फिल्म जगत
बदलते सिनेमा में बदलती स्त्री
– प्रज्योत पांडुरंग गावकर
किसी भी देशकाल के साहित्य में वहां के जन-जीवन भूतकाल में घटी घटनाओं को जाना और परखा जा सकता है। इसलिए साहित्य को समाज का प्रतिबिम्ब कहा जाता है । साहित्य की तरह सिनेमा भी समाज में चल रहे घटनाक्रम को समाज के सामने उसी रूप में प्रस्तुत करता है। किसी देश का साहित्य या सिनेमा में उस देश की संस्कृति का प्रभाव अवश्य देखा जा सकता है।
हम अगर भारतीय संस्कृति की बात करें तो भारतीय संस्कृति साहित्य के साथ सिनेमा को भी जकड़े हुए है। भारतीय सिनेमा चाहे पाश्चात्य विचारों से प्रभावित क्यों न हो वह अपनी संस्कृति के अनुसार अपना अंत सुखद ही दिखाता है। वहीं दूसरी ओर भारतीय संस्कृति में स्त्री का महत्वपूर्ण स्थान है। स्त्री को भारतीय संस्कृति में देवी की तरह पूजा जाता है लेकिन यह सब कहने की बातें है। अगर हम इस बात को प्रत्यक्ष कहीं देख पाते है तो वह कुछ हद तक सिर्फ सिनेमा में।
हिन्दी सिनेमा के आरंभ में जो फिल्में बनाई गयी उनमें ज्यादातर स्त्री की भूमिकाएं पुरुषों ने ही निभाई है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण दादासाहेब फाल्के की संस्कृत महाकाव्यों के तत्वों के आधार पर बनाई गयी फिल्म ‘ राजा हरिश्चंद्र ‘ ( १९१३ ) हैं। जिसमें सारे महिलाओं के किरदार पुरुषों ने ही किए है। निर्माता से दर्शक तक इस दौर में पुरुष ही रहा है । इससे हम कह सकते है कि सिनेमा के शुरुआती दौर में सिनेमा पर पुरूष वर्चस्व रहा है।
इस समय नारी का अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं था । उसे घर के कमकाज और चार दिवारों के बीच ही रखा जाता था । वह एक दादी , माँ , पत्नी , बहन , बेटी आदि रिश्तों तक ही सीमित थी । वह इन सबसे बाहर तो आना चाहती थी मगर पुरूष प्रधान समाज अपने सम्मान के लिए स्त्री को उन ऊंचाइयों को छूने नहीं दे रहा था जहां वह आज पहुँच चुकी है।
नारी का सिनेमा में प्रवेश मतलब सिनेमा में बदलाव। समाज के विचारों में परिवर्तन। जो समाज परंपरा सभ्यता के बंधनों से बंधा हुआ था वह अब धीरे-धीरे बाहर आने लगा था। नारी का सिनेमा में प्रवेश मात्र सिनेमा की आर्थिक उन्नत्ती के लिए किया गया था जिसका चित्र आगे चलकर बदलने लगा। वैसे देखा जाय तो आज भी सिनेमा का यहीं चित्र है। नारी देह या उसकी अदाओं पर ही आज कुछ सफल सिनेमा बन रहे है। चाहे सिनेमा की कथा कुछ भी हो वह कितनी भी बुरी तरह से क्यों न पेश किया जाय अगर उसमें नारी के देह के साथ छेड़-छाड की है तो आज फ्लॉप से फ्लॉप सिनेमा भी हिट हो जाता है।
लगभग १९२८ से १९२९ मे देविका रानी का आगमन भारतीय सिनेमा में एक ड्रेस डिजाइनर के रूप में हुआ था और इन्हीं दिनों जुबैेदा , शोभना समर्थ और महताब जैसी अभिनेत्रियों ने भारतीय सिनेमा में प्रवेश कर स्त्री के लिए एक नया रास्ता खोल दिया । इस दौर में स्त्री को उसकी काबिलियत के हिसाब से चरित्र निभाने को नहीं मिलते थे । पुरूष प्रधान व्यवस्था उसे दुय्यम दर्जे में रखा करती थी । उसे बार-बार अहसास दिलाया जाता था कि वह कमज़ोर है और आज भी यह चल रहा हैं । स्त्री को हर कदम पर अपनी योग्यता का सबूत देना पड़ता था । शायद इसीलिए योगेंद्र अग्रवाल जी अपने लेख ‘ भारतीय सिनेमा और नारी ‘ में कहते है कि ” भारतीय सिनेमा मर्दवादी सिनेमा है जहां सबकुछ नायक के आधारानुसार तय होता है । यह बात पिछले सौ सालों में भी नहीं बदली जबकि कईं अदाकारा बेमिसाल काबिलियत की मल्लिका रहीं । (१) ” सिनेमा के इन्हीं पहलूओं पर विषेशज्ञ श्री जयप्रकाश चौकसे जी लिखते है कि ” हिन्दुस्तानी सिनेमा में न जाने क्यों नायिका को जवानी से जोड़ दिया गया , जिस्म से जोड़ दिता गया समाज भी उन्हें वस्तु की तरह इस्तमाल करता हैं । हमारे यहां सामाजिक परिवर्तन की गति भी लिंग भेद का शिकार है और कुछ ऐसा ही भेदभाव सिनेमा में भी हुआ और नायक प्रधान सिनेमा में उंगलियों पर गिनने जितनी नायिका के मुख्य भूमिका वाली अथवा नारी प्रधान फिल्म बनाई तो हमें एक अलग सिनेमाई अहसास हुआ । (२) ” कईं ऐसी फिल्में है जो स्त्री को केन्द्र में रखकर बनाई या फिर नायिका प्रधान रहीं ; जैसे – ‘ अछूत कन्या ‘ , ‘ जीवन प्रभात ‘ , ‘ निर्मला ‘ , ‘ चित्रलेखा ‘ , ‘ परिणीती ‘ , ‘ मदर इंडिया ‘ , ‘ गुड्डी ‘ , ‘ मिर्च मसाला ‘ , ‘ दी दर्टी पिक्चर ‘ , ‘ फैशन ‘ आदि । इसके बावजूद भी दर्शकों ने इन्हें पसंद किया ।
आज हिन्दी सिनेमा सभी तरह की रूढ़ियों को तोड़ते हुए नारी चरित्र गढ़ता जा रहा है। वह समाज को नारी के प्रति देखने का दृष्टिकोण बदल रहा हैं। पहले सिनेमा में नारी ममतामयी , आदर्श पत्नी तक ही सीमित थी। आज वह इससे बाहर निकल कर अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने वाली सबल स्त्री है। ‘ हँसी तो फँसी ‘, ‘ क्वीन’ , ‘ हाइवे ‘ जैसी फिल्में बदले हुए समाज को दर्शाती है।
भारतीय समाज में स्त्री को दुर्गा , सरस्वती अादि रूपों में पूजा जाता हैं। सिनेमा की ओर देखा जाय तो आरंभ में यहीं भूमिकाएं स्त्री को दी गयी। उसे देवी या सबका हित चाहने वाली के रूपों में ही दिखाया गया। लेकिन आज बदलते दौर में स्त्री ने अपजा अलग स्थान बना लिया है। वह आज सिनेमा में पहले की तरह शृंगार कर या फिर गले में मंगलसूत्र लटकाकर नहीं आती। वह आज नायक के समान ही सिनेमा में प्रवेश करती है। वह आज पुरुष के समान उसके साथ ही नहीं बल्कि उससे आगे चलने के लिए तैयार भी है और चल भी रहीं है।
पहले की सिनेमाओं की बात करें तो पहले खलनायक नायिका का बलात्कार करने की कोशिश करता था या फिर उसके साथ छेड़छाड़ करते हुए दिखाया जाता था और ठीक उसी समय नायक अपनी entry लेकर नायिका को बचाता था। आज यह दृश्य लगभग बदल चुका है। अज नायिका सिनेमा में नायक की तरह ही अपनी entry लेती है। वह आज समाज के साथ अकेली लड़ती हुई दिखायी जाती है। नायिका के ऐसे रूप को हम ‘ जय गंगाजल ‘ जैसी फिल्म में देख सकते हैं।
शुरुआती दौर में सिनेमा के विषय भी देवी देवताओं की कथाओं के आधार पर होते थे। धीरे धीरे वह भी बदलते गये। पहले विवाह समस्या , विधवा विवाह , स्त्री शोषण आदि लिए गये जो आज परिवर्तित होकर विवाह पूर्व के संबंध , विवाहेत्तर संबध , यौन संबंध , तलाक , लैंगिकता अदि बन गये है। ‘ सलाम नमस्ते ‘ , ‘ हाइये ‘ , ‘ चोरी चोरी चुपके चुपके ‘ , ‘ पिंक ‘ जैसी फिल्मों के नाम इनमें गिने जा सकते है। आज का सिनेमा स्त्री को लेकर गंभीर हो चुका है। वह स्त्री का चित्रण बदलते समाज के साथ उतनी ही तेजी से कर रहा है जितना पाश्चात्य का प्रभाव। आधुनिक काल के सिनेमा की नारी और नायिका दोनों में बदलाव होते रहे है किन्तु हम यह नहीं कह सकते है कि इसके कारण समाज में परिवर्तन हो चुका है। पुरानी नायिका अबला , कमजोरी , शोषित , भोग की वस्तु को छोड़ वह आज मेरीकॉम मर्दानी के रूप में आत्मविश्वासी बनकर समाज का सामना कर रही है। वह समाज परिवर्तन करने में लगी हुई है लेकिन पुरुष प्रधान समाज उसे शिखर तक पहुंचते देख अपने आप को अटपटा महसूस करता है और उसे नीचे घसीटने की कोशिशें अवश्य करता रहता है और अब भी कर रहा है।
आरंभ में पति-पत्नी संबंध , नायक-नायिका के रोमां रोमांच भरे दृश्य कभी किसी पर्दे की आड़ में , कभी दिये बुझाकर या फिर प्राकृतिक दृश्यों के साथ जैसे दो फूलों का मिलन की तरह दिखाये जाते थे। आज उसमें इतना परिवर्तन हो चुका है कि वह नग्न रूप में दिखाये जा रहे है कहना गलत नहीं होगा। नायिका भी इन ‘ हॉट सीनस् ‘ को उतने ही प्रभावशाली ढंग से करती है जितना नायक बल्कि वह नायक से कईं ज्यादा अदनंगे कपडों में भी दिखायी जाती है और वह ऐसी भूमिकाएं भी बेझिझक समाज की पर्वा किए बिना कर रही है। ऐसी फिल्मों में हम ‘ जिस्म २ ‘ , ‘रागिनी एम. एम. एस ‘, ‘ मर्डर ‘ जैसी फिल्मों को देख सकते है। समाज ऐसे दृश्यों को अश्लीलता भरी नजरों से देखता है और सिने निर्माता ऐसे दृश्यों के माध्यम से अर्थ जुठा रहे है। वह एक माडल के रूप में अधनंगे कपड़ों में किसी चीज़ या वस्तु को पेश कर रही है वह भी बिना किसी लाज के। कभी-कभी फिल्मों में इन दृश्यों को दिखाने के पिछे उस फिल्म का कोई उद्देश्य भी होता है। इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि सिनेमा में स्त्री को सिर्फ उस फिल्म को हिट करने के लिए ऐसे दृश्यों को दिखाया जाता है।
आज बदलते परिदृश्य में स्त्री का चरित्र बदला है। भारतीय संस्कृति के अनुसार पहले सिनेमा में स्त्री ढकी हुई दिखायी जाती थी। वह जब भी फिल्म के दृश्यों में प्रवेश करती थी अपने कपडे अवश्य एक बार तो ठीक कर ही लेती। आज लड़कियाँ चुस्त कपड़े और जीरो फिगर के साथ जहीन दिमागी सोच के साथ सिनेमा में दिखाई देती है।
सिनेमा के गीतों पर प्रकाश डालें तो पहले के सिनेमा के गीत भी नारी भर्म को व्यक्त करते नजर आयेंगे। जैसे फिल्म ‘ मदर इंडिया ‘ का यह गीत –
दुनिया में हम आए है
और है वो और जिसे दुनिया की शर्म है
संसार में बस लाज ही नारी का धर्म है …
आज के परिदृश्य में गीतों में इतना बदलाव हो चुका है कि आज के गीत भी स्त्री की अदाओं से शुरू होते है ; जैसे – ‘ चिपका ले सैया फेविकॉल से … ‘ , ‘ काले कजरारे … ‘ , ‘ शीला की जवानी … ‘ , ‘ चिकनी चमेली … ‘ आदि। यह गीत स्त्री की आधुनिकता को दर्शाते तो है ही साथ ही ऐसे गीत फिल्म को हीट बनाने में मददगार साबित होते है। पहले नायिका गीतों में घाघरा , टॉप , सारी में दिखाई जाती थी और आज वह ज्यादातर Bikini में दिखाई जाती है। नारी को विकसित होते हुए दिखायी देने वाले यह गाने और ऐसे दृश्य भी एक तरह से नारी का शोषण करते है ; जो स्त्री पुरूष के बीच लिंग भेद को दर्शाते है। सिनेमा में कामुकता , संभोग आज आम बात हो चुकी है और उसका मुख्य केंद्र स्त्री ही है।
शर्मिला टैगोर का कहना है कि ” पारंपरिक तौर पर एक राष्ट्र के तौर पर हमारा रुख औरत को देवी या पुरुष की संपत्ति के तौर पर देखने का रहा है न की उसके बराबर। (३) ” भारतीय सिनेमा में स्त्री को ज्यादातर देवी के रूप या रूपों में दिखाया जाता था वहीं आज बदलकर स्त्री को ‘ शो-पीस ‘ बना चुका है और इसका सबसे बडा़ कारण लैंगिक असमानता ही है। भले ही सिनेमा में स्त्री को चार दीवारों से मुक्त कर , पौराणिक चरित्रों से बाहर निकालकर नए चरित्र में डाल दें। हम स्त्री पुरुष के बीच की लैंगिक असमानता को नहीं मीठा पाये हैं। जिस कारण आज भी स्त्री अपनी ऊंचाइयों की उड़ान भरने के बावजूद भी पुरुष प्रधान समाज से ही नहीं बल्कि स्त्री जाति से भी कमजोर कहीं जाती है। शायद यह हमारी मानसिक असमानता ही है जो पहले से बनी आ रही हैं।
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते है कि आज सिनेमा स्त्री जीवन को नयी दृष्टि देने में काफी मददगार रहा हैं। लेकिन आज भी जो स्त्री का रूप पर्दे पर दिखाया जाता है वह समाज में नहीं दिखाई देता और दिखाई दे भी तो वह कुछ हद तक। सन् २००० में महेश मांजेकर निर्मित सिनेमा ‘ अस्तित्व ‘ के अंत का गाना स्त्री जीवन की तलाश में अपना ( स्त्री का ) अस्तित्व खोजता हुआ नजर आता है जो आज भी प्रासंगिक है –
ना कटूंगी ना चलूंगी
ना मरूंगी मैं थी मैं हूँ
मैं रहूँगी ……. ।
संदर्भ सूची–
१) योगेंद्र अग्रवाल , भारतीय सिनेमा और नारी , http:srijansamay.inwp-content/uploads/2016/12/YOGENDRA-AGARWALpdf
२) योगेंद्र अग्रवाल , भारतीय सिनेमा और नारी , http:srijansamay.inwp-content/uploads/2016/12/YOGENDRA-AGARWALpdf
३) एकता हेला , भारतीय सिनेमा में बदलते नारी चरित्र , http://www.apnimaati.com/2017/03/blog-post_4.html?m=1
सहायक संदर्भ सूची :-
૪) हिन्दी सिनेमा में स्त्री कामुकता , http://soumyagulia.blogspot.in/2016/03/blog-post.html?m=1
५) सुधा अरोडा , नये हिन्दी सिनेमा में नयी स्त्री , http://www.streekaal.com/2016/10/womeninmodernhindicinema.html?m=1
६) आरती स्मिथ , बाजारीकरण के दौर में हिन्दी सिनेमा में स्त्री की बदलती छवि , http://www.hforhindi.com/lekh-hindi-cinema-men-stri/
७) सिनेमा, संस्कृति और नारी https://rudreshmishra.wordpress.com/2013/03/19/%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%BE-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80/
संदर्भ ग्रंथ सूची :-
८) संपादक – डॉ. शैलेजा भारद्वाज , साहित्य और सिनेमा : बदलते परिदृश्य में संभावनाएँ और चुनौतियां , चिंतन प्रकाशन हँसपुरम , कानपुर २०८०२१ , प्रथम संस्करण २०१३
– प्रज्योत पांडुरंग गावकर