उभरते-स्वर
प्रेम के पल
एकटक
झुकी
मुस्काती
आँखों में
झाँकते हुए
किसी पुराने
आम के पेड़ के नीचे
या रेलवे स्टेशन के किसी कोने, मंदिर–मेले में।
इस
लोक लुभावनी
बाजारू दुनिया
की कल्पनाएँ
मुझे
कोरी झूठी लगने लगती
उस समय
कुछ भी
याद नहीं रहता
विश्वविद्यालय, क्लास, शहर की भीड़, धुंध, धुंआ, घुटन।
थम-सी जाती है
ज़िन्दगी
और
समय का चक्र
हौले-हौले मुस्काता
कहीं खोया
खंगालता
इतिहास के प्रेममयी पन्ने
नहीं सुनाई देते शाश्वत शब्द
पतले
फड़कते होंठ
गुलाबी पसीने से
चुहचुहाया चेहरा
जाने-अनजाने
कह जाता
हजारों शब्द,
हजारों बातें
अपनी ही भाषा में
जिसे नहीं समझ पाएँगे
हृदयहीन,
बुद्धिजीवी,
आलोचक।
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आँधी
मस्तिष्क में
विचारों, भावों,
कल्पनाओं की आँधी
मुझे जीने नहीं देते,
सोने नहीं देते
ये झूठे-सच्चे सपने
सम्मान
विलास
वासना में
डूबता-उतराता
बहकता संभलता
यौवन
पल-पल बदलता
दुनिया का घटनाक्रम
कहीं दुबका
खोखले आदर्शों में
कटा आधुनिकता से
भ्रमित भविष्य में जीता
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ठहराव
ठहराव
आवश्यक है
भूत में
झाँकने का
बीते को
दोहराने का
कुछ पल के लिए ही सही
लौट जाओ
अपनी यादों में
कुछ न कुछ
छूट जाता है
हर बार
सीखने के लिए
ठहरता है
समय भी
निर्णायक मोड़ों पर।
– सत्येंद्र कुमार मिश्र