धरोहर
प्रकृति के सुकुमार कवि ~ सुमित्रानंदन पन्त !!
20 मई 1900 – 28 दिसंबर 1977
“आओ, अपने मन को टोवें!
व्यर्थ देह के सँग मन की भी
निर्धनता का बोझ न ढोवें”।
इधर बीसवीं सदी अपनी आँखें खोलकर किलकारी भरी और उधर ठीक 5 महीने, 19 दिनों के बाद अल्मोड़े से बत्तीस मील दूर बसे, नैसर्गिक सोंदर्य के जादू से भरे कौसानी नामक स्थान में, गंगादत्त जी के घर कल्पना के राजकुमार, प्रकृति के सुकुमार कवि ने जन्म लिया। पिता के द्वारा रखे गए अपने नाम गुसाईदत्त को नौवीं कक्षा में अपने से बदल लेने वाला बालक सुमित्रानंदन पंत आगे चल कर हिंदी काव्य साहित्य की अमूल्य धरोहर बन गया।
पन्त जी छायावाद के चार मुख्य स्तंभों में से एक हैं। माना जाता है कि पंत की सलोनी कलम और सुहावनी प्रकृति के बीच तीसरा कोई नहीं रहा। प्रकृति पर लिखी गई रचनाओं में जहाँ अन्य कवियों ने उसे वर्णनात्मक चोला दिया है, वहीँ पन्त जी धरा के मंच पर उतर कर सूत्रधार बन जाते हैं और उनकी प्रकृति नटी के स्वांग भरकर न जाने कितने रूप रचती है-शायद 84 लाख से भी ज्यदा। प्रकृति सप्रेम तो बहुतों ने किया और पूरे मन से किया पर पंत के अनुरागी मन की दशा ही कुछ और है। उनकी कलम ने हर पग, हर सोपान पर उसकी जिस तरह प्रतिष्ठा की है, वह हिंदी कविता के किसी काल, किसी वाद या किसी अन्य भाषा के कवि में भी नहीं मिलती है। इनकी तुलना प्रायः अंग्रेजी के प्रकृति प्रेमी कवियों वर्ड्सवर्थ, शैली, कीट्स आदि से की जाती है पर पन्त की मौलिकता ने उन्हें सबसे अलग और अभिजात्य बताया है।
प्राकृतिक सौंदर्य के साथ ही पंत जी मानव सौंदर्य के भी कुशल चितेरे हैं। छायावादी दौर के उनके काव्य में रोमानी दृष्टि से मानवीय सौंदर्य का चित्रण है, तो प्रगतिवादी दौर मैं ग्रामीण जीवन के मानवीय सौंदर्य का यथार्थवादी चित्रण। कल्पनाशीलता के साथ-साथ रहस्यानुभूति और मानवतावादी दृष्टि उनके काव्य की मुखर विशेषताएँ हैं। युग परिवर्तन के साथ पंत जी की काव्य-चेतना बदलती रही है। पहले दौर में वे प्रकृति सौंदर्य से अभिभूत छायावादी कवि हैं, तो दूसरे दौर में मानव -सौंदर्य की ओर आकर्षित और समाजवादी आदर्शों से प्रेरित कवि। तीसरे दौर की उनकी कविता में नई कविता की कुछ प्रवृत्तियों के दर्शन होते हैं, तो अंतिम दौर में वे अरविंद दर्शन से प्रभावित कवि के रूप में सामने आते हैं।
“छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया।
बाले! तेरे बाल-जाल में,
कैसे उलझा दूँ लोचन।
भूल अभी से इस जग को।”
उपर्युक्त पक्तियाँ यह समझने के लिए काफी हैं कि पंत जी को प्रकृति से कितना प्यार था। पंत जी को प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है। यद्यपि पंत जी का प्रकृति-चित्रण अंग्रेजी कविताओं से प्रभावित है। फिर भी उनमें कल्पना की ऊँची उड़ान है, गति और कोमलता है, प्रकृति का सौंदर्य साकार हो उठता है। प्रकृति मानव के साथ मिलकर एकरूपता प्राप्त कर लेती है और कवि कह उठता है-
“सिखा दो ना हे मधुप कुमारि,
मुझे भी अपने मीठे गान।”
प्रकृति प्रेम के पश्चात् कवि ने लौकिक प्रेम के भावात्मक जगत् में प्रवेश किया। पंत जी ने यौवन के सौंदर्य तथा संयोग और वियोग की अनुभूतियों की बड़ी मार्मिक व्यंजना की है।
इसके पश्चात पंत जी छायावाद एवं रहस्यवाद की ओर प्रवृत्त हुए और कह उठे-
“न जाने नक्षत्रों से कौन,
निमन्त्रण देता मुझको मौन।”
आध्यात्मिक रचनाओं में पंत जी विचारक और कवि दोनों ही रूपों में आते हैं। इसके पश्चात् पंत जी जन-जीवन की सामान्य भूमि पर प्रगतिवाद की ओर अग्रसर हुए। मानव की दुर्दशा का देखकर पंत जी कहते हैं-
“शव को दें हम रूप-रंग
आदर मानव का मानव को
हम कुत्सित चित्र बनाते लव का।।”
“मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति।
आत्मा का अपमान और छाया से रति।”
“खैर, पैर की जूती, जोरू
न सही एक, दूसरी आती
पर जवान लड़के की सुध कर
साँप लौटते, फटती छाती।
पिछले सुख की स्मृति आँखों में
क्षण भर एक चमक है लाती,
तुरत शून्य में गगड़ वह चितवन
तीखी नोक सदृश बन जाती”।
प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘वे आँखें’ से उद्धृत हैं। इसमें पंत किसान की दुर्दशा का मार्मिक चित्रण करते हुए दर्शाते हैं कि सामान्य रूप से पत्नी को पैर की जूती माना जाता है (जो कि असत्य है)। कहा जाता रहा है कि एक के न रहने पर दूसरी आ जाती है। किसान अपनी पत्नी के अभाव के दुख को झेल भी ले, पर जवान बेटे के असमय मर जाने की याद उसे व्याकुल कर जाती है। तब उसकी छाती कटने लगती है, उस पर दुःख का पहाड़ टूट पड़ता है अर्थात् वह अत्यंत व्यथित एवं व्याकुल हो उठता है।
पिछले जीवन के सुखों की याद बार-बार किसान की आँखों में आती है। इससे कभी-कभी उनमें चमक आ जाती है। लेकिन यह स्थिति-ज्यादा देर तक नहीं बनी रहती। वह दृष्टि शीघ्र ही शून्य में खो जाती है और वह तीखी नोंक के समान गड़ती रहती है। अर्थात सुख के स्मरण की चमक क्षणिक रहती है। वह फिर दुख-सागर में डूब जाता है।
“उजरी उसके सिवा किसे कब
पास दुहाने आने देती।
अह, आँखों में नाचा करती
उजड़ गई जो सुख की खेती।“
किसान को अपनी उजरी गाय अत्यधिक प्रिय थी। वह अपना दूध उसके सिवाय किसी और को नहीं निकालने देती थी। वह गाय भी उसके पास से चली गई। उसका सारा सुख समाप्त हो गया। अब तो वह सुख की खेती उसकी। स्मृति बनकर ही रह गई।
“अंधकार की गुहा सरीखी
उन आँखों से डरता है मन,
भरा दूर तक उनमें दारुण
दैन्य दुख का नीरव रोदन”।
इन काव्य पंक्तियों में किसान की व्यथा का मार्मिक अंकन किया गया है। उसकी व्यथा उसकी आँखों से झलकती है। उनमें अंधकार-ही- अंधकार है। आशा की कोई किरण उनमें नहीं दिखाई देती। किसान का जीवन दारुण दुख, दीनता और रोदन का पर्याय बन चुका है। कवि ने आँखों की उपमा अंधकार की गुहा (गुफा) से दी है, अत: उपमा अलंकार का प्रयोग है।
सुमित्रानंदन पंत के गद्य साहित्य में नारी की विविध भाव भंगिमा, क्रिया-प्रतिक्रिया, रूप-रंग, भाव-मुद्रा, चिंतनशीलता व प्रेम की सशक्त पीड़ा व विरह की कसमसाहट के दर्शन होते हैं। इन्होंने महिलाओं के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक पक्ष को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। नारी के सभी संदर्भों को इन्होंने बड़ी बारीकी से चित्रित किया है। पंत जी के गद्य साहित्य में नारी पात्र आंचलिकता से लेकर महानगरीय जीवन संदर्भो पर आधारित हैं। नारी के जीवन के विविध पक्षों को चित्रित करते वक्त पंत जी उन्हें वास्तविक धरातल प्रदान कराते हैं। साथ ही उन्होंने यथार्थता का चित्रण अत्याधिक सूक्ष्मता के साथ किया है। पंत जी ने नारी के विविध रूपों का चित्रण किया है, जैसे माँ, पत्नी, प्रेयसी, बालसखा, सहपाठी, कामिनी, बालिका आदि।
उनके प्रमुख काव्य ग्रंथ हैं—वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, युगांत, ग्राम्या, शिल्पी, उत्तरा, स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, युगांतर, रजतशिखर, अतिमा, वाणी, कला और बूढा चाँद इत्यादि। उनके काव्य संग्रह ‘चिदंबरा’ के लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। उनकी अंतिम कृति है ‘लोकायतन’ जो महाकाव्य है, इसके लिए उन्हें नेहरू सोवियत शान्ति पुरस्कार और हिन्दी की अनवरत सेवा के लिए इन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया गया।
“वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
उमड़ कर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान”
संघर्षपूर्ण जीवन की परिणति होता है एक भावुक मन और शायद इसी तरह अंजान कविता बही आती है। छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में एक और ‘हिंदी साहित्य के विलियम वर्ड्सवर्थ’ सुमित्रानंदन पंत का साहित्य को योगदान अविस्मरणीय धरोहर है।
– नीरज कृष्ण