उभरते-स्वर
प्रेम पत्र
रही होगी उम्र
यही कोई सत्रह-अठरह की
तुम्हें देख
बुनने लगी ख्वाब अनेक
आँखों ही आँखों में
लिख दिए
तुम्हें
प्रेमपत्र अनेक
हर शब्द में तुम्हें
अपना शाहिद लिखा
मर मिटने के वादे किए
दीवारों पर उग आए
पौधों-सा प्यार लिखा
लिखे न जाने कितने ख्वाब
पर उन ख़्वाबों को
बनाना था एक पांडुलिपी
लो अब तुम भी पढ लो
मेरे ख़्वाबों को
जो मैंने कभी
सजाये थे बस तुम्हारे लिए
पढ़ लो उस प्रेम पत्र को
जो लिखा गया था
बस तुम्हारे लिए
साथ भेज रही एक आख़िरी पत्र
जो प्रेम पत्र से तो नहीं
पर है उसमें छुपा हुआ
बस मेरा प्रेम तुम्हारे लिए
हाँ-नहीं की उसमें मैंने
तुम्हारी तुलना किसी से
न झीलों से न पत्तों से
उसमें लिख डाले बस
उन सपनों को
जो अब तक अधूरे हैं
तुम्हारे बिना
देखो मेरे इस आख़िरी प्रेम पत्र को
जिसमें मैंने लिखा है
बस एक शब्द
‘समर्पण’
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प्रेम की परिभाषा
सुनो ऐ तपस्वी!
तपस्या में लीन
तुम ढूँढ रहे हो
न जाने प्रेम की
कितनी ही परिभाषाएँ
हे स्त्री!
तुम कभी मेनका
तो कभी सीता बन
हर रोज़ गढ़ रही हो
प्रेम की कई परिभाषा।
गढ़ी जा रही
रोज़-रोज़ न जाने
कितनी ही
प्रेम की परिभाषाओं में
आजकल लोग
जोड़-मोड़ कर
निकाल लिया करते हैं
कुछ ऐसी भी परिभाषा
जो विषय वस्तु से
बिलकुल विपरीत हुआ करती है
इस परिभाषा का
आधुनिकरण कर विश्लेषण करो
तो निकल आती है
नफ़रत और जलन की परिभाषा
जो कि स्वयं में भी प्रेम का ही
एक अलग रूप है
वो भी समय के साथ
घटता और बढ़ता है जैसे प्रेम
आकार रहित होता है
चाँद की तरह
ख़ूबसूरती का दाग लिए हुए।
– रश्मि सिंह