मूल्याँकन
बच्चों को उन्हीं की भाषा में सदाचार सिखाने का एक ख़ूबसूरत ज़रिया है: भोलू भालू सुधर गया
– शिवम खेरवार
बचपन की नींव मोम की मानिंद होती है, एकदम नाज़ुक, लचीली। उसे जिस तरफ़ मोड़ना हो, जिस हिसाब से आकार देना हो, दिया जा सकता है। इस प्रकरण में सावधानी बरतना आवश्यक है, वरना इस पर खड़ा होने वाला घर भरभरा कर गिर सकता है। क्योंकि अधिकतर इस मोमनुमा नींव को ठोस अवयवों के अभाव में लचकता ही छोड़ दिया जाता है जिससे अनचाहे और अनजाने ही दुनियावी भार न झेल पाने की वजह से ये बर्बादी की वजह बनती हैं। और एक बात कि ऐसे में गिरने वाले घर, मकान ही कहे जाते हैं; घर नहीं। इसलिए घर बनाने से पहले सावधानी बरतना आवश्यक है। ठीक वैसे ही, जैसे एक कुम्हार मिट्टी का पात्र बनाने से पहले गीली मिट्टी को चाक पर रखकर उसे एक निश्चित आकार देने का प्रयास करते समय उसके कहीं न कहीं बिखर जाने का खयाल भी करता है और चाक की गति को संयमित रखकर उसे एक निश्चित आकार प्रदान करता है। यह आकार अपने पूर्ण, सटीक और मनभावन रूप में मटके, दीपक, गुल्लक इत्यादि के रूप में हम तक पहुँचता है, जिसका सदुपयोग सम्पूर्ण समाज करता है। वहीं दूसरी तरफ़ रखे विकृत मटके, दीपक, गुल्लक कोई लेना नहीं चाहता क्योंकि वह पहले से ही दोषपूर्ण हैं। ये किसी का पतन मात्र ही कर सकते हैं, उत्थान नहीं। जैसे विकृत मटके से पानी रिस जाएगा, वैसे ही दीपक से तेल और वह देर तक उजाला करने में संभव नहीं हो सकेगा ऐसे ही चटका गुल्लक कहीं न कहीं सिक्कों को अवश्य गिराएगा। इसके अलावा इन सभी के विकृत रूप का दूसरा पहलू यह भी है कि किसी भी विषयवस्तु को संचित करने में अन्य की तुलना में इनकी सहभागिता कम ही रहेगी, जो कि एक अभिशाप है। ठीक यही क्रम हमारे जन्म से मृत्यु तक चलता है। और बचपन इसकी पहली सीढ़ी होती है।
आज हम दैनिक आपाधापी में इतने व्यस्त हो गए हैं कि अपने ही बच्चों को अपना क़ीमती समय नहीं दे पाते। यह हमारा सबसे बड़े नकारात्मक बिंदु है। माना आज का दौर ऊँचाइयाँ छूने का दौर है, कम्पटीशन भी बहुत कठिन है, इसके बावज़ूद घर की चिक-चिक और परेशानियों का होना, एक पल के लिए यह सब कहीं न कहीं हमारा मनोबल गिराता हुआ नज़र तो आता है लेकिन अगले ही पल हम अपने बच्चे को इनसे निपटने के लिए कई सारे प्रयास करना सिखाते हैं। पर बचपन किस तरह से जिया जाए, इस कला को सहजता के साथ सिखाना भूल जाते हैं जिसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम बच्चों की जिज्ञासा मर जाने के रूप में देखने को मिलता है। उनका मन आधुनिकता में भी पूरी तरह नहीं लगता। केवल प्ले स्टेशन जैसे गैजेट्स बच्चों के हाथ में थमाने से कुछ नहीं होगा। हमें ही उनके बेहतर भविष्य के अनुकूल क़दम उठाने होंगे। कहीं ऐसा न हो कि स्मार्टफोन की दुनिया में हमारा बच्चा ऐसी जगह खो जाए, जहाँ से उसे ढूँढकर लाना मुश्किल हो। सारा फ़ैसला हमारे हाथ ही है।
मेरे बेहद अज़ीज़ शायर निदा फ़ाज़ली साहब का ‘बचपन’ के नाम एक बहुत मख़मली, लचकदार, नायाब और सदाबहार शेर है:
‘बच्चों के छोटे हाथों को चाँद-सितारे छूने दो,
चार क़िताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे।’
माँ-पापा और गुरुजन के अलावा किताबें ही बच्चों को आज के भटकावी और मायावी समय में सदाचार, शिष्टाचार, नैतिक शिक्षा के ज़रिए एक अच्छा और सटीक मार्ग प्रशस्त कर सकती हैं। अच्छी किताबों की इस कड़ी में बाल साहित्य का अनूठा योगदान रहा है। बरसों से बाल पत्रिकाओं, बाल पुस्तकों से बच्चों का अविस्मरणीय रिश्ता रहा है। चम्पक, नंदन, बालहंस, देवपुत्र और न जाने कितने ही पत्रिका परिवार के सदस्य नन्हे और प्यारे बच्चों के बेहतर कल के लिए ख़ुद के आज को निछावर कर चुके हैं। बाल साहित्यकारों की सूची में एक बड़ा और सुदृढ़ नाम पवन चौहान जी का भी है। हिमाचल प्रदेश के मंडी ज़िले से त’अल्लुक रखने वाले पवन जी यूँ तो बाल कविताओं में भी काफ़ी दिलचस्पी लेते हैं, परंतु बाल कहानीकार के नाम पर इनकी पहचान सम्पूर्ण भारतभर में है। भारतवर्ष की लगभग सभी बड़ी और प्रतिष्ठित पत्रिकाओं को अपनी सेवा देने के पश्चात वर्ष २०१८ में पवन जी का बाल कहानी संग्रह ‘भोलू भालू सुधर गया’ बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुई। इस संग्रह में कुल १५ बाल कहानियाँ हैं जो अत्यंत सूझ-बूझ और बच्चों के मानसिक वातावरण को भाँप कर लिखी गयी हैं।
इस अनमोल पुस्तक की पहली कहानी ‘जंगल का राजा’ जंगल में बारिश के अभाव में पानी की आवश्यकता के चलते सत्ताधारी शेर के अक्खड़पन और जनता समर्थक हाथी के बीच सभी जीव-जंतुओं के लिए एक अकेली झील में मौज़ूद पानी पीने के हक़ के लिए चले चुनावी द्वंद की कहानी है जो बताती है कि दुर्दिनों में आपसी सद्भाव ही एक-दूसरे का सम्पूरक होता है। ‘सद्भाव’ की प्रक्रिया विभिन्न प्रकार के सजीव प्राणियों के भावनात्मक, भौतिक और आध्यात्मिक पक्ष को रेखांकित करती है, जो मानव हित के लिए भी अत्यंत आवश्यक है। शायद इसीलिए कहा भी गया है कि लेखक चाहे तो जगत को मिट्टी में मिला दे और चाहे तो उसका उत्थान कर दे।
इस कहानी के एक-एक पात्र को बालपन के सभी आवश्यक बिंदुओं पर चर्चा करने के बाद बहुत सलीके के साथ कागज़ पर उतारा गया है। जैसे लोमड़ी माँसाहारी जानवरों में गिनी जाती है और बंदर शाकाहारी जानवरों में। इन दोनों की समानता यह है कि यह दोनों ही बुद्धि से प्रखर होते हैं। तो कहानी में चुनाव समिति का गठन होने पर खूँखार, चालाक और धूर्त शेर की अगुवाई में लोमड़ी को रखा गया है और शाकाहारी और निश्छल हाथी की अगुवाई में बन्दर को। कहानी का अंत भी बेहद सलीक़े से गूँथा गया है। शेर को अपने ग़लत बर्ताव का पछतावा होने के प्रसंग को भी बहुत प्यार और अपनेपन से पिरोया गया है। शेर के जंगल छोड़कर जाने की बात पर सभी जानवरों का शेर को रोकना और उसे जंगल की कमान देना सभी जानवरों के अपनत्व की मिसाल देता है।
दूसरी कहानी ‘नए अंदाज में होली’ एक मोहल्ले में मौज़ूद बच्चों की होली बच्चों के व्यावहारिक पक्ष को समेटे हुए है जिसमें बच्चों का अपनापन, बड़ों के प्रति सम्मान, सेवाभाव और सकारात्मक सोच लाक्षणिक प्रभाव छोड़ते हैं। इस कहानी के माध्यम से होली से जुड़ी सीख को बहुत स्नेहिल स्वभाव के माध्यम से बच्चों को देने का प्रयास किया गया है। सीख में दिए गए बिंदु निम्नलिखित हैं:
● होली पर रसायनयुक्त रंगों का त्याग करना।
● विभिन्न व्यंजनों के स्वाद के साथ होली मनाना।
● सघन मोहल्ले के बजाय पार्क में होली मनाना।
अब ये तीनों ही बिंदु कहानी की शैली में इतने सम्मोहक हैं कि इनके प्रभाव से बच्चे तो अच्छा सीखेंगे ही, साथ ही बड़े भी सीख ले सकते हैं।
कहानी का दूसरा पक्ष बच्चों की मासूमियत, समाज के प्रति समझ और समर्पणभाव को दिखाता है। जहाँ बच्चों को अपने ही साथियों के साथ मिलजुल कर होली त्यौहार को मनाना था, वहाँ अपने विवेक से काम लेते हुए होली त्यौहार के जश्न को वृद्धाश्रम के बुज़ुर्गों को समर्पित कर दिया। मुझे छू लेने वाला यह कहानी का सबसे रूमानी पक्ष है। वो बुज़ुर्ग माता-पिता जिन्हें उनके ख़ुद के बच्चे घर से बेदख़ल कर देते हैं या किन्हीं निजी कारणों से जो अपना घर छोड़ देते हैं, और वृद्धाश्रम में बच्चों की कमी महसूस करते हैं, उनके लिए होली वाले दिन इन बच्चों द्वारा दी गयी ख़ुशी अतुलनीय है, अप्रतिम है। इतने प्यारे बच्चों से भला कौन प्यार नहीं करना चाहेगा? उस वक़्त का फ़लसफ़ा यह हुआ कि पढ़ते-पढ़ते पूरी कहानी का चित्रण मेरी आँखों के सामने होने लगा था।
समीक्षित तीसरी कहानी स्वरूप ‘भोलू भालू सुधर गया,’ इस किताब की शीर्षक कहानी है। जो जंगल में भोलू भालू द्वारा अन्य जानवरों और पक्षियों पर किये गए अत्याचारों को दर्शाती है। मेरा मानना है कि क्रूरता और मनोरंजन दो अलग पटरियाँ हैं, क्रूरता दानवता को रेखांकित करती है और मनोरंजन मानवता को। पर मानवता का सहारा लेकर यदि दानवता के उदाहरण पेश किए जाते हैं तो उसका परिणाम निश्चित ही बुरा होता है, जिस प्रकार कहानी में भोलू भालू के साथ हुआ। भोलू को तब तक किसी जानवर को सताने का और किसी पक्षी के अंडे तोड़ने का दर्द समझ नहीं आया जब तक उसका बच्चा गोलू मुसीबत में नहीं पड़ गया। हमारे घर के बड़े भी कहते हैं कि अक्ल ठोकर लगने के बाद ही आती है। इस प्रभावी कहानी का कथानक इसी तर्ज पर बुना गया है।
कहानी ‘बदल गया अंतरिक्ष’ जीव हत्या न करने की सीख देती है। मनुष्यों के प्राथमिक धर्म ‘मानवता’ के विभिन्न ग्राह्य अध्यायों में से एक यह भी है। जिसका अनुपालन हमें करना ही चाहिए। एक बेहतर इंसान के निर्माण की दिशा में अग्रसर करती हुई यह कहानी बच्चों को अवश्य ही फलीभूत होगी।
कहानी संग्रह में दर्ज़ अंतिम कहानी ‘ऐसे लिया बहनों का बदला’ भी अत्यंत रोचक कहानी है। यह कहानी पढ़ते समय मुझे अपनी दादी और माँ द्वारा सुनाई गयीं पौराणिक किवदंतियों पर आधारित कहानियाँ, जादूगर-जादूगरनियों और परियों की कहानियाँ अनायास ही याद हो आईं। इस कहानी में सौतेली माँ का लालच, जादूगरनी द्वारा की गई छः बहनों की मौत का कारण बनता है। और उसके बाद सातवीं बहन द्वारा अत्यंत रोचक रूप में लिया गया बदला पाठक का ध्यान आकर्षित करता है। यह कहानी बुराई पर अच्छाई की जीत को प्रदर्शित करती है; साथ ही लोकोक्ति ‘भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं’ का सटीक उदाहरण भी प्रस्तुत करती है। इस कहानी की एक और ख़ूबसूरती यह भी है कि कुछेक स्थान पर हिमाचली भाषा के प्रयोग ने इसकी पठनीय लाक्षणिकता को बढ़ाया है। क्योंकि सम्पूर्ण भारतवर्ष का भाषाई क्षेत्रीय अंचल विभिन्न प्रकार की बोलियों से सुसज्जित है। ऐसे में जब विभिन्न बोलियों के प्रतिरूप को उनके अर्थ के साथ साहित्य में समझाने का प्रयास किया जाता है, तो यह मेरे लिए गद्य या पद्य में किये अनूठे प्रयोगों में शुमार होता है। अब चूँकि यह बाल पुस्तक है तो एक हल्की सी समस्या यह भी है कि बच्चे अर्थ होने के बावज़ूद भी आंचलिक कथनों को नहीं पढ़ते क्योंकि वह उनकी ‘फ्रीक्वेंसी’ से बाहर की बात होती है। मेरा मानना यह है कि कम से कम एक नियत उम्र जैसे दस से बारह साल तक के बच्चों के लिए उनके पाठ्यक्रम और साहित्य में जितनी सहजता हो सके, की जानी चाहिए।
आख़िर में कुल मिलाकर कहूँ तो यह १५ कहानियों की किताब मुझे बहुत पसंद आई। इस कहानी संग्रह की एक और ख़ासियत ने मुझे लुभाया जिसके लिए बोधि प्रकाशन को बधाई और शुक्रिया प्रेषित करता हूँ। प्रत्येक अध्याय के साथ उस अध्याय से जुड़े चित्र भी दिए गए हैं, जो बच्चों और कहानियों के बीच एक पुल बनाने का काम करते हैं। इन चित्रों में रंग भरा हुआ न होने के कारण एक प्रयोग बच्चे यह भी कर सकते हैं कि खाली चित्रों को रंग से भरकर पुस्तक और मनमोहक बना दें। इससे एक फ़ायदा ५-६ साल तक कि उम्र के बच्चों को यह भी होगा कि वे सब रंग भरने के अभ्यासी भी हो जाएँगे। कहीं-कहीं कहानियों में फिल्मीपन भी नज़र आया जो कुछ एक वरिष्ठ बाल-साहित्यकारों के हिसाब से दोष माना गया है परंतु मेरे हिसाब से यह कहानी को मिला एक रोचक तत्व है जिससे कहानी के चलचित्र को समझने में बच्चे को और आसानी हो जाती है। कहानियों में बच्चों की रोचकता को और बढ़ाने के लिए यह एक आवश्यक तत्व भी है। मैं कवि या लेखक को संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानता हूँ। क्योंकि जब सम्पूर्ण मनुष्य जाति में विध्वंस मचा हुआ होता है, तब कवि और लेखक की लेखनी ही एक ऐसा विचार उत्पन्न करने में सक्षम होती है जो अपने स्नेहिल शब्दों से दुश्मनों को भी दोस्त बना सकती है। और साहित्य का आज प्रत्येक इंसान की ज़िंदगी में लाज़िम है। बच्चे भी जितना साहित्य के क़रीब होंगे, भटकाव से उतना दूर होंगे। बाल साहित्य हमारे बच्चों के सुखद कल की आधारशिला का ही एक हिस्सा है जिस पर बच्चों का स्वर्णिम भविष्य टिका हुआ है। अब यह फ़ैसला हमें करना है कि हमारे बच्चों के लिए क्या उचित है और क्या अनुचित। फ़िलहाल, बच्चों को अद्भुत ज्ञानवर्धक कहानियों की पुस्तक थमाने के लिए पवन चौहान जी को आभार के साथ बधाई संप्रेषित करता हूँ, साथ ही उनके सुखद कल हेतु मंगलकामना करता हूँ।
समीक्ष्य पुस्तक: भोलू भालू सुधर गया
विधा: बाल कहानी संग्रह
लेखक: पवन चौहान जी
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, जयपुर
संस्करण: प्रथम, 2018
मूल्य: ₹100
– शिवम खेरवार