प्रेम गीत
तुम्हारी नीली पनियाई वो दो आँखें
समस्त ब्रह्मांड को जैसे अपने अन्दर समेटे
निरंतर विरह के गीत गाती हों
मद्धम…मद्धम
अवचेतन मन मेरा, तुम्हारी ही लय पर
सुर -से -सुर और ताल -से -ताल
मिलाने की करता रहता है एक अंतहीन चेष्टा …
आज युगल स्वरों से शायद
उत्पन्न हो जाये फिर कोई प्रेमगीत
और धवल चांदनी से रौशन हो जाये
ये काली अंधियारी रात ….
चलो ना, आज उस पर्वत के पीछे वाले झरने में
डुबोकर बैठें कुछ देर, यूँ ही अपने नंगे पांव..
याद है ना तुम्हें! सदियों पहले असीम जलराशि …
अपनी गहरी इन्ही दोनों आँखों में समेटकर
भारी मन और लड़खड़ाती जुबान से
तुमने फिर कभी ना मिलने का लिया था मुझसे वादा ….!
और आज यकायक टकरा कर मुझसे, देखो फिर गीली हो गई हैं
तुम्हारी वो दो बोलती आँखें!
शायद, कहने को वो भी हैं आतुर
अपने सारे भाव …मगर अपनी पलकों का लगाकर पहरा …
नहीं चाहती कि छलक जाये ये सरेआम
रुसवाई मेरी! इन्हें बर्दाश्त नहीं अब भी …
तो क्या कभी ना गा सकेंगे हम खुशियों के गीत
इसी तरह क्या, हमेशा अधूरी रह जाएँगी पंक्तियाँ…
या फिर यूँ ही टुकड़ों में बंटकर रह जायेंगे
मुखड़ा और अंतरा…..!
नहीं …नहीं…चलो ना, नई धुन पर …
नई साज बिखेर कर …पूरा कर ले अपना
वो स्वप्निल गीत!
जिसके रंग- रूप और बोल हमारे हैं
सिर्फ हमारे ….अपने!
और इसी तरह अपनी कृति को दे दें बरसों बाद
एक नया आयाम ….एक नई दिशा!
एक नई सार्थकता….
स्वर -से स्वर मिलाकर ….!
– अनु