आलेख
पूर्वोत्तर भारत के लोकसाहित्य की विशेषताएँ: वीरेन्द्र परमार
पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी पर्वत-शिखरों एवं सुदूर जंगलों में प्राकृतिक जीवन व्यतीत करते हैं, जहाँ गीत गाते झरनों, बलखाती नदियों, वन्य-जीवों और नयनाभिराम पक्षियों का उन्मुक्त संसार हैI यहाँ का जीवन सरल और स्वच्छंद हैI यहाँ जीवन की आपाधापी नहीं, समय की व्यस्तता नहीं, कोई कोलाहल नहीं, तनावरहित जीवन, न्यूनतम आवश्यकताएँ, कोई महत्वाकांक्षा नहीं, भविष्य की कोई चिंता नहींI
इन परिस्थितियों में इनके उर्वर मस्तिष्क में कल्पना की ऊँची उड़ान उठती हैI फलत: लोकगीतों, लोककथाओं, मिथकों, कहावतों, पहेलियों का सृजन होता हैI लोकसाहित्य की दृष्टि से पूर्वोतर भारत अत्यंत समृद्ध हैI पूर्वोतर की पुरानी पीढ़ी को लोकसाहित्य का जीवंत भंडार गृह कहा जा सकता हैI लोकसाहित्य वाचिक परंपरा में पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ता हैI
• पूर्वोत्तर भारत की आर्थिकी कृषि पर निर्भर हैI अत: अधिकांश पर्व-त्योहार कृषि से संबंधित हैI बीज बोने, फसल कटने के उपरांत अनेक पर्व-त्योहार मनाए जाते हैंI नृत्य-गीत इन त्योहारों के अभिन्न अंग हैI त्योहारों के अवसर पर इष्ट देवों को प्रसन्न करने के लिए सामूहिक स्तर पर नृत्य-गीत प्रस्तुत किए जाते हैंI इसलिए पूर्वोतर के लोकसाहित्य में त्योहारों से संबंधित गीतों, नृत्यों और आख्यानों की संख्या सबसे अधिक हैI
• प्राचीनकाल में पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी समूहों के बीच परस्पर लड़ाई-झगड़े होते रहते थेI कभी-कभी ये झगड़े युद्ध का रूप धारण कर लेते थेI इस युद्ध में अनेक लोग मारे जाते थेI इसलिए इस क्षेत्र के प्राय: सभी आदिवासी समुदायों में युद्ध नृत्य और युद्ध गीत की परंपरा विद्यमान हैI युद्ध नृत्य और युद्ध गीत वीर रसात्मक होते हैं एवं लोगों में शौर्य व पराक्रम का संचार करते हैंI गीतों में अतीत में घटित युद्धों के उल्लेख के साथ-साथ समुदायों के पूर्वज योद्धाओं के वीरतापूर्ण आख्यान वर्णित होते हैंI
• पूर्वोत्तर का समाज उत्सवधर्मी हैI इस क्षेत्र के अनेक आदिवासी समुदायों में मृत्यु को भी उत्सव के रूप में समारोहपूर्वक मनाया जाता हैI मदिरा पीकर ग्रामवासी पूरी रात नृत्य करते हैं और गीत गाकर मृतक की आत्मा की शांति के लिए कामना करते हैंI इसलिए इस अंचल में मृत्यु गीतों व मृत्यु नृत्यों की उन्नत परंपरा हैI
• पूर्वोतर के लोकसाहित्य में पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं आदि का मानवीकरण किया गया हैI यहाँ जड़ वस्तुएँ भी मनुष्य की तरह बातें करती हैं, प्रणय निवेदन करती हैं तथा एक-दूसरे के सुख-दुःख में सहभागी बनती हैंI पशु-पक्षी भी परस्पर विचार-विनिमय करते हैं तथा सुख-दुःख में एक-दूसरे की सहायता करते हैंI पर्वत-वृक्ष भी मानव के हर्ष-विषाद में हर्षित-रोमांचित-उद्वेलित होते हैंI
• इस अंचल के लोकसाहित्य में वन, पहाड़, देवी-देवता, भूत-प्रेत, जादू-टोना, तंत्र-मन्त्र, नदी, तालाब, पेड़-पौधे इत्यादि से संबंधित आख्यानों, गीतों, कथाओं और पहेलियों का बाहुल्य हैI इस अंचल के लोकसाहित्य में दैवीय गुणों से युक्त वनस्पतियों, संवेदनशील भूत-प्रेतों और चमत्कारी नदियों-झरनों-तालाबों का उल्लेख बार-बार मिलता हैI
• पूर्वोतर के प्रणय गीतों में प्रेम की पराकाष्ठा दृष्टिगोचर होती हैI इन गीतों में आत्मसमर्पण, आत्मोत्सर्ग और प्रेम की उदात्तता का भाव हैI प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे के लिए जीने-मरने को तत्पर रहते हैंI प्रेमी-प्रेमिका के प्रणय निवेदन में भावनाओं के आरोह-अवरोह के साथ-साथ शब्द चातुर्य भी मिलता हैI
• इस क्षेत्र की अधिकांश जनजातियों में मुखौटा नृत्य की परंपरा विद्यमान हैI नर्तकगण विभिन्न पशु-पक्षियों का मुखौटा धारण कर पारंपरिक नृत्य करते हैंI बरसिंगा नृत्य, कंकाल नृत्य, दम्पू नृत्य आदि पूर्वोतर में अत्यंत लोकप्रिय हैंI इन नृत्यों के द्वारा समाज को नैतिकता का सन्देश जाता हैI विशेषकर बौद्ध धर्मावलम्बी जनजातियों में मुखौटा नृत्य की उन्नत शैली मौजूद है, जिसके माध्यम से बौद्ध धर्म से संबंधित सन्देश संप्रेषित किए जाते हैंI
• पूर्वोत्तर के कुछ जनजातीय समाज में पशु-पक्षियों के हाव-भाव के आधार पर नृत्य किए जाते हैंI नर्तकगण भालू, मुर्गा आदि पशु-पक्षियों की तरह अंग-संचालन करते हैं तथा वैसी ही आकृति बनाकर संदेशों को अभिव्यक्त करते हैंI नागालैंड में मुर्गा नृत्य, झिंगुर नृत्य, भालू नृत्य आदि खूब लोकप्रिय है। हेतातेउली अथवा भालू नृत्य द्वारा योद्धाओं में उत्साह व पराक्रम का संचार करता है।
• पूर्वोत्तर में नृत्य सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग हैI इसके द्वारा लोग अपने हर्ष-विषाद, विजय-पराजय, उल्लास-उमंग आदि प्रकट करते हैंI पूर्वोत्तर के कुछ समाज में नृत्य भी एक प्रकार की उपासना और ईश्वर प्राप्ति का एक साधन हैI यहाँ नृत्य एक पवित्र कर्म माना जाता हैI इसे प्रस्तुत करने के लिए कुछ सुनिश्चित नियम होते हैंI जहाँ नृत्य की प्रस्तुति हो वह स्थान पवित्र होना चाहिएI यहाँ के समाज में धर्म के साथ नृत्य का गहरा जुड़ाव हैI जीवन के सभी अवसरों, यथा- जन्म, विवाह, श्राद्ध आदि पर नृत्य की परंपरा विद्यमान हैI
• पूर्वोत्तर के समाज में लोककथाओं और मिथकों की समृद्ध परंपरा हैI सभी समुदायों में अपने देशंतरगमन, पूर्व पुरुषों तथा ईश्वरीय प्रतीकों के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मिथक प्रचलित हैंI यहाँ वन्य एवं वन्य-प्राणियों से सम्बंधित लोककथाओं और मिथकों का बाहुल्य हैI पूर्वोत्तर के आदिवासी समुदाय मिथकों में सृष्टि, पेड़, पर्वत, जल, मानव, पशु-पक्षी, जीव-जंतु आदि की उत्पत्ति की कथा वर्णित हैI यहाँ प्रेम-कथाएँ भी पर्याप्त संख्या में मिलती हैंI शिकार सम्बन्धी लोककथाएँ भी खूब लोकप्रिय हैंI इन लोककथाओं में मानवीय मूल्यों को प्रतिस्थापित करने की भावना निहित होती हैI
• पूर्वोत्तर के लोकगीतों में वीरगाथात्मक आख्यान, देशांतरगमन संबंधी घटनाएँ, पूर्वजों की उपलब्धियां तथा आखेट से जुड़े अनुभव वर्णित होते हैंI अधिकांश लोकगीत व लोककथाएँ मिथकों पर आधारित हैंI यहाँ की कहावतें एवं दंतकथाएँ पूर्वजों द्वारा अर्जित अनुभव और अतीत की घटनाओं पर आधारित हैंI
• सामूहिकता बोध पूर्वोत्तर की विशेषता हैI किसी व्यक्ति का जीवन समुदाय से अलग नहीं होता हैI यहाँ व्यष्टि नहीं, समष्टि महत्वपूर्ण हैI इसलिए पूर्वोत्तर में नृत्य-गीत की प्रस्तुति सामुदायिक स्तर पर होती हैI इससे परस्पर भाईचारे की भावना सुदृढ़ होती हैI
• धर्म पूर्वोत्तर भारत के लोगों का प्राण तत्व हैI धार्मिक मान्यताएँ कदम-कदम पर इनका पथ आलोकित करती हैंI अत: इष्ट देवताओं, ईश्वरीय प्रतीकों, भूत-प्रेतों आदि से संबंधित उपासना गीतों, संस्कार गीतों और संस्कार नृत्यों का आधिक्य है I इन नृत्य-गीतों में उत्साह, उत्तेजना, ऊर्जा और सम्पूर्ण समर्पण होता हैI
• पूर्वोत्तर भारत में विद्यमान युवागृह लोकसाहित्य को पल्लवित-पुष्पित करने में महती भूमिका का निर्वाह करते हैंI यहाँ पर युवा पीढ़ी नृत्य-गीत का प्रशिक्षण प्राप्त कर वाचिक परंपरा को आगे बढ़ाती हैI
सैकड़ों आदिवासी समूहों का क्षेत्र पूर्वोत्तर अपनी विविधतापूर्ण संस्कृति के लिए विख्यात हैI सरल जीवन और न्यूनतम आवश्यकता के कारण आदिवासी समाज के पास चिंतन, मनन, आत्मावलोकन, कल्पना, नृत्य-गीत, गपशप के लिए भरपूर समय होता हैI खाली समय में इनकी कल्पनाएँ ऊँची उड़ान भरती हैं तथा उनके उर्वर मन-मस्तिष्क से कहानियों, कविताओं, गीतों, कहावतों की अविरल धारा फूट पड़ती हैI हजारों की संख्या में कहानियां, गीत, मिथक आदि वाचिक परंपरा में मौजूद हैं, जिन्हें अभी तक लिपिबद्ध नहीं किया गया हैI दो-चार को छोड़कर पूर्वोत्तर की अधिकाँश भाषाओं के पास अपनी लिपि नहीं हैI लिपिहीनता इस क्षेत्र के लोकसाहित्य के संरक्षण-संकलन-प्रकाशन में सबसे बड़ी बाधा हैI अत: आवश्यक है कि देवनागरी लिपि में पूर्वोत्तर भारत के लोकसाहित्य का संकलन-प्रकाशन के लिए भगीरथ प्रयास किए जाएँ अन्यथा काल-प्रवाह में साहित्य के इस विशाल भंडार का क्षरण हो जाएगा तथा हमारा समाज इस समृद्ध विरासत से वंचित हो जाएगाI
– वीरेन्द्र परमार