जो दिल कहे
प्रेम दूसरे के बाग़ में से चुराया हुए फूल नहीं है!
प्रेम में एक ऐसी अद्भुत संजीवनी है जिसके लिए सृष्टि का हर प्राणी तरस ता है,फिर चाहे वे पशु हों, पक्षी हों या मनुष्य। प्रेम की शक्ति सबको एक नया जीवन देती है। हर कोई चाहता है कि मैं किसी को प्रेम करूँ और मुझे कोई प्रेम करे। यह प्राणों की गहरी प्यास है, इसकी लौ सबके भीतर जलती है लेकिन सभी लोग प्यासे के प्यासे रह जाते हैं।
जैसे-जैसे हमारी बुद्धि विकसित हुई, महत्वाकांक्षा और लालच बढ़ता गया; वैसे-वैसे हमारे प्रेम करने की क्षमता कम होती गयी। दिमाग मजबूत होता गया और दिल सिकुड़ता गया। आधुनिक प्रेम ‘आई लव यू’ के जुमले में ही सिमट कर रह गया है। अधिकतर लोगों को प्रेम दर्शाते हुए एक संकोच सा होता है। वह सच्चा, सघन प्रेम फिल्मों में, कविताओं में और उपन्यासों में तो दिखाई देता है, लेकिन हक़ीकत में बिल्कुल नहीं।
अमृता प्रीतम ने लिखा है, आज मैं किसी के मुंह से प्रेम और भक्ति जैसे अल्फाज सुनती भी हूं तो ऐसे घबराए हुए से- मानो वे दूसरे के बाद से चुराए हुए फूल हों। बात सटीक है। समाज में प्रेम के इर्द-गिर्द जो अपराध भाव का जाल बुन दिया है, उससे वाकई ऐसा लगता है कि किसी से प्रेम हुआ यानी चोरी कर रहे हैं।
प्रेम का पौधा अपने हृदय की भूमि में उगाना पड़ता है। न यह उधार मिलता है, ना चोरी से मिलता है। हर व्यक्ति में प्रेम सिर्फ एक बीज के रूप में होता है, उस बीज को बोना पड़ता है, उसकी देखभाल करनी पड़ती है, उसके बढ़ने की बाट जोहनी पड़ती है। अगर यह सब नहीं किया तो प्रेम सुप्त अवस्था में छिपा रह जाएगा।
प्रेम की चाहत तो लोगों में बहुत होती है, लेकिन उसके लिए वह माहौल नहीं है जिसमें प्रेम पनपे। प्रेम की वह गहराई खो गई है जो भावना के समंदर को अपने सीने में समा ले। इस बुद्धिवादी युग में भला कैसे पनपेगा। शिक्षण-संस्थान प्रेम का विज्ञान और प्रेम की कला नहीं सिखाता। इसे तो जीवन की पाठशाला में अनेक खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजर कर ही सीखना पड़ता है।
कुछ रिश्ते हमें गुदगुदाते हैं। कुछ रिश्ते हमें तकलीफ देते हैं। कुछ रिश्ते, जिन्हें हम सिर्फ निभाते हैं, और कुछ रिश्ते होते हैं जो नहीं निभ कर भी हमारे रोम-रोम में बसे होते हैं। किसी भी रिश्ते की बुनियाद उस रिश्ते की आजादी में छुपी होती है। आजादी भरोसे की, खुश रहने देने की, आजादी उड़ने देने की।
आज बहुत से लोग प्यार पाना, छीनना और हासिल करना चाहते हैं। यह अनिवार्य तो नहीं कि जिसे आप चाहते हों……वह भी आप से प्यार करे। सभी चाहते हैं कि उसे प्रेम के बदले प्रेम मिले पर यदि न मिले तो…..? जहाँ पाने की शर्त होती है, वहां प्रेम नहीं हो सकता। देना तो प्रेम है, लेना नहीं। मतलब प्रेम की पहली शर्त ही है सब कुछ परावर्तित कर देना। प्यार हजार खामोश कुर्बानियों की नींव पर खड़ी इमारत है, जिसमें अनकहे शब्द बड़ी शिद्दत से निभाए जाते हैं। जिसमें लेने देने का हिसाब नहीं रखा जाता है। प्यार को सिर्फ प्यार से ही जीता जा सकता है। प्यार आजाद करता है न कि बंधन में बांधने की कोशिश। प्यार में कोई जबरदस्ती नहीं होती, यह मन का रिश्ता है, मज़बूरी का नहीं। प्रेम हवा की तरह होता है। जो हमारे कमरे में आती है; वह अपनी ताजगी, अपनी शीतलता लाती है, और बाद में विदा हो जाती है। हम उसे मुट्ठी में नहीं बांध सकते।
इस समस्या की मूल जड़ है हमारा प्रेम और शारीरिक आकर्षण का आपस में विभेद न कर पाना। हम आकर्षण को भी प्रेम ही समझने की भूल कर बैठते हैं। आकर्षण इंद्रिय संबंधी होता है। विपरीत लिंगी के साथ देह का ही आकर्षण प्रमुख होता है। कई बार हम महसूस करते है कि मन/विचार करने स्तर के मिलने का भी एक अजीब सा आकर्षण होता है। शारीरिक आकर्षण से ज्यादा गहरा होता है मन का जुड़ाव। शारीरिक आकर्षण जिसे हम काम-वासना(lust) कहते हैं, यह क्षणिक होती है। चाहे वह पति पत्नी के बीच है, प्रेमी-प्रेमिका के बीच। क्यूंकि यहाँ स्वार्थ आ जाता है, शरीर का। पर यदि मन का जुडाव हो, विचारों से जुडाव हो तो यह आकर्षण कुछ हद तक लम्बा खिंच सकता है; क्योंकि यहाँ शारीरिक आकर्षण थोड़ा सा गौण हो जाता है। शरीर के आकर्षण में स्वार्थ है, भय है, अपेक्षा है व पीडा है व किसी विशेष के प्रति है। परंतु विचारों का आकर्षण मन की शांति लेकर आता है। विचार प्रभावी होते हैं। पर यह कोई आवश्यक नहीं कि इस जगह पर शरीर न आये।
एक अनाम और अनूठा रिश्ता, जिसमें शरीर का कोई आकर्षण नहीं होता, फिर भी दो दिल हमेशा एक-दूसरे के करीब होते हैं। सम्मान, त्याग और समर्पण से सराबोर प्यार के इस खूबसूरत एहसास को समझना बहुत मुश्किल है। तभी तो ऐसे रूहानी इश्क के लिए मशहूर शायर अमीर खुसरो ने कहा है– “खुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वाकी धार।“
प्रेम और आकर्षण के बीच अंतर समझना सबसे ज्यादा जरूरी हो जाता है, क्योंकि महज आकर्षण के धरातल पर किसी भी रिश्ते की नींव मजबूत हो ही नहीं सकती है।
क्या कभी आपने कृष्ण और रुक्मिणी, राधा एवं मीरा के प्रेम को किन्हीं दूसरे स्तर से विचार किया है। मैं नहीं जनता हूँ कि कृष्ण एवं अन्य हुए थे या नहीं, पर इतना आश्वस्त हूँ कि “कृष्ण और रुक्मिणी, राधा एवं मीरा” ये प्रेम के तीन तत्व हैं। कृष्ण स्वयं प्रेम के केंद्र-बिंदु हैं और रुक्मिणी का कृष्ण के प्रति लगाव एक शारीरिक आकर्षण का प्रतीक बिंदु है, वहीं राधा का कृष्ण के प्रति प्रेम एक तरह से विचारों का/ मन का प्रेम रहा होगा, चेतना स्वरुप…. एक दुसरे में समाहित; प्रेम की वह धारा जो बाहर बहते-बहते अंतर्मुखी हो जाने वाला प्रेम थी। मीरा का कृष्ण के प्रति जो समर्पण/भक्ति रहा है वही शायद प्लेटोनिक प्रेम रहा होगा। कहीं कोई दुराव-छिपाव नहीं था….न परिवार से….न संसार से। प्लेटोनिक लव के अनुभूति को व्यक्त करना नामुमकिन सा है।
रजनीश ने इस विषय पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा है कि “अधिकांश प्रेम संबंध असफल क्यों होते हैं? वह इसलिए क्योंकि प्रेम में ध्यान का संभल नहीं होता। ध्यान प्रेम को स्थिरता देता है प्रेम के घाव को सहने की ताकत देता है। ध्यान के द्वारा भावों की सफाई होती है। ईर्ष्या हो, क्रोध हो, नफरत हो, और असुरक्षा का भाव हो या एक दूसरे को पकड़कर रखने की वृत्ति हो- यह सब ध्यान की विधियों के द्वारा निष्कासित किए जा सकते हैं। इन्हें एक-दूसरे पर मत फेंकें, इसकी बजाय सुनें, आकाश में इनका रेचन करें।”
जो नकारात्मक भाव प्रेम के मधुर रिश्तो को गंदा करते हैं, उनका यदि ध्यान में रेचन कर लें, तो विशुद्ध स्नेह बचेगा, मैत्री भाव बचेगा- जो धूप के सुगंध की तरह दोनों के अंतस को सुगंधित करेगा। ध्यान रहे, स्वतंत्रता प्रेम की आत्मा है आप अपने प्रेमी को जितना स्वतंत्रता देंगे, उतना आपका प्रेम फलेगा-फूलेगा। जैसे हर फूल को खिलने के लिए अपने हिस्से का आकाश चाहिए, वैसे ही हर व्यक्ति को खिलने के लिए एकांत चाहिए। प्रेम की सफलता की कुंजी है कभी साथ-साथ तो कभी अकेले। यह हर संबंध की लय है। इस लय के साथ आप आगे बढेंगें तो प्रेम आपके जीवन का असीम खजाना लेकर आ सकता है।
मैं एक बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक की चर्चा के साथ समाप्त करना चाहूंगा। जिन लोगों ने खलील जिब्रान को पढ़ा होगा उन्हें उनकी अंतिम पुस्तक ‘The Earth Gods’ की जानकारी अवश्य ही होगी, जो खलील जिब्रान की मृत्यु के 10 दिन पूर्व ही प्रकाशित हुई थी। उसी से एक अंश…. “प्रेम क्या है …….
जिसे हम प्रेम कहतें हैं, वो महान मुक्ति क्या है जो समस्त परिणामों का कारण है और सब कारणों का परिणाम वो क्या शक्ति है जो मौत और जिन्दगी को एक करती है और फिर उनमे एक ऐसा स्वप्न पैदा करती है जो जीवन से भी अधिक विचित्र और मौत से भी अधिक गहरा है…………
………जीवन दो चीजों का नाम है -एक जमी हुई नदी और दूसरी धधकती हुई ज्वाला …..और धधकती हुई ज्वाला ही प्रेम है ….और मैंने घुटने टेक ईश्वर से मन से प्रार्थना की, हे प्रभु मुझे इस धधकती हुई ज्वाला का भोग बना दे और इस पवित्र अग्नि की आहुति बना…….”
शिव मंगल सिंह ‘सुमन’ की पंक्तियों के साथ………….”मैं तुम्हे जिस भी कोण से देखता हूँ, हर कोण दृष्टिकोण बन जाता है”
आप सभी को ‘हैप्पी वेलेंटाईन्स डे!’
– नीरज कृष्ण