‘बचपन’ शब्द सुनते ही किलकारी भरते हुए, एक हँसता खिलखिलाता चेहरा सामने आकर खड़ा हो जाता है। बच्चों का भोलापन, इनकी मासूमियत और निर्दोष मन बरबस ही अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर लेता है। यद्यपि संवेदनाओं के मशीनीकरण की दौड़ में अब बचपन भी, शीघ्र ही परिपक्वता ओढ़ समझदारी का परिचय देने लगा है फिर भी एक उम्र तक इससे जुड़ा हर अहसास जीवित रहता है।
कहते हैं, शिक्षा ही व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करती है। लेकिन यहाँ यह जान लेना भी आवश्यक है कि मात्र पाठ्यक्रम की पुस्तकें ही अगर इस उद्देश्य तक पहुँच पाने में सफल होतीं तो आज हम समाज के शिक्षित वर्ग की सोच और विचारधारा में इतनी विभिन्नताएं न देखते। एक निश्चित पाठ्यक्रम के अलावा, परिवार का माहौल, भाषा, संस्कार और उत्तम पुस्तकों का पठन ही बच्चों में जागरूकता और संवेदनशीलता के उत्तम भाव उत्पन्न करता है और उन्हें ऊंच-नीच, जाति, धर्म, भेदभाव से कोसों दूर रख हर वर्ग के प्रति सम्मान भाव सिखाता है।
तकनीकी दुनिया के बढ़ते प्रचार-प्रसार और सहज उपलब्धता ने बच्चों को स्कूली पुस्तकों तक ही सीमित कर दिया है। उनकी दुनिया गूगल और प्ले स्टेशन के इर्द-गिर्द ही सिमटकर रह गई है। जबकि बाहर मित्रों के साथ खेलने से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। हार स्वीकार करना आता है, अपनी बात कहना आता है, कई समस्याओं के हल भी खेल-खेल में सीख लिए जाते हैं और व्यवहार कुशलता भी आ जाती है। गेजेट्स की दुनिया ने इस रोचकता को बचपन से छीन लिया है। ये परेशानी हमारे अपने द्वारा बनाई गई है तो स्पष्ट है कि इसका हल भी हमारे ही पास से निकलेगा। बच्चों को कुछ नहीं, बस थोड़ा-सा समय चाहिए कि वे दिल खोलकर अपनी बात कह सकें। कितने बच्चे स्कूल से घर आते ही बस्ता एक तरफ उछाल पलंग पर औंधें मुँह जा गिरते हैं क्योंकि या तो घर में कोई उपस्थित ही नहीं या फिर उपस्थित सदस्यों के पास समय का अभाव होता है। शिकायतें सुनने में आती हैं कि हमारा बच्चा कुछ बोलता ही नहीं! प्रश्न यह है कि हम उससे कितना बोलते हैं? यदि हम एक बार उससे कुछ भी पूछे बिना अपनी दिनचर्या बताएं कि “आज मेरे ऑफिस में ये हुआ, वो हुआ। मुझे ये अच्छा लगा, इस बात पर गुस्सा आया।” तो हमारी बात सुनते ही बच्चा भी अपने स्कूल और दोस्तों की सारी बातें, परेशानियाँ तुरंत साझा करेगा। अपनी छोटी-मोटी समस्या उनसे बांटने पर, इनके द्वारा सुझाया समाधान कितनी ही बार चौंका देता है। ये कारगर भले ही न हो, पर तनाव अवश्य ही कम कर देता है। साथ ही यह भी ज्ञात हो जाता है कि इन नन्हों को हमारी कितनी अधिक परवाह है और उनकी सोच किस दिशा में अग्रसर हो रही है।
जीवन और इससे जुड़े कितने ही लोग, कितनी यादें दे जाते हैं, वक़्त के साथ कभी वो ज़ख्म बनती हैं, कभी मरहम…लेकिन बचपन की यादें कभी अपना रंग नहीं बदलतीं, ये जीवित ही रहती हैं, मरते दम तक…! इसलिए इन्हें ज़िंदा रखना होगा, अपने-अपने घरों में कि हमारी आने वाली पीढियाँ भी इस अहसास की सुन्दरता बनाए रखें। दरअसल बचपन तो अब भी उतना ही मासूम है, समय के साथ बदले तो हम हैं।
चलते-चलते:- बात बच्चों की हो और कुछ विशेष न किया जाए, यह तो हो ही नहीं सकता। आज ‘बाल-दिवस’ के उपलक्ष्य में ‘हस्ताक्षर’ ने पहली बार बाल-विशेषांक निकाला है, जिसके लिए हमारे विशेष अनुरोध पर, रचनाओं के चयन की जिम्मेदारी इस अंक के अतिथि संपादक एवं बाल साहित्यकार श्री पवन चौहान को सौंपी गई, जिसे उन्होंने अत्यंत विनम्रता और आत्मीयता से स्वीकार कर हमारा मान रखा। हमें यह बताते हुए अत्यंत हर्ष का अनुभव हो रहा है कि इस बार के अंक के लिए रचनाओं की बाढ़-सी आ गई। साथ ही हमारा यह भ्रम भी दूर हो गया कि बच्चों के लिए कुछ लिखा ही नहीं जा रहा।
नवम्बर अंक, हर बार से कई गुना बड़ा है और इस अंक से चार उभरते, नन्हे रचनाकारों के साथ इकतालीस नए रचनाकार भी इस पत्रिका से जुड़ गए हैं। हमें पूरी उम्मीद है कि हर बार की तरह, इस अंक के माध्यम से पाठकों का भरपूर स्नेह हमें मिलेगा और बच्चों का यह साथ हमारी पाठक संख्या में भी वृद्धि करेगा। आपकी प्रतिक्रिया और सुझाव की प्रतीक्षा रहेगी। ‘हस्ताक्षर टीम’ की ओर से इस अंक को अपना अमूल्य समय देने और इसे विशेष बनाने में सहयोग देने के लिए पवन चौहान जी का हार्दिक धन्यवाद!
– प्रीति अज्ञात