धरोहर
बंदे में था दम……..’वन्दे मातरम्’
(27 जून 1838 – 8 अप्रैल 1894)
आदि काल से ही पृथ्वी को मातृभूमि की संज्ञा दी गई है। भारतीय अनुभूति में पृथ्वी आदरणीय बताई गई है। इसीलिए पृथ्वी को माता कहा गया है। अथर्ववेद में कहा गया है कि ‘माता भूमि’:, पुत्रो अहं पृथिव्या:। अर्थात भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ। यजुर्वेद में भी कहा गया है- नमो मात्रे पृथिव्ये, नमो मात्रे पृथिव्या:। अर्थात माता पृथ्वी (मातृभूमि) को नमस्कार है, मातृभूमि को नमस्कार है। वाल्मीकि रामायण- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ अर्थात जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी उपर है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दिनों में भारत-माता की छबि बनी।
19वीं सदी में अंग्रेजी गुलामी के खिलाफ इस तरह का राष्ट्रवादी सोच मातृपूजक बंगाल में उभरा था… उस समय के बंगाली लेखकों ने उसकी स्तुति में गीत व नाटक रचना शुरू किया। तब भी एक स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य की उनकी अवधारणा लोकतांत्रिकता पर यूरोपीय सोच से ही निकली और आगे अन्य धड़ों के बीच पनपी। उस समय सबका दुश्मन अंग्रेज शासन था, इसलिए हिंदू, मुसलमान, सिख आदि अलग-अलग वर्गों के बीच के मतभेद आजादी पाने तक के लिए खुद-ब-खुद स्थगित कर दिए गए। और 1882 में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास ‘आनंद मठ’ में ‘भारत माता’ को मानो साकार रूप ही दे दिया। आनंद मठ ने साम्राज्यवाद के खिलाफ विद्रोह का परचम उठाने वाले संन्यासियों की राष्ट्रभक्ति को बंगाल में घर-घर होने वाली मां काली की पारंपरिक वंदना से एकाकार कर दिया।
बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय बंगाली के प्रख्यात उपन्यासकार, कवि, गद्यकार और पत्रकार थे। भारत के राष्ट्रीय गीत ‘वन्दे मातरम्’ उनकी ही रचना है जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के काल में क्रान्तिकारियों का प्रेरणास्रोत बन गया था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पूर्ववर्ती बांग्ला साहित्यकारों में उनका अन्यतम स्थान है। बंगला साहित्य में जनमानस तक पैठ बनाने वालों मे शायद बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय पहले साहित्यकार थे। क्यूंकि इसके पहले बंगाल के साहित्यकार बंगला की जगह संस्कृत या अंग्रेजी में लिखना पसन्द करते थे।
बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय का जन्म उत्तरी चौबीस परगना के कंठालपाड़ा, नैहाटी में एक परंपरागत और समृद्ध बंगाली परिवार में हुआ था। उनकी शिक्षा हुगली कॉलेज और प्रेसीडेंसी कॉलेज, कोलकाता में हुई। 1857 में उन्होंने बीए पास किया और 1869 में क़ानून की डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होने सरकारी नौकरी कर ली और 1891 में सरकारी सेवा से रिटायर हुए। उनका निधन 8 अप्रैल 1894 में हुआ। प्रेसीडेंसी कालेज से बी. ए. की उपाधि लेनेवाले ये पहले भारतीय थे। शिक्षा समाप्ति के तुरंत बाद डिप्टी मजिस्ट्रेट पद पर इनकी नियुक्ति हो गई। कुछ समय तक बंगाल सरकार के सचिव पद पर भी रहे।
बंकिमचंद्र चटर्जी की पहचान बांग्ला कवि, उपन्यासकार, लेखक और पत्रकार के रूप में है। उनकी प्रथम प्रकाशित रचना राजमोहन्स वाइफ थी। इसकी रचना अंग्रेजी में की गई थी। उनकी पहली प्रकाशित बांग्ला कृति ‘दुर्गेशनंदिनी’ मार्च 1865 में छपी थी। यह एक रूमानी रचना है। उनकी अगली रचना का नाम कपालकुंडला (1866) है। इसे उनकी सबसे अधिक रूमानी रचनाओं में से एक माना जाता है। उन्होंने 1872 में मासिक पत्रिका बंगदर्शन का भी प्रकाशन किया। अपनी इस पत्रिका में उन्होंने विषवृक्ष (1873) उपन्यास का क्रमिक रूप से प्रकाशन किया। कृष्णकांतेर विल में चटर्जी ने अंग्रेजी शासकों पर तीखा व्यंग्य किया है।
आनंदमठ (1882) राजनीतिक उपन्यास है। इस उपन्यास में उत्तर बंगाल में 1773 के संन्यासी विद्रोह का वर्णन किया गया है। इस पुस्तक में देशभक्ति की भावना है। चटर्जी का अंतिम उपन्यास सीताराम (1886) है। इसमें मुस्लिम सत्ता के प्रति एक हिंदू शासक का विरोध दर्शाया गया है।
उनके अन्य उपन्यासों में दुर्गेशनंदिनी, मृणालिनी, इंदिरा, राधारानी, कृष्णकांतेर दफ्तर, देवी चौधरानी और मोचीराम गौरेर जीवनचरित शामिल है। उनकी कविताएं ललिता ओ मानस नामक संग्रह में प्रकाशित हुई। उन्होंने धर्म, सामाजिक और समसामायिक मुद्दों पर आधारित कई निबंध भी लिखे।
बंकिमचंद्र के उपन्यासों का भारत की लगभग सभी भाषाओं में अनुवाद किया गया। बांग्ला में सिर्फ बंकिम और शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय को यह गौरव हासिल है कि उनकी रचनाएं हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं में आज भी चाव से पढ़ी जाती है। लोकप्रियता के मामले में बंकिम, शरद और रवीन्द्र नाथ ठाकुर से भी आगे हैं। बंकिम बहुमुखी प्रतिभा वाले रचनाकार थे। उनके कथा साहित्य के अधिकतर पात्र शहरी मध्यम वर्ग के लोग हैं। इनके पात्र आधुनिक जीवन की त्रासदियों और प्राचीन काल की परंपराओं से जुड़ी दिक्कतों से साथ साथ जूझते हैं। यह समस्या भारत भर के किसी भी प्रांत के शहरी मध्यम वर्ग के समक्ष आती है। लिहाजा मध्यम वर्ग का पाठक बंकिम के उपन्यासों में अपनी छवि देखता है।
सरकारी नौकरी में रहते हुए उन्होंने 1857 का गदर देखा था, जिसमें शासन प्रणाली में आकस्मिक परिवर्तन हुआ। शासन भार ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों में न रहकर महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया था। सरकारी नौकरी में होने के कारण वे किसी सार्वजनिक आन्दोलन में प्रत्यक्ष भाग नहीं ले सकते थे। अत: उन्होंने साहित्य के माध्यम से स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए जागृति का संकल्प लिया।
रबीन्द्रनाथ ठाकुर ‘बंग दर्शन’ में लिखकर ही साहित्य के क्षेत्र में आए। वे बंकिम को अपना गुरु मानते थे। उनका कहना था कि, ‘बंकिम बंगला लेखकों के गुरु और बंगला पाठकों के मित्र हैं’। रबीन्द्रनाथ ने एक स्थान पर कहा है- राममोहन ने बंग साहित्य को निमज्जन दशा से उन्नत किया, बंकिम ने उसके ऊपर प्रतिभा प्रवाहित करके स्तरबद्ध मूर्ति का अपसरित कर दी। बंकिम के कारण ही आज बंगभाषा मात्र प्रौढ़ ही नहीं, उर्वरा और शस्यश्यामला भी हो सकी है।
बंकिम चन्द्र ने 1874 में प्रसिद्ध देश भक्ति गीत वन्दे मातरम् की रचना की, जिसे बाद में आनन्द मठ नामक उपन्यास में शामिल किया गया। प्रसंगत: ध्यातव्य है कि वन्देमातरम् गीत को सबसे पहले 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया गया था।
राष्ट्रीय दृष्टि से ‘आनंद मठ’ उनका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है। इसी में सर्वप्रथम वन्दे मातरम् गीत प्रकाशित किया गया था। ऐतिहासिक और सामाजिक तानेबाने से बुने हुए इस उपन्यास ने देश में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने में बेहद योगदान दिया। ‘वंदे मातरम्’ एक गीत है, जिसके शुरूआती दो अंतरे संस्कृत में है। शेष अंतरा बांग्ला में है।
लोगों ने ये समझ लिया कि विदेशी शासन से छुटकारा पाने की भावना अंग्रेजी भाषा या यूरोप का इतिहास पढऩे से ही जागी। इसकी प्रमुख वजह थी अंग्रेजों द्वारा भारतीयों का अपमान और उन पर तरह-तरह के अत्याचार, बंकिम के दिए ‘वन्दे मातरम’ मंत्र ने देश के सम्पूर्ण स्वतंत्रता संग्राम को नई चेतना से भर दिया।
चूंकि भावनात्मक रूप से मां के हम अधिक करीब होते हैं, इसलिए देश को या उस भूमि को जहां हम जन्म लेते हैं, मातृभूमि कहा गया। एक समय था जब देश की आजादी के लिए ‘बंदे मातरम’ कहने पर अंग्रेजी हुकूमत भारतीयों की चमड़ी उधेड़ देती थी और आज आजादी के 70 वर्षों के पश्चात हमारी ऐसी स्थिति हो गई है भारतीय लोकतंत्र के मंदिर में बैठने वाला व्यक्ति यह कहता है कि बंदे मातरम नही बोलूंगा, भारत माता नही कहूंगा क्योंकि इस्लाम मे यह मना है।
कई नेता और मुखौटाधारी धर्मनिरपेक्ष प्रवक्ता तो ‘वंदे मातरम्’ भी बोलने से परहेज करते हैं। विडंबना है कि ‘मां’ का नाम लेने में ही शर्म आती है। कुछ लोगों को अपनी जन्मभूमि, अपनी मातृभूमि, अपनी राष्ट्रीय मां का उच्चारण करने में ही आपत्ति है, तो उनसे ज्यादा बदनसीब नागरिक कौन होगा? ‘बंदे मातरम्’, ‘भारत माता’ कहना हमें अपना अधिकार महसूस हुआ चाहिए, कर्त्तव्य नहीं। कोई बोझ नहीं, कोई जबरन नहीं, आत्मा से फूटना चाहिए-‘भारत माता की जय’/ वंदे मातरम्।
‘वंदे मातरम’ का नारा यदि कुछ लोग नहीं लगाएंगे, तो न लगाएं। इससे माँ भारती की प्रतिष्ठा और गरिमा को कोई फर्क नहीं पड़ता। भारतीय लोकतंत्र और संप्रभुता बौनी नहीं होती। समाज विक्षिप्त लोगो के कहने से नही निर्देशित होती है।
चिंता इस बात की नहीं है कि कोई भारत माता की जय बोलता है, या नहीं। चिंता इस बात की है, कि आखिर क्यों हम इन नकारात्मक बातों में अपनी ऊर्जा नष्ट कर रहे हैं? आखिर क्यों हम चिंतन में अक्षम और व्यर्थ बहस में सक्षम होते जा रहे हैं?
बंकिमचंद्र चटर्जी की सशक्त लेखनी से बंगला साहित्य तो समृद्ध हुआ ही है, हिन्दी भी अपकृत हुई है। वह ऐतिहासिक उपन्यास लिखने में सिद्धहस्त थे। उन्हें इंडिया का एलेक्जेंडर ड्यूमा माना जाता हैं।
– नीरज कृष्ण