संपादकीय
बच्चों के लिए भी निकालना होगा कुछ समय
एक वह समय भी था, जब बच्चे अपने मनोरंजन के लिए दादा-दादी, नाना-नानी को खोजते थे क्योंकि उन्हें सुननी होती थी कहानी या फिर कोई मजेदार, दिलचस्प, अनोखी, कोई आश्चर्यजनक बात या कोई मजेदार घटना। ये सब कहानियाॅं या बातें बच्चों का खूब मनोरंजन करती थीं। कुछ समय बाद रेडियो ने दस्तक दी। यह भी किसी किसी के पास ही होता था। उस समय टेलिविजन जैसे दृश्य-श्रव्य के अन्य कोई मनोरंजन के साधन नहीं थे। बच्चों की जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए कही गई उस वक्त की कहानियाॅं व लोककथाएं बच्चों के मनोरंजन का सबसे प्रिय साधन थी।
कहानी के दौरान बच्चे अपने बुजुर्गों के साथ होते थे। इसका फायदा यह होता था कि बच्चे इस साथ से अपने बड़ों को उनकी भावनाओं और स्वभाव से बेहतर तरीके से समझ पाते थे। बच्चे यदि कुछ ग़लत बोलते या करते तो बड़े-बुजुर्ग उन्हें उसी समय टोक देते, डांट देते और बातों-बातों में ही प्यार से सही-ग़लत का अहसास भी करवा देते थे। यह पक्ष संस्कारों की मजबूत नींव का एक हिस्सा था।
उस समय संयुक्त परिवारों का दौर था, जो संस्कार की इस बाड़ को मजबूती से थामे रहता था। आज स्थितियाँ बदली हैं। संयुक्त परिवार आज एकल परिवारों में तब्दील हो चुके हैं। इस व्यवस्था के चलते माॅं-बाप के पास अपने बच्चों के लिए समय की भारी कमी खलती है। यदि माॅं-बाप दोनों नौकरीपेशा हैं तो स्थिति और भी बद्दतर हो जाती है। वे अपने बच्चों को फिर किसी आया के हवाले कर अपने कार्यालय के काम में व्यस्त होकर रह जाते हैं। इस स्थिति से माता-पिता और बच्चों के बीच दूरी बढ़ने लगती है। बात फिर कुछ लेने-देने तक ही सीमित होकर रह जाती है। यह व्यवहार बच्चों के दिमाग पर नकारात्मक प्रभाव डालता है और वह हमेशा परिवार में एक अकेलेपन की पीड़ा से गुजरता रहता है। दोनों पक्ष एक-दूसरे की भावनाओं का सही ढंग से आंकलन नहीं कर पाते हैं।
इसका परिणाम माता-पिता को तब नज़र आता है, जब बच्चा उनकी पहुॅंच से दूर हो जाता है। वह उनकी बात को मानने में कोताही बरतने लगता है और उनके विरुद्ध खड़ा दिखाई देता है। इस दूरी पर पहुॅंचकर माता-पिता को अपनी कमी का अहसास होने लगता है। लेकिन समय की छलांग उस वक्त बहुत आगे निकल चुकी होती है।
बात सिर्फ इतनी-सी है कि आज बच्चों में संस्कारिक मूल्यों के ह्रास की भरपाई के लिए हमें ठोस कदम उठाने की बहुत आवश्यकता है। इस दिशा में जहाॅं माता-पिता अपने बच्चों के लिए उचित समय निकालकर इसमें सहयोग कर सकते हैं, वहीं शिक्षक भी इसमें अपना अहम रोल अदा कर सकते हैं। इसके साथ ही बच्चों के लिए लिखे जाने वाले अच्छे साहित्य को उन तक पहुँचाने की भी बहुत ज़रुरत है। क्योंकि कई बार बच्चा जहाॅं माॅं-बाप द्वारा बताई गई बात को इतनी गंभीरता से नहीं लेता, वहाॅं उसे वह स्वयं पढ़कर या देखकर भी कई बार अच्छी तरह से समझ लेता है।
अच्छा साहित्य एक सच्चे मार्गदर्शक का कार्य करता है और बच्चों में संस्कारों की नींव की मजबूती में सहयोग करता है। आज हमें ऐसा ही साहित्य बच्चों तक पहुँचाने की खास आवश्यकता है। बाल साहित्यकारों को यही कोशिश रहनी चाहिए कि बच्चा तथ्यपूर्ण बातों को आत्मसात करते हुए स्वयं को सुसंस्कारिता की श्रेणी में लाकर खड़ा कर सके।
‘हस्ताक्षर’ के इस ‘बाल विशेषांक’ में हमने इसी तरह की सामग्री रखने की कोशिश की है। मुझे हस्ताक्षर की टीम ने एक बहुत बड़ी जिम्मेवारी सौंपी है। मैंने के.पी. अनमोल और प्रीति अज्ञात जी के विश्वास पर खरा उतरने की पूरी कोशिश की है। इस ‘बाल विशेषांक’ में बाल साहित्य की हर विधा को शामिल करने का प्रयास किया है। अपनी इस कोशिश में मैं कहाॅं तक सफल को पाया हूँ इसका जबाव आप सब पाठकों के पास है। मुझे आप सबकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।
– पवन चौहान