बजाता मीठी सरगम,
फागुन का सन्देश, लिए आया है मौसम।।
– सीमा अग्रवाल