परिवर्तन के इस दौर में विकास की चाल यदि कहीं द्रुतगति से चलती नज़र आती है तो वह है ‘बचपन’। समय और सामाजिक परिस्थितियों से जूझते हुए बच्चों की मासूमियत और भोलेपन का चटख़ रंग कबका उड़ चुका है। आज जिसे हम ‘समय के साथ चलना’ कहकर धीरज धर लेते हैं, वास्तविकता में वह समय को फ़र्लांगकर ली गई मजबूर उड़ान ही है। अब बचपन की बात करते ही वो सुनहरा चित्र कहीं नहीं खिंचता जिसमें रंग-बिरंगे गुब्बारे और उसमें भरी तमाम खुशियाँ घर-बार को रौशन कर उनमें जीवन भर दिया करतीं थीं। ‘बाल-दिवस’ स्कूल में बंटती मिठाईयों को खा लेने या जमकर मस्ती और खिलंदड़ी करने का नाम भर ही नहीं था अपितु यह उस बचपन को जी भरकर जी लेने का एक अतिरिक्त और विशेष दिन हुआ करता था। हाईस्कूल तक न भी सही पर आठवीं कक्षा तक तो हर घर में बचपन यूँ ही गुलाटियाँ मार आँखों में तमाम खुशियाँ भर इतराता फिरता था। लेकिन आज जब हम इस बचपन का चेहरा टटोलते हैं तो बमुश्क़िल इक्का-दुक्का जगह ही इसकी मुस्कान उपस्थित दिखाई देती है अन्यथा यह तो निर्धारित समय से पूर्व ही अपने स्थान से हटकर कभी भय, कभी समझदारी और कभी तनाव के स्टेशन पर पैर टिकाए बड़ा होने की राह जोहता नज़र आता है। वही यक्ष प्रश्न फिर उठ खड़ा होता है…आख़िर दोष किसका है? पर दोषी का नाम लेने से बेहतर यही होगा कि हम कारणों पर विचार कर इस समस्या के समाधान की ओर प्रयास करें।
हमारी शिक्षा-प्रणाली ने बच्चों को ‘सक्सेस’ का ही पाठ पढ़ाया है। ‘टॉप’ किया तो सही और ‘फ़ेल’ हुए तो समाज में रहने लायक नहीं! नियम यह है कि बनना चाहे कुछ भी हो, पर हर विषय में अच्छे अंकों से पास होना बेहद जरुरी है। चूँकि विद्यालयों / विश्वविद्यालयों में प्रवेश का मापदंड भी यही है इसलिए व्यावहारिक योग्यता से कहीं अधिक प्रतिशत मायने रखते हैं। उस पर माता-पिता का ‘हॉबी-क्लास’ के लिए बच्चों को पूरे शहर में दौड़ाना उनके ज़ख्मों पर नमक मल देता है। इन मासूमों के पास समय ही नहीं बचता कि वे कुछ पल अपने लिए संभाल सकें। होमवर्क, प्रोजेक्ट, सबमिशन, मासिक, अर्धवार्षिक, वार्षिक और अभ्यास परीक्षाओं की लम्बी सूची के साथ दुनिया भर की एक्टिविटीज और अन्य प्रतियोगिताएँ इन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से इस हद तक थका देती हैं कि फिर वे टोकाटाकी और रोज की वही घिसीपिटी सलाहों से भागकर एकांत की ओर बढ़ने लगते हैं। इधर माता-पिता, समाज और बच्चे के भविष्य को लेकर कुंठित होने लगते हैं और ‘न जाने, इसके भविष्य का क्या होगा?’ जैसा गंभीर प्रश्न उनके चेहरे पर असमय झुर्रियों के रूप में उभरने लगता है।
दरअस्ल हम लोग दिखावे की मानसिकता के गुलाम बन चुके हैं. वो देश जो अभी भी गरीबी, बेरोजगारी और शिक्षा जैसी बुनियादी समस्याओं से जूझ रहा है वहाँ दूसरे से स्वयं को बेहतर प्रदर्शित करने की होड़ ने कई प्रकार की कुंठाओं और अपराधों को जन्म दिया है। कहीं यौन शोषण से जूझते बच्चे रोज घुट रहे हैं तो कहीं ये अपराधी के रूप में जघन्य अपराध को अंज़ाम दे रहे हैं। हैरानगी की बात है कि रेप और हत्या जैसे जुर्म के हत्यारों को उम्र के आधार पर नाबालिग़ क़रार कर दिया जाता है जबकि इनके कृत्यों की उम्र वयस्कों से कहीं ज्यादा वीभत्स हुआ करती है। डर है कि इस उदारता को देखते हुए अपराध की न्यायिक उम्र कहीं किशोरावस्था ही न समझ ली जाए, जहाँ अपराध तो संभव है पर सज़ा की कोई गुंजाइश नहीं। कमाल है, वे बच्चे तो परिपक्व हो चुके पर उनकी मासूमियत अब न्यायपालिका की सोच में पाई जाती है।
टीवी चैनल पर बच्चों को उनके पढ़ने, खेलने की उम्र में उस स्टारडम का पाठ पढ़ाया जा रहा है जिसको बड़े-बड़े स्टार भी संभाल नहीं सके। ये बच्चे माता-पिता के स्वप्नों को पूरा कर अपना वर्तमान खो रहे हैं या कि इस वर्तमान की चकाचौंध से प्रभावित हो अपना भविष्य धुंधलाने में लगे हैं यह भी स्पष्ट नहीं। पर क्या इनके नाज़ुक कंधे इस व्यवसाय से जुड़े तनाव और अपेक्षाओं के भार को उठा पाने में समर्थ होते हैं? जब हम ‘बाल-श्रमिकों’ को (जो कि अपने परिवार का पेट भरते हैं) अपराध मानते हैं तो फिर ये बच्चे ‘सेलेब्रिटी’ की श्रेणी में कैसे आते हैं? इस विषय पर तमाम सामाजिक संगठनों की आँखें क्यों नहीं खुलतीं?
दुःख इस बात का है कि माता-पिता की व्यस्तता, कार्यभार का खामियाज़ा ये मासूम भुगतते हैं। बच्चों को हम भौतिक सुख-सुविधाएँ न दे सकें चलेगा, पर उन्हें उनके हिस्से का स्नेह, बचपन की मासूमियत और स्वतंत्रता तो देनी ही होगी। साथ ही यह विश्वास भी कि हम हर हाल में उनके साथ है। हमारा प्रेम उनके पास या फेल होने की शर्तों पर नहीं टिका हुआ है। सबसे जरुरी कि हम उनके सपनों को जीवित रखें और उन्हें पूरा करने के लिए अपना समय और बेशर्त प्रेम दें जिसके कि वे जन्म से ही हक़दार हैं।
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चलते-चलते : लेखन, आत्मिक संतुष्टि एवं विचारों की अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट माध्यम है। लेकिन क्या हर ‘लिखा हुआ’ साहित्य ही होता है? या कि नामी पत्रिकाओं में ‘प्रकाशित’ हो जाना भर ही लेखक का एकमात्र उद्देश्य रह गया है? रचनाओं की चोरी से लेकर उन्हें अपने नाम से छपवा लेने की मानसिकता किस तरह के साहित्य और साहित्यकार की ओर इंगित कर रही है? इस तथ्य से तो हम भलीभांति परिचित हैं कि इस पेशे में न तो उतना नाम है न पैसा! फिर ऐसा क्या है जो किसी को इस हद तक गिरने के लिए बाध्य कर देता है? यक़ीनन, यह कृत्य संतुष्टिदायक तो हो ही नहीं सकता तो फिर अपनी नक़ली, आभासी महानता का ढोल किसके आगे और क्यों पीटना?
देखने लायक़ पर बेहद अफ़सोसजनक बात यह भी है कि सच्चाई-सच्चाई की पुकार लगाने वाले लेखकों की स्वार्थ के आगे कैसी घिघ्घी बंध जाती है! गुटबाज़ी और एक-दूसरे को प्रमोट करने की चाहत इनकी जुबां पर चुप्पी का मजबूत शटर गिरा देती है। अगर अपनी क़ाबिलियत पर भरोसा है, तो बिंदास लिखो; सच का खुलकर साथ दो। लिखते भी हो और सच बोलने से डरते भी, तो काहे के संवेदनशील और सरोकारी कवि! नफ़ा-नुक़सान का हिसाब लगाते इस बाज़ार के मतलबी व्यापारी ही ठहरे!
– प्रीति अज्ञात