आलेख
प्रेमचंद और गोदान: पवनेश ठकुराठी पवन
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को बनारस (वाराणसी) के पास स्थित लमही नामक गांव में हुआ था। इनके पितामह मुंशी गुरुसहाय लाल पटवारी थे। इनके पिता का नाम मुंशी अजायबलाल श्रीवास्वत था, जो पेशे से डाकमुंशी थे। मुंशी अजायबलाल का मासिक वेतन लगभग पच्चीस रुपए था। अत: परिवार की आर्थिक स्थिति साधारण थी। प्रेमचंद की माता आनंदी देवी सुंदर, सुशील होने के साथ एक कुशल गृहिणी भी थीं।
प्रेमचंद का बचपन गांव में बीता था। वे नटखट और खिलाड़ी बालक थे और खेतों से शाक-सब्जी और पेड़ों से फल चुराने में दक्ष थे। उन्हें मिठाई का बड़ा शौक था और विशेष रूप से उन्हें गुड़ से बहुत प्रेम था।1 इनकी ‘होली की छुट्टी’ नामक कहानी में इनका गुड़ प्रेम स्पष्ट रूप से व्यक्त हुआ है, “गुड़ से मुझे बड़ा प्रेम है। जब किसी चीज की दुकान खोलने की सोचता था, तो वह हलवाई की दुकान होती थी। बिक्री हो या न हो, मिठाइयाँ तो खाने को मिलेंगी। मुझे वह घटना याद आती है, जब अम्मा तीन महीने के लिए अपने मैके या मेरे ननिहाल गई थी और मैंने तीन महीने में एक मन गुड़ का सफाया कर दिया था। यही गुड़ के दिन थे। नाना बीमार थे, अम्मां को बुला भेजा था। मेरा इम्तहान पास था इसलिए मैं उनके साथ न जा सका, मन्नू को लेती गईं। जाते वक्त उन्होंने एक मन गुड़ लेकर एक मटके में रखा और उसके मुँह पर एक सकोरा रखकर मिट्टी से बंद कर दिया। मुझे सख्त ताकीद कर दी कि मटका न खोलना। मेरे लिए थोड़ा-सा गुड़ एक हांडी में रख दिया था। वह हांडी मैंने एक हफ्ते में सफाचट कर दी। सुबह को दूध के साथ गुड़, दोपहर को रोटियों के साथ गुड़, तीसरे पहर दानों के साथ गुड़, रात को फिर दूध के साथ गुड़। यहाँ तक जायज खर्च था जिस पर अम्मा को भी कोई ऐतराज न हो सकता। मगर स्कूल से बार-बार पानी पीने के बहाने घर में आता और दो एक पिंडियाँ निकालकर खा लेता। उसकी बजट में कहां गुंजाइश थी और मुझे गुड़ का ऐसा चस्का पड़ गया कि हर वक्त वही नशा सवार रहता। मेरे घर में आना गुड़ के सिर शामत आना था। एक हफ्ते में हांडी ने जवाब दे दिया।”2
सन् 1888 में प्रेमचंद की शिक्षा का प्रारंभ हुआ था। इसी समय दुर्भाग्यवश उनकी माता का देहांत हो गया और पिता ने दो वर्ष बाद दूसरी शादी कर ली। जब प्रेमचंद की आयु पंद्रह वर्ष की थी, तब वे नवीं कक्षा में पढ़ते थे। जिस कॉलेज में वे पढ़ते थे, उसका नाम क्वींस कालेज (बनारस) था। इसी वर्ष उनका विवाह भी हो गया। यह विवाह उनके सौतेले नाना ने तय किया था। विवाह के तीसरे वर्ष ही इनके पिता का लंबी बीमारी के कारण निधन हो गया। अब परिवार की संपूर्ण जिम्मेदारी इनके ऊपर आन पड़ी। इन्होंने धैर्यपूर्वक संघर्षों एवं कठिनाइयों का सामना किया और ट्यूशन पढ़ाकर आर्थिक स्थिति को सुधारने का प्रयत्न किया। उन्होंने अपनी आत्म कहानी ‘जीवन सार’ में इस बात का उल्लेख करते हुए लिखा है, “पाँव में जूते न थे। देह पर साबित कपड़े न थे। महंगी अलग 10 सेर के जौ थे। स्कूल से साढ़े तीन बजे छुट्टी मिलती थी। काशी के क्वींस कालेज में पढ़ता था। हेडमास्टर ने फीस माफ कर दी थी। इम्तहान सिर पर था और मैं बांस के फाटक पर एक लड़के को पढ़ाने जाता था। जाड़ों के दिन थे चार बजे पहुँचता था। पढ़ाकर छह बजे छुट्टी पाता। वहाँ से मेरा घर देहात में पाँच मील पर था, तेज चलने पर भी आठ बजे से पहले घर न पहुँच सकता। और प्रातःकाल आठ ही बजे फिर घर से चलना पड़ता था, कभी वक्त पर स्कूल न पहुँचता। रात को भोजन करके कुप्पी के सामने पढ़ने बैठता और न जाने कब सो जाता। फिर भी हिम्मत बाँधे हुए था।”3
इसी तरह संघर्ष करते हुए उन्होंने 1899 में द्वितीय श्रेणी से मैट्रिकुलेशन की परीक्षा उत्तीर्ण की। किसी तरह हाईस्कूल तो पास हो गए किंतु इंटरमीडिएट की परीक्षा में गणित कमजोर होने के कारण दो बार फेल हो गए। वे स्वयं लिखते हैं, “गणित मेरे लिए गौरीशंकर की चोटी थी। कभी उस पर न चढ़ सका। इंटरमीडिएट में दो बार गणित में फेल हुआ और निराश होकर इम्तहान देना छोड़ दिया।”4 इस दौरान वे आर्थिक संकट से जूझते रहे और ट्यूशन द्वारा अपनी आजीविका चलाते रहे। उन्हें सन् 1900 में चुनार के मिशन स्कूल में अठारह रुपये महीने पर अध्यापक की नौकरी मिली, किंतु यह नौकरी भी अस्थाई सिद्ध हुई। इसके पश्चात् उन्होंने बहराइच के सरकारी स्कूल में 2 जुलाई 1900 से बीस रुपए महीने पर अध्यापक की नौकरी शुरू की। इसी नौकरी के साथ-साथ उन्होंने 1915 मे इंटरमीडिएट और 1919 में बी.ए. की परीक्षा भी उत्तीर्ण की।
प्रेमचंद का पहला विवाह 1877 में हुआ था, किंतु पत्नी का स्वभाव कर्कश होने के कारण उन्होंने पहली पत्नी के मायके चले जाने के बाद 1906 में बाल विधवा शिवरानी देवी के साथ दूसरा विवाह कर लिया। शिवरानी देवी के कुल चार बच्चे उत्पन्न हुए, किंतु एक लड़के मन्नू का पैदा होने के कुछ ही माह में निधन हो गया। अब उनके एक लड़की और दो लड़के शेष रहे। उनकी लड़की का नाम कमला था, जो महोबा में पैदा हुई। अगस्त 1918 में उनके बड़े लड़के श्रीपतराय (धन्नू) का गोरखपुर में जन्म हुआ। इसके पश्चात् मन्नू नामक एक अन्य पुत्र उत्पन्न हुआ, जो जुलाई 1920 में चल बसा। इसके उपरांत अगस्त 1922 में उनके छोटे लड़के अमृतराय (बन्नू) का जन्म हुआ। इस प्रकार प्रेमचंद के परिवार में पत्नी शिवरानी देवी के अतिरिक्त एक पुत्री कमला और दो पुत्र श्रीपतराय और अमृतराय थे। प्रेमचंद अपने बच्चों से असीम प्यार करते थे और दोनों लड़कों को धन्नू-बन्नू कहकर पुकानते थे।
प्रेमचंद का आरंम्भिक लेखन उर्दू भाषा में हुआ। उनकी पहली उर्दू रचना का लेख है, जो 1 मई 1903 को बनारस की एक उर्दू साप्ताहिक पत्रिका में छपा था।5 प्रेमचंद ने मुख्यत: उपन्यास और कहानियों की रचना की। 1903 में प्रारंभ हुआ लेखन का सिलसिला सन् 1936 में उनके निधन के साथ समाप्त हुआ। प्रेमचंद ने 8 अक्टूबर 1936 को प्रातः 10 बजे6 जलोदर की बीमारी के कारण अपने प्राण त्याग दिए।
कथाकार मुंशी प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा ‘असरारे मआबिद उर्फ देवस्थान रहस्य’ नामक उपन्यास से प्रारंभ होती है। प्रेमचंद का यह उपन्यास प्रथम बार वर्ष 1903 से वर्ष 1905 तक बनारस के साप्ताहिक उर्दू पत्र ‘आवाज-ए-खल्क’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था। यह उपन्यास उनके चार प्रारंभिक उपन्यासों के संकलन ‘मंगलाचरण’ में संकलित है। ‘असरारे मआबिद उर्फ देवस्थान रहस्य’ उपन्यास मूलत: उर्दू में लिखा गया है। इस उपन्यास के अलावा उनके मंगलाचरण में संकलित तीन अन्य उपन्यासों हमखुर्मा व हमसवाब, प्रेमा और रूठी रानी में से हमखुर्मा व हमसवाब तथा रूठी रानी भी मूलत: उर्दू में ही लिखे गए थे। ‘प्रेमा’ उपन्यास तो वस्तुत: हमखुर्मा व हमसवाब का ही हिंदी रूपांतर है।
‘असरारे मआबिद’ और ‘हमखुर्मा व हमसवाब’ उपन्यासों के बाद प्रेमचंद के क्रमश: किशना (1907 ई.), रूठी रानी (1907 ई.), वरदान (1912 ई.), सेवासदन (1918 ई.), प्रेमाश्रम (1921 ई.), रंगभूमि (1925 ई.), कायाकल्प (1926 ई.), निर्मला (1925-1926 ई.), प्रतिज्ञा (1927 ई.), गबन (1931 ई.), कर्मभूमि (1932 ई.), गोदान (1936 ई.), और मंगलसूत्र (1948 ई.) उपन्यास प्रकाशित हुए। इस प्रकार प्रेमचंद ने कुल 15 उपन्यास लिखे। इन उपन्यासों में ‘किशना’ एक ऐसा उपन्यास है, जो अभी तक अनुपलब्ध है। ‘मंगलसूत्र’ प्रेमचंद का अपूर्ण उपन्यास है, जो उनकी मृत्यु के ग्यारह वर्षों के पश्चात् 1948 में प्रकाशित हुआ।
प्रेमचंद के नाम में ही कुछ जादू है7 और इस जादू की सबसे प्रभावशाली और तिलिस्मी छड़ी का नाम है- ‘गोदान’। ‘गोदान’ उपन्यास का प्रकाशन 10 जून, 1936 को8 सरस्वती प्रेस, बनारस से हुआ था। ‘गोदान’ के नामकरण के संबंध में आलोचक जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ का कहना है कि प्रेमचंद ने ग्रामीण उच्चारण की स्वाभाविकता के विचार से पहले इसका नाम ‘गौदान’ रखा था, लेकिन उनके कहने से उन्होंने ‘गौ’ के स्थान पर ‘गो’ कर दिया।9 उर्दू में यह उपन्यास उनकी मृत्यु के एक वर्ष बाद ‘गऊदान’ नाम से मकतबा जामिया, दिल्ली से10 प्रकाशित हुआ।
‘गोदान’ उपन्यास भारतीय किसान दंपति होरी और धनिया के स्वाभिमान तथा संघर्ष की करुण गाथा है। यह उपन्यास आजादी के पूर्व भारतीय कृषक समाज की मार्मिक कहानी प्रस्तुत करता है। ब्रिटिशकालीन भारत में किस तरह महाजन, जमींदार और सूदखोर किसानों का रक्त चूस-चूसकर अपना घर भरते थे, इस बात का इस उपन्यास में सजीव चित्रण हुआ है। ‘रंगभूमि’ के सूरदास की तरह होरी का संघर्ष भी इस उपन्यास में दो मोर्चों पर है, पहला मोर्चा है, सामंतों, महाजनों के खिलाफ, दूसरा अपने पारिवारिक सदस्यों के खिलाफ। अपनी निश्छल, रुढि़वादी और पुरातन विचारधारा के कारण उसे दोनों मोर्चों पर झुकना पड़ता है। एक ओर जहाँ लाला पटेश्वरी, मंगरू साह, झिंगुरीसिंह, नोखेराम, दातादीन, दारोगा जैसे लोग उसका खूब शोषण करते हैं, वहीं दूसरी ओर उसके सगे भाई (हीरा, शोभा) और पुत्र (गोबर) भी उसके खिलाफ हो उठते हैं। गऊ से अपार प्रेम करने वाले और आजीवन भारत की महान हिंदूवादी गौ-संस्कृति का संरक्षण करने वाले होरी की मृत्यु के समय गोदान करने के लिए गऊ (गाय) का न होना ही इस उपन्यास की सबसे बड़ी त्रासदी है, “धनिया यंत्र की भांति उठी, आज जो सुतली बेची थी, उसके बीस आने पैसे लाई और पति के ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली- महाराज, घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गोदान है।”11
वस्तुत: ‘गोदान’ आदि से अंत तक एक त्रासदी है। और यह त्रासदी उस बेजबान पीढ़ी की है, जो अपनी मर्यादा को सलीब की तरह अपने बूढ़े कंधों पर उठाए हुए मौत की ओर निरंतर आगे बढ़ रही है। जो आदमी की तरह जीना तो चाहती है, किंतु चारों ओर से घिरे हुए हिंसक-पशुओं के बीच अपनी निर्धारित सीमाओं के भीतर रहने के मोह में अपनी बोटियां तक नुचवा लेती है। होरी इसी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है।12 वह भारत के उन ऐसे किसानों का प्रतीक है, जो स्वयं तो कष्टपूर्ण जीवन जी लेते हैं, किंतु दूसरों की सदैव भलाई ही करते हैं, किसी का कभी अहित नहीं चाहते और एक परंपरा में ढले रहना चाहते हैं। आलोचक रामविलास शर्मा होरी के चरित्र को भारत के अजेय किसान का चरित्र13 मानते हैं और ‘गोदान’ को उसके भगीरथ परिश्रम की गाथा।14
प्रेमचंद ने ‘गोदान’ में ग्रामीण परिवेश के साथ-साथ शहरी परिवेश को भी अपने कथानक में स्थान दिया है।15 इसमें एक ओर तो ग्रामीण जीवन से संबंध होरी की कथा है, वहीं दूसरी ओर राय अमरपालसिंह, ‘बिजली’ पत्र संपादक पंडित ओंकारनाथ, श्यामबिहारी तंखा, प्रो. बी. मेहता, मिस्टर खन्ना, मिस मालती, गोविंदी खन्ना, मिर्जा खुर्शेद आदि चरित्रों से गठित शहरी जीवन की कथा का भी चित्रण है। इस भाग की कथा के मुख्य आकर्षण मेहता-मालती प्रसंग हैं, जिनके द्वारा प्रेमचंद ने स्त्री-पुरुष संबंधी अवधारणाओं का प्रतिपादन किया है। प्रो. मेहता के भाषण के जरिए प्रेमचंद ने भारतीय नारी की गरिमा को स्थापित करने के साथ-साथ सिद्ध किया है कि क्यों नारी पुरुषों से अधिक श्रेष्ठ है, “स्त्री पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है, जितना प्रकाश अंधेरे से। मनुष्य के लिए क्षमा, त्याग और अहिंसा जीवन के उच्चतम आदर्श हैं। नारी इस आदर्श को प्राप्त कर चुकी है।”16 इस उपन्यास में प्रेमचंद ने पूँजीपतियों द्वारा मजदूरों पर किए जाने वाले अत्याचारों का भी चित्रण किया है। यानि कि इस उपन्यास के केंद्र में हैं, भारतीय किसान और मजदूर तथा उनकी समस्याएं।
वस्तुत: ‘गोदान’ की कथा एक समूचे युग की कथा है और इस युग को शहरों और देहातों की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता।17 इस उपन्यास की आधिकारिक कथा होरी की कथा18 होने के बावजूद यह पूरे युग की कथा है और होरी ही इस युग का प्रतिनिधि पात्र है, तभी तो मार्कण्डेय कहते हैं, “जैसे चावल की हांडी से एक दाने को परखकर भात को जांच लिया जाता है, उसी तरह उन करोड़ों लोगों को जांचने के लिए होरी को जांच लेना ही काफी होगा। यदि वह वही नहीं है जो वे करोड़ों लोग हैं तो वह उन्हीं के जैसा जरूर है। उन्हीं का प्रतिनिधि उन्हीं का ‘टाइप’।……. हिंदी उपन्यासों में ऐसा दूसरा चरित्र नहीं है, न इस वर्ग का आत्मसात अनुभव-संसार ही किसी दूसरे लेखक के पास है। यही कारण है कि गोदान हिंदी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है और होरी सबसे बड़ा चरित्र।”19
‘गोदान’ में एक ओर किसानों का शोषण करने वाला जमींदार, महाजन और पटवारियों का चक्रव्यूह है, वहीं दूसरी ओर मिल मालिक, दलाल, व्यवसाइयों के रूप में पूंजीपतियों का गठबंधन है, जो मजदूरों का शोषण करता है। इस प्रकार गोदान भारतीय समाज के शोषण में साम्राज्यवाद और उसके दलाल-जमींदारों-जागीरदारों तथा पूंजीपतियों के नापाक गठबंधन का चित्र है।20 इस उपन्यास में प्रेमचंद ने गांधीवाद और आदर्शवाद की बजाय कार्ल मार्क्स के समाजवाद और यथार्थवाद को स्थापित किया है। होरी का जीवन संघर्ष, उसके आदर्श जीवन का दुखांत अंत और मजदूर आंदोलन जैसी घटनाएं इस बात की पुष्टि करती हैं। डॉ. सभापति मिश्र के अनुसार, ‘‘गोदान में यथार्थ की असंवेदनशील चट्टान पर आदर्श टकराकर चकनाचूर हो जाता है।”21
डॉ. रामविलास शर्मा का कथन कि ‘गोदान’ की मूल समस्या ऋण की समस्या है22 और डॉ. महेंद्र भटनागर के कथन कि गोदान की मुख्य समस्या किसान के दुखी जीवन की समस्या है। उसकी ऋण-समस्या प्रमुख है23 से हम सहमत नहीं हैं। वस्तुतः इस उपन्यास में किसी एक समस्या को मूल समस्या कहकर प्रदर्शित करना इस उपन्यास के साथ अन्याय होगा, फिर ऋण जैसी छोटी और सामान्य समस्या इस उपन्यास के परिप्रेक्ष्य में केवल संकुचित दृष्टि का परिचायक है। इस संबंध में हम नामवर सिंह के कथन कि पूरे गोदान का महत्व कितना घट जाएगा यदि हम कहें कि ‘गोदान में मूल समस्या कर्ज की समस्या है’24 से पूर्णतया सहमत हैं क्योंकि गोदान में इससे भी अधिक महत्वपूर्ण समस्याएं जैसे पारिवारिक संबंधों में बिखराव, ग्रामीण समाज में भाईचारे की संस्कृति का पतन, निम्न वर्ग की आजीविका की समस्या, सामाजिक असमानता और जातिगत भेदभाव आदि जैसी कई समस्याएं मौजूद हैं। अतः हम गोदान को भारतीय किसानों, मजदूरों और दलितों की पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक समस्याओं के निरूपक ग्रंथ के रूप में देखना पसंद करेंगे।
वस्तुतः भारतीय किसानों, मजदूरों और दलितों के जीवन से संबंधित विविध समस्याओं का चित्रण ही इस उपन्यास का उद्देश्य भी है। आचार्य नंददुलारे बाजपेई के अनुसार, “इस उपन्यास का उद्देश्य भारतीय ग्रामीण जीवन के विविध पक्षों को उपस्थित कर ग्रामीण जीवन की स्थिति का उद्घाटन करना है।”25 डॉ. इंद्रनाथ मदान ‘गोदान’ को एक भारतीय किसान की जीवन-गाथा26 मानते हैं, जिसमें उसकी सभी विशेषताएं और उसके सभी रूप विद्यमान हैं।27
प्रेमचंद के उपन्यासों में ‘गोदान’ ऐसा उपन्यास है, जिसकी महाकाव्यात्मकता पर सबसे अधिक चर्चा हुई है।28 आलोचक हंसराज रहबर ने इसे ‘एक महाकाव्य’29 और डॉ. नगेंद्र ने ‘ग्रामीण जीवन और कृषि-संस्कृति का महाकाव्य’30 घोषित किया है। इतना ही नहीं आलोचकों ने इसे भारतीय जीवन का महाकाव्य, गद्यमय महाकाव्य, भारतीय ग्राम-इकाई और नगर-इकाई का महाकाव्य, ग्राम जीवन और कृषि संस्कृति का करुण महाकाव्य, ग्रामीण जीवन के अंधकार पक्ष का महाकाव्य, कृषि संस्कृति का शोक-गीत आदि अनेक विशेषणों से अभिहित किया है।31 इस प्रकार कृषि-संस्कृति के ध्वंस की यथार्थ कहानी कहने,32 मानव-चरित्र की वैविध्यपूर्ण एवं गतिशील जीवंत छवियों का प्रस्तुतीकरण करने,33 भारतीय ग्राम के अनेकमुखी जीवन का दिग्दर्शन कराने,34 ग्रामीण समाज के आपसी संबंधों के बिखरने की पीड़ा को व्यक्त करने35 तथा अपनी विजय तथा पराजय के द्वंद्व में झूलते होरी जैसे नायक की सृजना करने के कारण गोदान को महाकाव्यात्मक उपन्यास की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
इस प्रकार स्पष्ट है कि ‘गोदान’ एक कालजयी कृति है। इसकी ट्रेजडी, इसकी मार्मिकता इसे हिंदी साहित्य ही नहीं, वरन् विश्व साहित्य में भी महत्वपूर्ण स्थान दिलाती है और लेखक को अमरत्व के पद पर पहुँचा देती है।
संदर्भ-
1. प्रेमचंद, प्रकाशचंद्र गुप्त, पृ-9
2. प्रेमचंद कहानी रचनावली (खण्ड छह), पृ-586
3. कफन तथा अन्य कहानियां, पृ-56
4. वही, पृ-59
5. प्रेमचंद, कमलकिशोर गोयनका, पृ-7
6. वही, पृ-9
7. कलम का मजदूर, पृ-68
8. प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प-विधान, पृ- 73
9. प्रेमचंद की उपन्यास कला, पृ- 14
10. प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प-विधान, पृ- 73
11. गोदान, पृ- 73
12. प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा: नव मूल्यांकन, पृ- 387
13. प्रेमचंद और उनका युग, पृ- 107
14. वही
15. वाङ्मय (त्रैमासिक), जनवरी-मार्च 2008, पृ-12
16. गोदान, पृ- 127
17. प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा: नव मूल्यांकन, पृ- 395
18. प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प-विधान, पृ- 450
19. आलोचना (त्रैमासिक), अक्टूबर-दिसंबर 2010, पृ- 19
20. प्रेमचंद और प्रगतिशील लेखन, पृ- 25
21. हिंदी साहित्य का प्रवृत्तिपरक इतिहास, पृ- 354
22. प्रेमचंद और उनका युग, पृ- 96
23. समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद, पृ- 210
24. प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा: नव मूल्यांकन, पृ- 414
25. हिंदी साहित्य का प्रवृत्तिपरक इतिहास, पृ- 354
26. हिंदी साहित्य का इतिहास, लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय, पृ- 259
27. गोदान का महत्व, पृ- 70
28. वही, पृ- 76
29. वही, पृ- 101
30. हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. नगेंद्र, पृ- 559
31. प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प-विधान, पृ- 493
32. वही, पृ- 485
33. प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा: नव मूल्यांकन, पृ- 414
34. प्रेमचंद: साहित्यिक विवेचन, पृ- 90
35.प्रेमचंद और भारतीय समाज, पृ- 164
– डॉ. पवनेश ठकुराठी