‘प्रेम’ एक ऐसा विषय है, जिससे जुड़ी कोई न कोई कहानी सबके पास होती है। आपको भी स्कूल-कॉलेज की कई घटनाएँ तो अवश्य ही याद होंगी। वह लम्बी सूची भी कहाँ भूल पाए होंगे, जिसे अपने मित्रों को अब भी सुनाया करते हैं कि कौन-कौनसे लड़का/लड़की आप पर जान छिड़कते थे। संभवतः किसी के प्रति अपनी एकतरफ़ा मुहब्बत को सोच आपका मन भी कभी-कभी उदास हो जाया करता होगा। इस बात की स्मृति भी आपके ह्रदय को झकझोरती होगी कि कैसे, किसी की बे-पनाह मुहब्बत को ठुकरा कर एक लड़के/लड़की ने किसी और का हाथ थाम लिया था।
कितने ही किस्से सुने-पढ़े होंगे, जिसमें माता-पिता की ज़िद के आगे प्रेमियों को झुकना पड़ा या परिवार के दवाब के चलते उनका विवाह अन्यत्र तय हो गया। हमारे समाज में माता-पिता के ऋण को चुकाने का सर्वोत्तम समय यही बताया गया है। राय दी जाती है कि भूल जाओ अपने प्रेम को, उस इंसान को दिल से सदा के लिए निकाल दो जिसे आप अपना जीवन मान बैठे हैं। जिन्होंने जीवन दिया, उनका मान रखने या इस जीवन की क़ीमत चुकाने का यह अचूक तरीक़ा, हमारे इसी समाज का बनाया हुआ है। अजीब नहीं लगता एक के प्रेम के बदले दूसरे के प्रेम को भूल जाने का सौदा?
हर बात में ‘प्रेम से रहो’, ‘प्रेम बाँटो’, ‘प्रेम से बड़ा कोई धर्म नहीं’ कहने वाली ये दुनिया इस ‘प्रेम’ की ही बलि सबसे पहले ले लेती है। समाज और इज़्ज़त की दुहाई के नाम पर प्रेमियों को ही सबसे अधिक सताया गया है। सदियों से चला आ रहा यह क्रम, दुर्भाग्य से अब तक भी टूटा नहीं है।
प्रकृति में कोई भी प्राणी प्यार करने या निभाने के लिए किसी की अनुमति नहीं लेता, सिवाय मनुष्य के। सोचिए कोई भी पशु-पक्षी, बे-रोक-टोक किसी से भी प्यार कर सकता है, जब जी चाहे उससे मिल सकता है, उम्र भर के लिए जोड़ा बना सकता है। लेकिन दो मनुष्यों के बीच प्राकृतिक प्रेम की कहानी बन जाया करती है। प्रेम करना माने भीषण अपराध हो गया। यदि उन्होंने किसी की परवाह किये बिना शादी की तो उसे ‘भागकर की गई शादी’ का टैग दे दिया जाता है। इसे यूँ समझिये कि प्रकृति प्रदत्त प्रेम, समाज से भागकर ही किया जा सकता है। दिल से समाज की नाक जो टकरा जाती है!
समाज के ठेकेदारों द्वारा नाक की क़ीमत, प्रेम से बहुत अधिक तय की गई है। इनकी महानता दूसरों के प्रेम में दखल देकर ही सिद्ध होती है। केवल इतना ही नहीं, इन्होंने जाति, धर्म के आधार पर भी नियम तय कर दिए और बची-खुची जिम्मेदारी परिजनों ने उठा ली। बस, प्रेम करने के नियम की सरकारी पाठ्यपुस्तक और बना देनी चाहिए, जिससे शुरू से ही सबको पता रहे कि इसके कारण आपको बीच चौराहे पर अपमानित किया जा सकता है, अपनों से जूझना पड़ सकता है और जो समाज के बनाए खाँचे में फ़िट न बैठे तो दुर्भाग्य से जान भी गंवानी पड़ सकती है।
हमने हर छोटी-बड़ी बात के लिए हड़ताल की, आंदोलन किए लेकिन सृष्टि के सबसे ख़ूबसूरत भाव ‘प्रेम’ को बचाने के लिए हम क्या कर सके? क्या करना चाहा है? क्या प्रेम को बचाने के लिए भी कभी कोई राष्ट्रीय केम्पैन चलाया गया है? हम मनुष्य सबको सहेजने, बचाने की बड़ी-बड़ी बातें कहते हैं, हर समय संवेदनशीलता का चोगा ओढ़े घूमते हैं, प्रेम का ख़ूब बखान करते हैं लेकिन मारने-काटने, बदला लेने की मानसिकता से अब तक बाहर नहीं निकल सके हैं। एक तरफ़ प्रेम की स्तुति और दूसरी तरफ़ घृणा का पोषण, विध्वंसता को बढ़ावा…वाह! मनुष्य के दोगलेपन की कोई सीमा ही नहीं। यदि यही हमारा प्रेम है तो फिर ‘प्रेम ही पूजा है’ जैसी खोखली बातें किसलिए?
क्या अब समय नहीं आ गया है ‘प्रेम’ को पूरी तरह से आत्मसात कर लेने का? क्या अब नहीं महसूस होता कि बेटी बचाओ, पर्यावरण बचाओ, सेव टाइगर, सेव बर्ड्स, स्त्री सम्मान के लाखों आह्वानों से भरी इस दुनिया में, जो हमने बस इक प्रेम को बचा लिया होता तो सब तरफ से यूँ बचाओ-बचाओ की पुकार न सुनाई देती! प्रेम को बचा लेने भर से सृष्टि की हर शय स्वतः ही संरक्षित हो जाती। सबके चेहरे पर मुस्कान सजी रहती क्योंकि प्रेम केवल जोड़ना जानता है। प्रेम, प्रेम ही सिखाता है। यह इंसान को ईश्वरतुल्य बना देता है। दुखद है कि इसकी शक्ति का अनुमान सबको है पर इसे जीवन में गिनती भर लोग ही उतार पाते हैं।
हम तो इतने महान हैं कि इंसानों के प्रेम की तरह ही, हमने प्रकृति को भी बाँधना चाहा जबकि प्रकृति की सुंदरता उसकी स्वच्छंदता में है। नदियों की सुंदरता उसके कल-कल बहाव में है। पहाड़ आसमान को चूमते हुए ही सुंदर दिखते हैं। जंगल की विशेषता ही यही है कि वहाँ वनस्पतियाँ एवं पशु-पक्षी निर्बाध, उन्मुक्त हो रह सकें। लेकिन बाँध बनाने के शौक़ीन हम कभी रुकेंगे? हमने पहाड़ काटे, जंगल काटे, पशु-पक्षियों को मारा, नदियों को सुखा दिया, प्रकृति के साथ जितनी और जिस हद तक छेड़छाड़ की जा सकती थी, हमने की। विकास के मखमली पैकेट को दिखाकर हमने प्रकृति को रौंद कर रख दिया। आज जब बाढ़, भूकंप, ग्लेशियर का फटना जैसी घटनाओं के रूप में प्रकृति का क्रोध हम पर उफ़ान मारता है तो हम बिलबिला उठते हैं। मतलब हम किसी के साथ सदियों तक आततायी बन मनमानी करते रहें और वो पलटकर एक तमाचा भी न जड़े!!
आश्चर्य है कि जब प्रकृति की भृकुटी तनती है तो हम उसे आपदा का नाम दे देते हैं लेकिन हम स्वयं, प्रकृति के लिए आपदा बन बैठे हैं इस सच को कब स्वीकारेंगे? जो हमने प्रकृति से प्रेम किया होता, सबको उसके प्राकृतिक रूप में रहने दिया होता तो आपदा के नाम पर तमाम अपनों को यूँ असमय ही न खोया होता। हमें स्वर्ग की कल्पना भी न करनी पड़ती क्योंकि वह इस धरती पर ही नज़र आता।
मानव हो या प्रकृति, प्रेम ही इन्हें सँवारता है। आप प्रेम करने वालों से लाख खुन्नस रखिए पर ये तो आपका दिल भी मानता है न कि जहाँ ‘प्रेम’ है, वहाँ सब है। जो प्रेम नहीं तो कुछ भी शेष न रहेगा!
ऋतुराज वसंत का आगमन हो चुका है। यह प्रकृति के नर्तन का समय है। उल्लास का समय है। सभी पाठकों को प्रेम और प्रकृति के इस पावन मिलन, वसंतोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ।
– प्रीति अज्ञात