मूल्याँकन
बज्जिका साहित्य की एक थाती प्रबंध काव्य: कर्ण
– डॉ. भावना
‘कर्ण’ हरिनारायण सिंह ‘हरि’ जी का बज्जिका प्रबंध काव्य है, जो बेस्ट बुक बडीज, नई दिल्ली से छप कर आया है। इस प्रबंध काव्य में कुल 8 सर्ग हैं, जिसमें कुंवारी कुंती के सूर्य देव के आह्वान पर प्राप्त पुत्र कर्ण एवं लोक लाज से उसके त्याग से लेकर कुरुक्षेत्र में कर्ण की अद्भुत शौर्य की गाथा का अनुपम चलचित्र है। यह पुस्तक कर्ण पर प्रकाशित अन्य पुस्तकों से अलग इस अर्थ में है कि यह उत्तर बिहार की प्रमुख लोक भाषा बज्जिका में लिखी गयी है। बज्जिका भाषा की अपनी अलग मिठास है और उसी मिठास के साथ कवि ने इस ऐतिहासिक पात्र को ग्रामीण पृष्ठभूमि से जोड़कर नए सिरे से स्थापित किया है।
दरअसल कोई भी रचनाकार जब किसी ऐतिहासिक पात्र को केंद्र में रखकर रचना करता होता है तो वह एक दोधारी तलवार पर ही चलता होता है। थोड़ी-सी चूक हुई नहीं कि उस पर इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करने का आरोप लगना शुरू हो जाता है। हरिनारायण सिंह हरि ने इस चैलेंज को स्वीकार करते हुए एक अलग दृष्टिकोण से अपनी बात रखने की पूरी कोशिश की है, जो काबिले-तारीफ है। लोक लाज के कारण जहाँ कुंती को कर्ण जैसे दिव्य बच्चे को अपने से अलग करने पर विवश होना पड़ता है, वहीं जातिवाद कर्ण को कुंठित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। गुरु द्रोण के शिक्षा देने से इनकार करने पर कर्ण के हृदय में हाहाकार उठता है।
जातिवाद के कारण भारत पिछड़ल सबसे ज्यादा
जातिवाद के कारण बिगड़ल हम्मर नेक इरादा
जातिवाद के कारण अदमी से अदमी बिलगाएल
जातिवाद के कारण मानव-धर्म हाय! शरमाएल
दुखद बात यह है कि यह जातिवाद आज भी हमारे समाज में विराजमान है। जात-पाँत की राजनीति आज के विद्रूप समाज का घिनौना रूप है। मेधा के आधार पर चयन करने की जगह जाति आधारित व्यवस्था किसी के हित में नहीं है। प्रतिभा अर्थ की मोहताज न कभी रही है न रहेगी, जिसमें क्षमता होगी उसे आगे आने से कोई रोक नहीं सकता है। इसी मुद्दे को आज के परिपेक्ष से जोड़कर कवि ने सटीक बात कही है। देखें-
देश समाज बढ़े आगे यदि मन में बात उठाइछो
कुरसी से ज्यादा समाज के दुख से जी पिघलइछो
त जाति के भेद मिटाक, इक समान अवसर द
दब्बल कुचलल प्रतिभा के आगे-आगे आबे द
जात-पाँत की मार से घायल कर्ण को परशुराम जैसे गुरु मिलते हैं, जहाँ वह उत्कृष्ट शिक्षा ग्रहण कर सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हो जाता है। पर, राज परिवार से न होने की वजह से उसे उसकी योग्यता प्रदर्शन की छूट नहीं मिलती। किसी भी समर्थ योद्धा के लिए यह बात बेहद अपमानजनक होगी ही कि उसे सिर्फ जाति के आधार पर प्रतियोगिता से वंचित होना पड़े। पर उस समय राजतंत्र था और वह प्रतियोगिता राज परिवारों से आये योद्धाओं के लिए ही आयोजित थी। अतः नियमानुसार कर्ण को उस प्रतियोगिता में भाग लेने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। जाति सूचक शब्द के अपमान से घायल कर्ण को दुर्योधन का सहारा मिलता है। इसी वज़ह से कर्ण और अर्जुन का आमना-सामना भी होता है। हरिनारायण सिंह हरि जी ने कर्ण के व्यक्तित्व को काव्य का रूप देकर बज्जिका साहित्य को समृद्ध करने का बड़ा काम किया है, जिसके लिए वे वाकई बधाई के पात्र हैं। महारथी कर्ण न केवल बहुत वीर था बल्कि दान देने में भी उस जैसा दानी कोई नहीं हुआ। इसीलिए उसे दानवीर भी कहा जाता है। हरि नारायण सिंह हरि जी ने उनके व्यक्तित्व के इस पहलू को दर्शाते हुए कुछ इस तरह लिखा है-
दानवीर हम कर्ण न सोचब, एकरा में की हानि लाभ
जान हथेली पर ले ली हम, हम्मर रक्षक अब अमिताभ
बाकी तू हू प्रकट कर अब अहो विप्र अप्पन पहचान
जेकरा से कि पता चले ई, कोन पात्र के देइछी दान
यानी की दानवीर कर्ण यह जानते हुए भी कि अगर वे इंद्र को कवच और कुंडल दे देते हैं तो उनका जीवन असुरक्षित हो जाएगा। फिर भी अपने वचन से न फिर कर उसने अपना कवच-कुंडल दान कर दिया। सच कहूँ तो कर्ण का व्यक्तित्व हर मामले में अनूठा है। अगर किसी को मित्रता सीखनी है तो कर्ण से सीखे, वचन निभाना सीखना है तो कर्ण से सीखे। कवि ने इसी संदर्भ को व्यक्त करते हुए कहा है-
कोई सीखे मीत-मिताई राधा सुत से
कोई सीखे बचन-निभाई राधा सुत से
कोई सीखे प्रीत लगाई राधा सुत से
कोई सीखे रण-सुघराई राधा-सुत से
यकीनन सबकुछ जानते हुए भी कि पांडव उसके भाई हैं और वह सूर्यपुत्र है, सिर्फ अपने वचन की लाज रखने के लिए दुर्योधन के साथ अंत तक लड़ता रहा, यह एक बड़ी बात है। यह वही कर्ण था, जिसकी किस्मत में जन्म देने वाली माँ कुंती की गोद के बदले राधा की गोद मिली। जिसे कृपाचार्य जैसे गुरु ने दुत्कार दिया तथा जात -पाँत की प्रताड़ना सहनी पड़ी । ऐसे बुरे वक्त में उसे दुर्योधन का साथ मिला। कवि ने इस प्रसंग को कुछ इस तरह व्यक्त किया है।
राधा सुत ई कर्ण रहे किस्मत के मारल
राधा सुत ई जात-पात के हाय प्रताड़ल
राधा सुत ई कृपाचार्य के दुतकारल रे
राधा सुत ई दुर्योधन के पुचकारल रे
अंत में मैं कहना चाहती हूँ कि कर्ण प्रबंध काव्य पढ़ते हुए मुझे हरि नारायण सिंह हरि जी की यह कृति बज्जिका भाषा की धरोहर लगी। हालांकि भाषा संबंधी कुछ बातों पर विद्वानों का मतभेद हो सकता है। कुछ लोग बज्जिका में ‘छी’ शब्द के प्रयोग को नहीं मानते। वे इसकी जगह ‘हती’ को मानते हैं। मेरा मानना है कि वैशाली क्षेत्र के लोग ‘छी’ को ‘हती’ बोलते हैं। पर मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर और सीतामढी के लोग ‘छी’ ही बोलते हैं। यहाँ छी या छे का अर्थ ‘है या हो’ से है। खैर यह मामला भाषा वैज्ञानिकों का है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह प्रबंध काव्य बज्जिका साहित्य की एक थाती है और इसे हर एक व्यक्ति को अवश्य पढ़ना चाहिए ताकि वह न केवल महाभारत जैसे महाकाव्य के विराट पात्र कर्ण के व्यक्तित्व से परिचित हो सके बल्कि भारत की परंपरा और इतिहास के बारे में भी जान सके।
समीक्ष्य पुस्तक- कर्ण
विधा- बज्जिका प्रबंध काव्य
रचनाकार- हरिनारायण सिंह ‘हरि’
प्रकाशन- बेस्ट बुक बडीज, नई दिल्ली
– डॉ. भावना