आलेख/विमर्श
फाँस उपन्यास में चित्रित आत्महत्या का स्वरूप
– अमर सिंह
“ऐसा क्यों होता है साहेब राव?
ऐसा क्यों होता है?
क्या मेरे हाथ मुझे बाघ के पंजों जैसे दिखाई देते हैं?
तुमने आत्महत्या नहीं की।
हमने ही तुम्हारा खून किया है….
तुम्हारा और तुम्हारे बीवी बच्चों का…
तुम हमें माफ़ न करना
कभी न माफ़ करना साहेब राव…”
मराठी के सुविख्यात कवि विठ्ठल बाघ की ये पंक्तियाँ विदर्भ के बांगर पड़ा से देश की संसद तक गूँजनी चाहिए थी पर फांसी लगाकर पेड़ से झूलते किसान की घुटी हुई चीख की तरह ये पंक्तियाँ भी वीरान खेतों के बियावान में कहीं समा गयीं। वैसे आम दौर पर किसानों की आत्महत्या पर आवाजें उठती रहती है लेकिन यह आवाजें या तो किसी के द्वारा दबा दी गई हैं या फिर किसी खोह में, किसी अँधेरी गुफा में समा गई है जो वहाँ से कभी वापस नहीं आ सकती। शायद उन गुफाओं, उन खोहों के मुँह पर कभी न हिलाई जा सकने वाली बड़ी-बड़ी योजनाओं और आयोगों की चट्टानें रख दी गई हों। उन्हीं चट्टानों के भर तले दबे किसान कभी ऊपर नहीं उठ पाता। खेती जो आज एक डर, एक बीमारी, एक मजबूरी और एक संभावित मौत की परिभाषा बनकर रहा गई है। किसान फिर भी उसी मौत के रस्ते में अपना भाग्य आजमाता है। क्योंकि किसान के जीवन से जुड़ी खेती छूटती ही नहीं वो इस राह पर आकर खड़े हो गए हैं जिसकी मंजिल उन्हें दिखाई नहीं देती। न उनसे खेती छूटती है और न इन आत्महत्याओं का सिलसिला ही रुकता है। आज सूचना क्रांति के इस समय में जहन चीजें कुछ ही क्षणों में वायरल होकर कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है। भारत जैसे देश में जहाँ तक किसान आत्महत्या का सवाल है तो उस ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। मीडिया ने भी इस ओर प्रयास किया है जिनकी रिपोर्ट पर आज कोई शोधपरक सिलसलेवार, कायदे से पड़ताल नहीं की जाती। साथ ही जो खबर अखबारों में आती है वे सही-सही आंकड़ों के साथ प्राइम टाइम और मुख्यपृष्ठ से नदारद ही दिखाई देती हैं। इस प्रकार की खबरें पढ़ने तथा उन्हें देखने सुनने के लिए अखबार के बीच के पन्ने उलटने होंगे या फिर रात के समय जो अखबार निकलता है उसमें ढूंढना पड़ता है। ऐसे में कथाकार संजीव, अपने पाँच साल के गहन शोध और अपनी तमाम निजी समस्याओं और सीमाओं से पार पाते हुए अपने अधिक परिश्रम से उन तमाम किसानों की समस्याओं पर, आत्महत्याओं की इस सतत: त्रासदी पर ‘फाँस’ जैसा उपन्यास लेकर हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं।
देश की सबसे अवसादपूर्ण घटना, हादसों की एक लम्बी श्रृंखला से गुजरना तथा उससे रूबरू होना है तो ‘फाँस’ जैसे उपन्यास से हमें जुड़ना होगा जो ऐसे विषयों से हमें रूबरू करवाता है। जिनसे हम लगातार छिपते आये हैं और वह निरंतर किसी प्रेतछाया सा हमारे अतीत, वर्तमान और भविष्य पर मंडराता रहता है।
संजीव के इस उपन्यास ‘फाँस’ में चित्रित समस्याओं में किसी एक किसान, किसी एक खेतिहर परिवार, किसी एक गाँव या फिर किसी एक प्रांत की खेती तथा किसानों की समस्याओं की कथा भर नहीं है अपितु यह उस घाव के नासूर बनने की कहानी है जिसमें कई दशकों से या यूँ कहे कि आजादी के बहुत पहले से धर्म, अंधविश्वास, जटिल जातीय संरचना, शोषणयुक्त समाज के कीड़े बिलबिला रहे हैं और अब इसमें राजनैतिक उपेक्षा और भ्रष्टाचार का संक्रमण भी बुरी तरह फ़ैल गया है। यह खेती जो भारत जैसे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कही जाती है उसमें कैंसर जैसे असाध्य रोग से पीड़ित हो जाने की कथा है जो मृत्यु की गोद में जाकर शांत होती है।
वस्तुत: व्यक्ति आत्महत्या क्यों करता है? यह सवाल एक बड़ा ही मुश्किल और असहनीय हो सकता है मगर साथ ही बहुत चिंतनीय भी है। आम तौर पर व्यक्ति आत्महत्या इसलिए करता है जब वह किसी घुटन में जी रहा हो और उसे साँस लेने के लिए कोई भी रास्ता नजर नहीं आता हो। ‘फाँस’ उपन्यास में आत्महत्या के स्वरूप की बात करें तो वह बहुत ही विस्तृत है। देश भर में आत्महत्या करने वालों में सबसे अधिक संख्या किसानों की ही क्यों है? विदर्भ के यवतमाल जिले के बनगांव के एक शेतकरी शिबू (शिवशंकर) और शकुन (शकुंतला) और उनकी दो बेटियाँ छोटी (कलावती) और बड़ी (सरस्वती) के तमाम दुःख तकलीफों, मुश्किलों के बीच भी अपनी दुनिया, अपने सपने में रमे परिवार के जीवन के किसी एक आम दिन से शुरू होने वाली यह कहानी कथा धीरे-धीरे किसानों के जीवन के कई अँधेरे-उजाले कोनों में झांकती हुई आगे बढती है। जो एक किसान, एक घर, एक खेत, एक दुस्वप्न, एक आत्महत्या से शुरू होने वाली कहानी में कई किसान, घर, खेत, अनगिनत नष्ट होती फसलें तथा टूटे सपने, अनगिनत आत्महत्याओं की कहानियाँ जुड़ते-जुड़ते यह देश भर के लिए अन्न उपजाने वाले किसानों की हत्याओं और उनके साथ होने वाली साजिशों की महागाथा बन जाती है। समस्याएं छोटी-छोटी भले ही हो अगर उनका समाधान नहीं हुआ तो वहीं छोटी-छोटी समस्यायें धीरे-धीरे ज्यादा बड़ी हो जाती हैं। जो देशभर के किसानों के सामने उसे और उसके परिवार को लील जाने में बदल जाती है। जब यह पढ़ते है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है और उसे जब आज के परिप्रेक्ष्य में सबसे अधिक त्रासद और विद्रूप पैदा करने वाला तथा विडम्बनाओं से भरा हुआ पाते हैं तो यह एक साधारण सा वाक्य लगने लगता है।
संजीव का यह ‘फाँस’ उपन्यास शुरू से अंत तक हमें किसान जीवन की त्रासदियों से विद्रूपताओं और विडम्बनाओं से लेकर रूबरू करता है। आज भी भारत में खेती-किसानी मात्र एक जीविका का साधन नहीं है बल्कि एक जीवन पद्धति है जिससे अधिसंख्य किसान चाहकर भी मुँह नहीं मोड़ सकते। इस विषय में हम उपन्यास की एक प्रमुख महिला पात्र छोटी (कलावती) के स्वरों के माध्यम से जान सकते है – “तुम ही नहीं, इस देश के सौ में से चालीस शेतकरी आज ही खेतों को छोड़ दे अगर उनके पास कोई दूसरा चारा हो। 80 लाख ने तो किसानी छोड़ भी दी। ….क्यों, आई! तुम क्या सोचती हो, छोड़ देंगे न?” शेती कोई धंधा नहीं बल्कि एक लाइफ स्टाइल है – जीने का तरीका, जिसे अन्य किसी भी धंधे के चलते नहीं छोड़ सकता सो तुम बाबा लाख कहो की शेती छोड़ दोगे, नहीं छोड़ सकते, किसानी तुम्हारे खून में है।”
खेती किसानों के आज खून में उनकी रग-रग में दौड़ने वाली उस हर एक रक्तिम बूंद का नाम है। इसका उद्धरण हम ऊपर देख चुके हैं। उपन्यास में आत्महत्या करने वाले प्रमुख पात्रों में सुनील, शिबू, विठ्ठल, आशा है। जो किसी न किसी कारण से हमें हैरान परेशान करते हैं। भले ही वे हमारे सगे नहीं हों किन्तु एक सहृदय पाठकों के अंतर्मन में ये सभी पात्र एक विचार छोड़ जाते हैं। जिस पर संजीव सरीखे उपन्यासकार अपनी कलम चलाते हैं।
बनगाँव का शिबू अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए जी तोड़ मेहनत करता है। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद भी शिबू तथा उसका परिवार उन मुसीबतों से छुटकारा नहीं पाता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार 1995 के बाद हमारे देश में लगभग आठ लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। जिसमें सबसे अधिक आत्महत्या करने वाले किसानों में महाराष्ट्र राज्य से है। यह सिलसिला अब भी जारी है। ताजा जनगणना आंकड़ो के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में किसानी छोड़ चुके किसानों की संख्या भी एक करोड़ से कुछ ही कम है। आज भी सुनील, शिबू जैसे किसानों को आत्महत्या करनी पड़ रही है। आखिर क्या कारण है जो एक किसान अपनी खेती से इस प्रकार प्रेम करता है तथा उसी के सहारे अपने परिवार का लालन-पालन करता है।
उपन्यास में शिबू और उसके परिवार को जीवन यापन करने के लिए किस प्रकार से समाज की यातना सहकर संघर्ष करना पड़ता है। महाजनी सभ्यता और जातिगत भिन्नता के चलते उनको मनुष्य से अलग दृष्टि से देखने का प्रयास करते हैं। शिबू एक संघर्षशील किसान के रूप में उपन्यास में चित्रित पात्र है जो अपने परिश्रम से समस्याओं को दूर करना चाहता है, चाहे वह समस्या कर्ज की हो या फिर सामाजिक विभिन्नता, सभी समस्याओं से लड़ते हुए दूर करने का प्रयास किया है। कर्ज अगले महीने चुकाना है और चिंता अभी से शुरू हो गई। गुड़ी पड़वा जो मराठी किसानों के लिए सबसे बड़ा त्योहार है। उस दिन शिबू के परिवार में पकवान नहीं बने। शिबू कहता है, जब तक कर्ज न उतर जाये रूखी-सूखी ही ठीक है। सोयाबीन का पूस बेचकर मिला ग्यारह हजार नौ सौ। सात हजार पिछले साल का। बची तुअर उससे मिले एक हजार, पाँच सौ की मूंग। कुल मिलाकर सत्ताईस हजार भी नहीं हुए। बैंक से ऋण किया था 25 हजार जो ब्याज लगाकर 29 हजार नौ सौ साठ हो गये। जो शकुन की हँसली बेचकर चुकता हुआ। शिबू प्यार से हँसली वाले गले के स्थान को सहलाता हुआ कहता है – “दर्द हो रहा है? नहीं उलटे हल्का लग रहा है। एक फाँस गले से निकल गयी।”
विजयेन्द्र एक शोघ पत्र के हवाले से कहता है कि हिन्दू शास्त्रों में मरने के पूर्व जिन 18 बातों पर जोर दिया गया था, उसमें कर्ज चुकता करना भी था। उसे धर्म, कर्म, पितृ-ऋण, मातृ-ऋण, गुरु-ऋण वगैरह से जोड़ दिया था। अगर मामूली आदमी हो तो तुम्हें छूट नहीं लेकिन अगर पूंजीपति या रसूखदार हो तो करोड़ों, अरबों-खरबों का कर्ज, इनकम टैक्स सब माफ़ होगा या डराकर शान से धंधा चमकाकर शीर्ष पद भी पा सकते है। महाजनी सभ्यता का उद्भव यही शास्त्र है चाणक्य, चंद्रगुप्त के ज़माने से पहले से आज तक बरकरार है। कोई यह नहीं पूछता कि कर्ज अदा करने वाला अदा कर पाने की स्थिति में भी है या नहीं। “2004 की एक रिपोर्ट का पर्चा लहरा कर कहा गया कि- सरकारी बैंक जानबूझ कर किसानों को कम ऋण देते हैं ताकि वे निजी एजेंसियों और देसी महाजनों के जाल में जा फंसे।” किसी ने कहा- “1996 के बाद अमेरिका ने अपने 9 लाख फार्मरों (किसानों) के लिए साथ बुना। सब्सिडी दी,सब्सिडी! जबकि हमारे यहाँ कर्ज देते हैं कर्ज, नो सब्सिडी! वर्ल्ड बैंक, आई.एम्. एफ़. के इशारे पर चलने वाली सरकार कृषक विरोधी है।”
किसानों द्वारा की जाने वाली इन आत्महत्याओं के बाद भी सरकार इस विषय पर कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है। किसानों ने अब दूसरा तरीका अपनाया है आत्महत्या का सरकार से अनुमति लेकर ऐसा करने का। इस विषय में सभा को सम्बोधित करते हुए उपन्यास के एक पात्र ‘नाना’ कहते हैं- “गाँव वालों को नाना का प्रणाम! हमने सुना, आप लोगों ने सरकार से लिख कर आत्महत्या करने की इजाजत मांगी है। वाह! क्या शिष्टाचार है? एइ मैं सदके जांवा। हमारा कहना है, मरना है तो मर जाओ, ये परमिशन की नौटंकी क्यों? सोचते हो तुम्हारे दुखों से दुखी और द्रवित हो जाएगी सरकार! दान, दया की बरसात करेगी। है न? कीड़े-मकोड़े की तरह मर जाने वाले डरपोकों!”
समय समय पर सरकारों द्वारा भी किसानों के उत्थान हेतु तरह-तरह के कदम उठाये जाते रहे हैं। परन्तु उनमें से कुछ तो पर्याप्त नहीं और कुछ तो अपनी राजनीति को चमकाने हेतु उठाये गए जो किसान शहरों के बड़े-बड़े उद्योगपतियों का भरण-पोषण करता है। वही किसान कभी कभी अपने ही भरण-पोषण के लिए असक्षम हो जाता है। इतिहास गवाह रहा है कि साधारण किसान साहूकारों, जमींदारों द्वारा तरह तरह से प्रताड़ित किया जाता था। फिर भी वह जीवन से निराश नहीं होता था। बाधाओं और मुश्किलों से लड़ना तो उसके जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है। जमीदारों और साहूकारों की प्रताड़ना समाप्त होने के बाद भी किसान अब तक अपनी परिस्थितियों से जूझता आ रहा है परन्तु परिस्थितियों से हार मानकर अपनी जिम्मेदारियों से भागना उसका स्वभाव नहीं है। आज का किसान आत्महत्या करने लगा है। सदा परिस्थितियों से लड़ने वाला किसान इतना कमजोर कैसे हो गया? निस्संदेह आज राजनीति के चलते उसकी मानसिकता पर वार होता। उसे बेचारेपन का अहसास करवाया जाता है, लोग उसे हथियार बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। उनकी राजनीति के चलते किसान स्वयं लाचार और बेसहारा महसूस करते हुए स्वार्थपरता का शिकार बन जाता है और जीवन से हार मान स्वयं के साथ घात कर बैठता है। उसे क्या पता कि उसके मरणोपरांत यही समाज के ठेकेदार उसकी मृत्यु को हथियार बनाकर अपनी राजनीति का पलड़ा भारी करेंगे। आज सबसे अधिक आवश्यकता है किसान को शिक्षित और जागरूक होने की ताकि कोई भी उन्हें अपनी स्वार्थ साधना का शिकार न बना सके।
उपन्यास के पात्र शिबू ने भले ही कर्ज की समस्या से आत्महत्या नहीं की, किन्तु उसका मूल कर्ज ही दिखाई पड़ता है। जो उसे समाज के तानों को सहन करने की शक्ति नहीं दे पाया था। इस सबके बाद सबसे बड़ी परेशानी एक गरीब किसान के लिए उसकी बेटी भी होती है। शिबू की आत्महत्या का कारण भी उसकी छोटी बेटी ही बनती है। जो किसी और के बच्चे को पालने के लिए घर ले आती है। किन्तु यहीं से गाँव वालों को एक बहाना मिलता है शिबू की परेशानियों में इजाफा करने का। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एन. सी. आर. बी) के ताजा आंकड़ों की माने तो 2014, 2015 के मुकाबले 2016 में 42 प्रतिशत अधिक किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। इसमें सबसे ऊपर महाराष्ट्र का स्थान है। इन सभी की आत्महत्या का प्रमुख कारण भी कर्ज और कमजोर आर्थिक स्थिति को ठहराया गया।
– अमर सिंह