आलेख
प्रेमचंद की नारी दृष्टि: हेमलता गुप्ता
प्रेमचंद का नाम हिन्दी साहित्यकाश में एक चमकते हुए तारे के समान है, जो न सिर्फ उस समय बल्कि इस समय भी अपनी रोशनी से हिन्दी साहित्य-जगत को प्रकाशित कर रहा है। उनकी साहित्य-कला की प्रसिद्धी के कारण ही, साहित्य के एक कालखण्ड का नाम ‘प्रेमचंद युगीन कथा-साहित्य’ के नाम पर पड़ा। ‘‘मैं प्रेमचंद को कहानीकार के रूप में सबसे बड़ा मानता हूँ। मेरी मान्यता है कि प्रेमचंद कहानीकार के रूप में, गल्पकार के रूप में, छोटी कहानी प्रणेता के रूप में संसार के चार-छः बड़े-से-बड़े लोेगों में एक हैं।’’1
इस समय भारतीय समाज एवं भारतीय साहित्य दोनों में ही बदलाव हो रहे थे। तत्कालीन समाज में स्त्रियों की दशा शोचनीय थी एवं उनके पास न तो स्वतंत्रता थी और न ही अधिकार। “स्त्री समाज एक ऐसा समाज है, जो वर्ग, नस्ल, राष्ट्र आदि संकुचित सीमाओं के पास जाता है और जहाँ कहीं दमन है चाहे जिस वर्ग, जिस नस्ल का, स्त्री त्रस्त है।”2 प्रेमचंद ने स्त्रियों के इसी संघर्ष को जो वाणी प्रदान की, उसका सार्थक चित्रण उनके साहित्य में स्पष्ट दिखाई देता है। प्रेमचंद नारी के शोषण के लिए बनी व्यवस्था को अस्वीकृत करते हैं। इसी कारण प्रेमचंद के कथा साहित्य में नारी के विविध रूप एवं रंग दिखाई देते हैं, जैसे कहीं वह स्वयं शोषण का शिकार हैं, तो कहीं उससे मुक्त होने के लिए संघर्ष करती दिखती है। प्रेमचंद की नारी दृष्टि कितने अन्तर्विरोधों के साथ आगे बढ़ रही थी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण गोदान3 में उपस्थित है। इसके साथ ही प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में नारी की रूढ़िगत व पारिवारिक स्थिति की त्रासदी का भी बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है। जिसे हम उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘अग्नि-समाधि’ में देख सकते हैं- “पयाग मारते-मारते थक गया, पर रुक्मिन की जबान न थकी। बस, यही रट लगी हुई थी- तू मर जा, तेरी मिट्टी निकले, तुझे भवानी खायँ, तुझे मिरगी आये।”4 यहाँ यह स्पष्ट होता है कि पत्नी-पति के लिए सब कुछ त्याग दे किंतु पति अवसर आने पर अपने पुरुषीयदंभ के सामने उसे तुच्छ मानता है।
प्रेमचंद नारी के शोषण के विरोधी थे। वे स्त्री-पुरुष को समान रूप में देखते थे। प्रेमचंद का मानना था कि- “स्त्री का पूर्ण विकास तभी सम्भव है, जब उसे पुरुषवत् सारे अधिकार प्राप्त हों।”5 उनका मानना था कि पुरुष स्त्री के प्रति ईमानदार नहीं है तो स्त्री से भी पतिव्रता होने की आशा न की जाए। यदि पुरुष विलासी है तो स्त्री को भी अय्याश होने की पूरी-पूरी छूट मिलनी चाहिए। “अय्याश मर्द की स्त्री अय्याश न हो तो वह उसकी कायरता है, तलखोरपन है।”6
अतः अय्याशी पर जितना अधिकार पुरुषों का है, उतना ही स्त्रियों को भी मिलना चाहिए। यहाँ प्रेमचंद एक बात और स्पष्ट करते हैं कि स्त्री की स्वतंत्रता व समानता तभी सम्भव है जब वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र है। नारी आर्थिक रूप से पुरुष पर निर्भर करती है, इसीलिए उसके ज़ुल्म सहने के लिए मजबूर है। इसका सशक्त उदाहरण ‘बेटों वाली विधवा’ कहानी है, जो आर्थिक रूप से कमज़ोर होने के कारण विधवा होने पर अपने ही पुत्रों के द्वारा अपमानित जीवन व्यतीत करती है।
अतः कहा जा सकता है कि तत्कालीन समाज में स्त्रियों की दशा शोचनीय थी एवं उनके पास न तो स्वतंत्रता थी और न ही अधिकार। नारी शिक्षा का भी समाज में कोई महत्व नहीं था। नारी-जीवन अनेकानेक रूढ़ियों से युक्त था। इस अवस्था से द्रवित होकर प्रेमचंद ने नारी जीवन की समस्याओं को अपने उपन्यासों एवं कहानियों का विषय बनाया। प्रेमचंद का मानना था कि नारी की उन्नति के अभाव में समाज व देश का विकास सम्भव नहीं है, उसे समाज में पूरा आदर व सम्मान मिलना चाहिए तभी यह समाज उन्नति के पथ पर अग्रसर होगा।
संदर्भः-
1. प्रेमचंद की कहानियाँ के कवर पृष्ठ से साभार, सं.-रमेश रावत, प्र.-विजय पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, शताब्दी नगर, रामघाट रोड, अलीगढ़, सं.-2012
2. स्त्रीत्व का मानचित्र, अनामिका, पृ.-15, साराँश प्रकाशन दिल्ली, 1999
3. गोदान विविध सन्दर्भों में, डाॅ. रामाश्रय मिश्र, पृ.-70, उन्मेष प्रकाशन, रोहतक, 1996
4. प्रेमचंद की कहानियाँ, सं.-रमेश रावत, पृ.-16, विजय पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, शताब्दी नगर, रामघाट रोड, अलीगढ़, 2012
5. प्रेमचंद के नारी पात्र, ओमप्रकाश अवस्थी, पृ.-73, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1956
6. मानसरोवर भाग-एक, पृ.-68, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद 1984
– हेमलता गुप्ता