उभरते-स्वर
बस एक के दो हैं
सड़कों के किनारे
एक अंतहीन ग़रीबी
एक मासूम
चाक से तैयार मिट्टी के वो टुकड़े
सूनी निगाह
फिर उठी चमक
निकली आवाज़
ले लो न साहब!
एक के दो हैं, ले लो न साहब
सुंदर किनारों वाले हैं, ले लो न साहब
आँगन रोशन करने वाले हैं, ले लो न साहब
शुद्ध, साफ, पाक चमक वाले हैं, ले लो न साहब
हथेली पर धर उसे
आ सामने खड़ा हुआ
कुछ नीर उसकी आँखों में
कुछ बेचैनी उसकी बातों में
बहुत सस्ते हैं, शुद्ध, साफ और पाक
बस एक के दो हैं, ले लो न साहब
तिरछी निगाह, मिट्टी के उन टुकड़ों पर
कदम बढ़ गये
चमकते, लटकते, झालरों की दुकानों पर
नीर उतर आए, अब गालों पर
झुका सिर, चला आया किनारों पर
पर हारा नहीं, डरा नहीं
सामने आ रहे राही को देख
फिर से भर उम्मीद
निकल पड़ी आवाज़
बस एक के दो हैं, ले लो न साहब
ले लो न साहब….!!!
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फुटपाथ
चहुंओर शोर ही शोर है
धरा रक्त से सराबोर है
वो चला गया, जो रौंद कर
नहीं उसपे किसी का ज़ोर है
मासूम से थे फूल वो
समझा जिसे था धूल वो
कचरों से लेकर चिथड़ों तक
जीवन था उनका शूल वो
सिर रख कर उसका गोद में
अश्रु थे बहते जा रहे
ममतामयी के हिय से बस
थे दर्द वो चिल्ला रहे
था क्षत-विक्षत सा शव उधर
सर था कहीं और धड़ किधर
कोई तो खोज कर ला दो अब
मेरे स्वामी की काया इधर
घावों का था वर्षण हुआ
उद्धत का उत्कर्षण हुआ
चूड़ी टूटी, सिंदूर धूल
मानवता का तर्पण हुआ
चक्षु शून्यता से भर गये
हृदय थे पत्थर हो गये
मनुज, मनुज के सम्मुख ही
विषपान करते रह गये
ये शयन का न स्थान है
तू इस बात से न अंजान है
थी भीड़ उनसे ये कह रही
गंतव्य तेरा शमशान है
नभ को ही छतरी जाना था
सड़कों को आश्रय माना था
लाचार, बेबस, जीवन का
फुटपाथ ही इक ठिकाना था
महलों का राजकुमार है
माना सब उसके पास है
फुटपाथ के जीवन को भी
क्या कुचलने का अधिकार है!!
– ज्योति मिश्रा