जो दिल कहे
बदलते लोग,बदलता समाज
“लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हिनिया, पिया की पियारी भोली-भाली रे दुल्हिनिया”
जब लाल जोड़े में सजी-धजी कोई प्यारी-सी दुल्हन डोली में विदा होती थी, तो गीतकार शैलेन्द्र रचित ‘तीसरी कसम’ फिल्म का यह गीत बरबस याद आ जाता था। जब दुल्हन को विदा करने महिलाओं का पूरा हुजूम गाँव की सरहद तक आया करता था, तब वो पूरे गाँव की बेटी हुआ करती थी। माँ-बहनों, परिजनों के साथ सबकी आँखें नम हो जाया करती थीं। गजब था वो बिछोह, भावनाओं, संवेदनाओं का निश्छल प्रवाह! और वो बच्चों की टोली- जो बैलगाड़ी में बैठी दुल्हन के साथ दूर तक चली जाती थी, मानो बेटी-बहन के स्नेह की डोर उन्हें अपने साथ खींचे ले जा रही हो। धूल के बादलों के पार दिखती बैलगाड़ी जब नजरों से ओझल हो जाती, तो महिलाएँ अपने-अपने घरों को लौटतीं। धूल के वे बादल तो आज भी उड़ते हैं…बारात में आए बोलेरो, स्कार्पियो, आल्टो, सैन्ट्रो आदि वाहनों के काफिलों से, मगर बैलगाड़ी से उड़ती धूल-सा वो अपनापन कहाँ, जो अपने चुम्बकीय बल से बरबस अपनी ओर खींचता था और पूरा वजूद उसमें समा जाता था। अब तो डोली विलुप्त हो चली है और उसके साथ ही डोली से जुड़ी उदात्त संस्कृति भी, जहाँ वैवाहिक कार्यक्रम एक पारिवारिक आयोजन न होकर एक सामाजिक अनुष्ठान हुआ करते थे।
डोली प्रतीक थी एक चिरंतन पारिवारिक-सामाजिक संस्कार और परंपरा की, जिसके साथ जुड़े संवेदनाओं और भावनाओं के मोहपाश से हम आज भी मुक्त नहीं हैं। आज ज़िंदगी की रफ्तार इतनी तेज हो गयी है कि घर की देहरी से निकलकर दुल्हन सीधे कार में बैठती है, हाथ हिलाकर सबको बाय-बाय करती है और फिर कार धूल उड़ाती हुई तेज गति से नजरों से ओझल हो जाती है। माँ-बहनों के नयनों में उतर आयी भावनाओं की नदी सैलाब बन सारे बाँध तोड़कर बह निकलने से पहले ही नेत्र-कोटरों में सिमट कर रह जाती है।
आज की दौड़ती-भागती, आपाधापी भरी ज़िंदगी में मेल-मिलाप, प्रेम, अपनत्व और भावनाओं के प्रकटन के अवसर सीमित हो गये हैं। सामूहिकता की भावना का उत्तरोत्तर ह्रास होता जा रहा है। अब तो सगे-संबंधी, नाते-रिश्तेदार भी ‘होस्ट’ नहीं, बस ‘गेस्ट’ बनकर रह गये हैं। गाँव भी अब शहरों के रीति-रिवाज अपनाकर शहरीकरण को उन्मुख हैं। अब वैवाहिक अनुष्ठानों में न तो पारंपरिक गीतों में लिपटी वो मीठी गालियां सुनाई पड़ती हैं, न ही विवाह गीत। वर्त्तमान पीढ़ी इन सबसे पूरी तरह नावाकिफ है, और इसे पसंद भी नहीं करती। कोहबर की परंपराएँ अपने आप में बहुत कुछ बयां कर जाती थीं। ये वो दैव स्थान हुआ करता था, जहाँ नव-विवाहित युगल धड़कते दिल में लाखों अरमान लिए पहली बार मिला करते थे, फुरसत के दो पल बिताया करते थे, एक-दूसरे से परिचित होते थे, एक-दूसरे को जी भर देखते थे। फिर, वो जीजा-साली की चुहलबाजियाँ और मन-बहलाव के लिए तरह-तरह के खेल….सब कुछ आधुनिकता की होड़ में गुम होते जा रहे हैं।
शांत चांदनी रातों में, मक्के के खेत में बने मचान पर बैठ दूर-दूर तक फैली हरियाली को निहारना अपने आप में एक विलक्षण, रोमांचक और मनोहारी अनुभव हुआ करता था। अगल-बगल की मचानों पर बैठे काका, भैया, बाबा से बातें करते हुए मन के डर को दूर भगाने का प्रयास करते हुए, कुछ गुनगुनाते हुए और सियारों को भगाने के लिए मुँह से तरह-तरह की आवाजें निकालते हुए ही रात कट जाया करती थी। खलिहान में सर्द जाड़ों की रात में धान के बोझों की रखवाली करना कोई आसान काम नहीं था। आज वैमनस्य, विद्वेष, ईर्ष्या की भावना, संकीर्ण सोच और राजनीति की वजह से समाज में आपसी अविश्वास की ऐसी खाई पैदा होती जा रही है कि खेतों की मचान या खलिहान तो क्या, घर की दालान पर सोना भी अब सुरक्षित नहीं रहा।
गर्मियों में जब गाँव के किशोर, युवा दोपहर में दूर चने के खेत के पास किसी पेड़ की छाँव तले जब ‘होरहा’ जलाते थे, तो आसमान में उठते धुएँ से बाहर दालान पर बैठे लोगों को पता चल जाता था कि होरहा कार्यक्रम में आज कौन-सी मंडली है। बड़े प्रेम और मजे से ‘होरहा’ खा, मंडली शाम ढले तक घर लौटती थी। आज अगर कोई किसी के खेत से चने की झाड़ उखाड़ ले, तो झगड़े हो जाएं, गोलियाँ चल जाएँ। व्यावसायिक दृष्टिकोण और मंहगाई की मार ने युगों-युगों से चले आ रहे मानवीय रिश्तों में भी अविश्वास भर दिया है।
सर्दियों में सुबह की गुनगुनी धूप का आनंद लेने के लिए घर के बाहर वाली दीवार से सटकर गमछे में भूंजा-गुड़ लिए खड़े छोटे-छोटे बच्चे और उस धूप में हिस्सेदारी के लिए खड़ा सारा गांव-चाचा, भैया, बाबा सब! सारे गाँव का हालचाल प्रातःकालीन समाचार की तरह वहीं तो प्रसारित हुआ करता था। शाम को दालान की बैठकी और हुक्के की गुड़-गुड़ के बीच ही गाँव-घर की सारी समस्याओं का समाधान हो जाया करता था। अब वो बैठकी और बतकही कहाँ? बस, शहरों की हलचल है। सड़क किनारे ठेले पर सजे भूंजे-छोले-भटूरे-गुपचुप-मैगी-चाऊमिन-आमलेट के स्टॉल के आसपास लोग हैं- एक-दूसरे से अनजान, अजनबी, अपरिचित- अपनी बेहद व्यस्त जीवन शैली से कुछ पल निकाल फुरसत में रिलैक्स होते हुए! महानगरों की स्थिति तो यह है कि पार्क में टहलते वक्त, गाड़ी पार्किंग करते वक्त, लिफ्ट में चढ़ते वक्त भी पता नहीं होता कि साथ वाला अपना ही पड़ोसी है। सबके अपने-अपने स्वार्थ हैं। अपने-अपने दायरे हैं। स्वार्थ के ही संबंध हैं।
हमें गुलजार की पंक्तियों- “जा पड़ोसी के चूल्हे से आग लई ले” में समाए समाजशास्त्र को समझना होगा। शाम-सुबह अंगीठी की आग मांगने की वो परंपरा किसी न किसी रूप में आपसी रिश्तों में विद्यमान उस गर्माहट का प्रतीक थी, जो गाँव के प्राण-प्राण में बसती थी, जो सबको एक सूत्र में बाँधकर रखती थी। ढेकी कूटती, चक्की में आटा-दाल पीसती ग्राम्य बालाओं, महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले गीत घर-घर में गूंजते थे और न जाने कितनी-कितनी कहानियाँ बयां कर जाते थे। अब घरों से निकलने वाले धुएँ के बादलों का आपस में मिलना भी कहाँ हो पाता है? आज तो चक्की भी रो रही है, और चूल्हा भी उदास है। अब तो घूंघट काढ़े महिलाओं-नववधुओं का कुओं पर पानी लेने आना भी बंद है। कुओं का वजूद खत्म होने के साथ ही नववधुओं का एक-दूसरे से सुख-दुःख बाँटने का सिलसिला भी खत्म हो गया है।
भौतिकवादी सोच, प्रतिस्पर्धा की भावना, एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ और आर्थिक समृद्धि पाने की अंतहीन लालसा ने मनुष्य को इतना आत्मकेंद्रित और स्वार्थी बना दिया है कि मनुष्य-मनुष्य के बीच मनुष्यता का मजबूत सेतु छिन्न-भिन्न हो गया है। अब पुल के उस पार और पुल के इस पार की दुनिया अलग-अलग हो गयी है। मतभेद और मनभेद बढ़ा है। दूरियाँ बढ़ी हैं।
शिक्षा और तकनीकी विकास महानगरों, शहरों से होता हुआ बड़ी तेजी से गांवों की परिधि में प्रवेश कर गया है और इसने हमारी पूरी जीवनशैली को ही बदलकर रख दिया है। रिश्तों के मायने बदल गये हैं। मिथक टूट रहे हैं। नये प्रतिमान गढ़े जा रहे हैं। ग्लोबल विलेज की संकल्पना साकार है। सूचना-क्रांति ने जैसे एक पूरी पीढ़ी का ही ट्रांसफार्मेशन कर दिया है। इंटरनेट, फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर पूरी दुनिया की हर प्रकार की जानकारी और सूचना से लैस एक नयी पीढ़ी तैयार कर रही है। इनके पास समय नहीं है एक-दूसरे से साक्षात् जुड़ने का। आपसी प्रेम, सौहार्द, एकता और सामूहिकता की भावना का क्रमिक ह्रास होता जा रहा है। पुरातन परंपराएँ और मान्यताएँ धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं। संस्कृति का शनैः शनैः क्षरण हो रहा है। पश्चिमी सभ्यता पर आधारित एक नये किस्म का खुलापन जन्म ले चुका है, जिस पर प्रभावी अंकुश और नियंत्रण आवश्यक ही नहीं, अपरिहार्य भी है। जरूरी है कि ऐसा परिवेश, माहौल और समाज विकसित किया जाये, जिसमें भावी पीढ़ी अभिरूचि, बौद्धिकता और अनुभव से अर्जित कौशल को सकारात्मक और विकासात्मक दिशा में ले जाए। राष्ट्र के नीति-निर्धारकों, शिक्षाशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों एवं समस्त बुद्धिजीवियों को सामाजिक विषमता मिटाने और समरसता बनाए रखने के लिए मानक निर्धारित करने होंगे। संस्कृति और परंपरा के साथ आधुनिकता का सामंजस्य बिठाते हुए यह तय करना- सोचना-चिंतन-मनन-मंथन करना होगा कि सूचना-क्रांति के इस प्रबल दौर में अत्याधुनिक तकनीकी कौशल और जानकारी से लैस वर्त्तमान प्रगतिशील समाज की दिशा और दशा क्या होगी।
– विजयानंद विजय