प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय!
प्रेम दो आत्माओं के एक होने का नाम है। प्रेम भावनाओं और विश्वास का पवित्र बंधन है। प्रत्येक धर्म में प्रेम करने की बात कही गयी है। प्रेम जीवन का आधार है। अक्षय ऊर्जा का भंडार है। प्रेम न केवल सजीव के प्रति हो सकता है बल्कि ये निर्जीव वस्तुओं में भी अपना स्थान तलाश लेता है। अतः प्रेम एक शाश्वत कर्म है। जो काल और समय की करवटों के साथ भी परिवर्तित नहीं होता है। प्रेम का आदर्श प्रतिरूप भी यही है कि जो पहले जैसा था वह अब भी वैसा ही है। प्रेमी व्यक्तित्व हर पदार्थ में अपनत्व के दर्शन कर लेता है। जीवन में प्रेम का पुष्प खिलने से समस्याओं का रेगिस्तान भी हरा-भरा दिखने लगता है। बेशक यह आवश्यक है कि प्रेम केवल देह पर टिका न हो, उसका संबंध देह से भी ऊपर मन और मस्तिष्क के साथ आत्मा का होना चाहिए।
कबीर कहते हैं प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय ! राजा पिरजा जेहि रुचे, शीश देई लेजाए !! अर्थात प्रेम ना तो खेत में पैदा होता है और न ही बाजार में बिकता है। राजा या प्रजा जो भी प्रेम का इच्छुक हो वह अपने सिर का यानी सर्वस्व त्याग कर प्रेम प्राप्त कर सकता है। सिर का अर्थ गर्व या घमंड का त्याग प्रेम के लिये आवश्यक है। लेकिन आज विडंबना इस बात की हे प्रेम को सिर्फ भोग की दृष्टि से देखा जाने लगा है। अब केवल किसी की बाहरी सुंदरता को देखकर उससे प्रेम किया जाने लगा है।
अतः आज हमारे लिए प्रेम का तकाजा पूरी तरह बदल चुका है। पदार्थों के बाह्य आकर्षण पर मुग्ध होने का ये भाव हमारे जीवन में भोग व हवस की भूख को बढ़ाता जा रहा है। इसलिए आजकल शादियां टूट रही हैं, तलाक के मामले बढ़ रहे हें। पारिवारिक जीवन में तनाव दस्तक दे रहा है। कारण यही है कि हमने बाह्य आकर्षण की तृष्णा में व्यक्ति के आचरण, उसकी आदतों और विचारों को देखने का प्रयास ही नहीं किया। आज के इस उपभोक्तावादी युग में व्यक्ति हर चमकती चीज को सोना समझकर उसे पाने के लिए लालायित हो उठता है। और अपने अथक परिश्रम और आड़े टेढ़े प्रयासों से वह उसको पा भी जाता है। लेकिन पाने के बाद उसे धीरे-धीरे उससे घृणा होनी शुरू हो जाती है। एक समय के बाद वह उससे छुटकारा पाना ही समस्या का समाधान समझने लगता है। ऐसे व्यक्ति की नजर में प्रेम केवल एक व्यापार है। वह प्रलोभन से देह तो खरीद सकता है लेकिन अमूल्य प्रेम की कीमत कभी अदा नहीं की जा सकती है। इस बात से वह परे रहता है। अतः प्रेम में देह नहीं दिल महत्वपूर्ण है। और यही दिल हर किसी को दिया नहीं जा सकता।
फरवरी माह की सात से चौदह तारीख के बीच मनाये जाने वाले वेलेंटाइन डे से आज कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। खासकर इस दिवस के लिए युवा पीढ़ी पूरे साल लालायित और बेसब्र दिखती है। मानो हमने वेलेंटाइन डे को एक परंपरा का रूप देकर इसका निर्वहन करना अपना परम कर्त्तव्य समझ लिया है। आज की युवा पीढ़ी जिस वेलेंटाइन डे को प्रेम दिवस की संज्ञा देकर मना रही है उन्हें वेलेंटाइन डे की हकीकत से रू-ब-रू होना बेहद जरूरी है। कहा जाता है कि पहले यूरोप में लोग बिना शादी के ही वो सबकुछ करने में स्वतंत्र थे, जो शादी के सात फेरों के बाद करने की हमें समाज इजाजत देता है। एक बेहूदा कल्चर चल पड़ा था संपूर्ण यूरोपीय महाद्वीप में। लोग किसी के भी साथ चले जाते थे और मनमर्जी पर छोड़ भी देते थे। यह सब इटली के संत वेलेंटाइन को रास नहीं आया और उन्होंने इसकी भर्त्सना कर एक अलग मार्ग अपनाया। संत वेलेंटाइन ने लोगों को शादी के बंधन में बांधकर जीवन के सच्चे अर्थों से परिचय करवाया। लेकिन ईसाई व चर्च के पदारी होने के कारण लोगों का धर्म परिवर्तन भी खूब कराया। यह सब रोम के राजा क्लोडियस को नागवार गुजरा और उन्होंने संत वेलेंटाइन को बुलाकर इसे अपनी यूरोपीय संस्कृति और परंपराओं के विरुद्ध बताकर इस पर तुरंत रोक लगाने को कहा। पर वेलेंटाइन नहीं माने और उन्हें राजा ने फांसी पर टांग दिया।
एक कुप्रथा के कलंक से यूरोप को मुक्त कराने के लिए संत वेलेंटाइन का ये कत्लेआम इतिहास में यादगार हो गया। बेशक, वेलेंटाइन ने एक बुरी परंपरा का दमन कर एक नई परंपरा का शुभारंभ करना चाहा जो काबिले तारीफ है लेकिन जबरन धर्म परिवर्तन कराकर लोगों को ईसाई बनाने की उनकी ये गलती कभी माफ न की जा सकती है। यह सब यूरोप में हुआ जिसका दूर-दूर तक भारत से कोई ताल्लुक नहीं है। फिर भी हमारे देश की नौजवान पीढ़ी इस सब को अपने बाप-दादाओं की बनाई परंपरा मानकर वेलेंटाइन डे मनाते ही जा रही है। हमारी युवा पीढ़ी आज अंधी होकर इन सब चीजों में अपना धन बर्बाद कर रही है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण-उत्तर कोरिया, चीन जैसे कई देशों को वेलेंटाइन डे के नाम पर अपनी वस्तुओं को बेचने के लिए भारत जैसा देश एक सर्वश्रेष्ठ बाजार के रूप में नजर आता है। और यहां के लोग उनको अपने सबसे बड़े ग्राहक दिखते हैं। ग्रीटिंग कार्ड, टेडी बियर, चॉकलेट, तरह-तरह के गुलाब, गिफ्टस इत्यादि वस्तुओं को बेचकर विदेशी कंपनियां भारी मात्रा में मुनाफा कमाती है। इन सब से अनजान रहकर युवा अपनी प्रेमिका के लिए ये सारी चीजें मुंहमांगे दामों पर खरीदता है। यदि ये सारी चीजें नहीं खरीदें तो आपने वेलेंटाइन डे भी नहीं मनाया कंपनियां यह साफ तौर पर कहती है।
अब सवाल यह उठता है क्या वेलेंटाइन डे मनाने के लिए यह सब संसाधन होने जरूरी हैं जो विदेशी कंपनियां मुनाफे की आड़ में हमें मूर्ख बनाकर बेचती है। क्या इनके बगैर वेलेंटाइन डे मनाया तो संत वेलेंटाइन नाराज हो जायेंगे ? और सबसे जरूरी बात यह है कि क्या हमें प्रेम और उसका अर्थ यूरोप जैसे पाश्चात्य देश से सीखना पड़ेगा? जो आज तक भोगवाद की बीमारी से ग्रस्त है। जहां प्यार की आड़ में छल, कपट और फरेब चलता है। जबकि हमारी भारतीय संस्कृति का आधार प्रेम है और हमारे जीवन की शुरूआत ही प्रेम से होती है। वो हमारा प्रेम ही है जो हमें 29 राज्यों और 8 केन्द्र शासित प्रदेशों के बावजूद भी एक बनाकर रखता है। हमारी संस्कृति प्रेम के मार्ग पर चलकर ही फलीभूत हुई है। जिस देश में सिर्फ सजीव ही नहीं निर्जीव चीजों में भी प्रेम का भाव देखा जाता हो और जिस देश के लोग गुड़ से भी ज्यादा मधुर हों और जिस सरजमीं पर प्रेममूर्ति व सोलह हजार रानियों के दिलों के राजा श्रीकृष्ण ने अवतरित होकर प्रेम के प्रतिमान गढ़े हों, जहां की माटी के कण-कण में प्रेम की सुगंध शरीर में रक्त की तरह घुली-मिली हो, क्या उस देश के लोगों को प्रेम का ढाई अक्षर किसी यूरोप या उस जेसे किसी अन्य देश से सीखने की जरूरत है ? वेलेंटाइन डे जैसे दिन केवल शारीरिक संबंधों तक ही सीमित है। जिनके अंत में हताशा और दुख ही छिपा हुआ है। ये सारे ढकोसले तो चमड़े के पुजारियों की देन है।
आज जरूरत है कि इस वेलेंटाइन डे की बीमारी से पीड़ित हुए युवाओं को प्रेम के सच्चे अर्थों और असल मायनों से परिचित कराते हुए इस बला का भूत उनके सिर से अतिशीत्र उतरें। और प्रेम का इजहार करना ही है तो भारतीय रीति-रिवाजों के अनुरूप करें और उपहार देने इतने ही जरूरी है तो भारतीय कंपनियों की निर्मित वस्तुएं ही भेंट करें ताकि देश का धन देश में ही रहें। अंततः हमें विदेशी षड्यंत्रों की चंगुल में फंसती देश की युवा पीढ़ी को इन खतरों के प्रति अगाह करना होगा।
– नीरज कृष्ण