ज़रा सोचिए
पूर्ण विराम से पहले
– प्रगति गुप्ता
यथार्थ से जुड़ा बहुत सटीक वाक्य है- ‘एक सही संदेश सही इंसान को अगर सही समय पर मिल जाए तो जीवन को बचाया जा सकता है।’ आज एक निर्जीव वायरस ने मनुष्य के जीवन में घुसपैठ करके उसके चारों ओर एक चहारदीवारी बना दी है। साथ ही उसे सोचने पर भी मजबूर कर दिया है कि उसके गतिशील रहने के लिए सुरक्षित दायरे की सीमा कितनी है। अगर वो इस सुरक्षित दायरे से बाहर निकलता है तो मृत्यु के इस अदृश्य वाहक का शिकार बन सकता है। यह बात गुज़रे हुए लॉकडाउन के इस अंतराल में मनुष्य बहुत अच्छे-से समझ चुका है। इस वायरस के आने के कारणों के बहुत सारे क़यास लगाए गये पर अभी तक कोई पुख्ता सबूत न मिलने के कारण आज भी यह रहस्य बना हुआ है।
खैर, इस लॉकडाउन ने मनुष्य को स्वयं से संवाद करने का समय दिया। चहारदीवारी में बंद मनुष्य के पास बहुत कुछ सोचने के लिए अपार समय रहा। हर व्यक्ति को मृत्यु का भय ख़ुद का जीवन बार-बार रीवाइन्ड और फॉरवर्ड करके, सोचने-विचारने पर मजबूर करता रहा। चिंतन और मनन की इस प्रक्रिया ने हमारे अंदर और बाहर के खोखलेपन से पर्दा हटाया। मनुष्य को ज़मीन पर पैर टिकाकर चलने के लिए मजबूर कर दिया।
जैसा कि हम जानते है कि क्षणिक सुखों की तलाश में फिरने वाला मनुष्य-मन छद्म या आभासी बातों और विचारों से बहुत आकर्षित होता है। अब प्रश्न यह है कि जो भी छद्मया आभासी है, वो ज़िन्दा या जीये-सा कैसे हो सकता है? छद्म दुनिया में ख़ुशियाँ तलाशना मनुष्य के मस्तिष्क का एक खेल है, जिसका खिलौना मनुष्य बनता है।
कम से कम सुविधाओं में कैसे जीवन यापन हो सकता है, इस वायरस ने मनुष्य के दिलो-दिमाग़ को पुनः जीवित कर दिया। किसी भी चीज़ पर अतिनिर्भरता जो इंसान को होने लगी थी, उसकी उपलब्धता न होने या कम होने से मनुष्य ने दिमाग़ से इस निर्भरता के बोझ को कम किया और अपनी लत को क़ाबू में रखने का प्रयत्न किया। परिणामस्वरूप परिवार व समाज ने यथार्थ से जुड़कर सुखद और दु:खद दोनों ही स्थितियों का मिलकर सामना किया। जिनके नम्र व तीव्र प्रभावों के असर घर, परिवार, समाज व देश में बराबर देखने को मिले।
परिवारों में उम्र और क्षमता के हिसाब से सभी ने योगदान दिया। घर के लोगों में आपसी प्रेम भी बढ़ा तो कलह भी बढ़ी। जिसके परिणाम आने वाले समय में और भी साफ़ और स्पष्ट होंगे। जो कि इस समय में लिखे गये साहित्य में देखे जाएँगे। मीडिया ने भी बहुत कुछ दिखाया पर लोगों के व्यक्तिगत अनुभव जब क़लमबद्ध होंगे, वह भी समाज का असल दर्पण बनेंगे।
कितने ही लोगों से मेरी बात हुई कि उन्होंने अपव्यय बंद कर दिया है। बहुत किफ़ायत से चलने लगे हैं। जहाँ उनके घरों में हर खाने में तीन-तीन डिश बनती थी, वहाँ अब एक ही बनती है क्योंकि कौन बार-बार बाज़ार जाए और अपनी जान जोखिम में डाले। सभी के काम लगभग ठप्प होने से या आय न के बराबर होने से किफ़ायत के मतलब समझ आये। जाहिर-सी बात है, सभी को रुपये की क़ीमत भी पता लगी।
कई लोगों के फोन भी आये कि ज़रूरतमंदों के लिए कुछ करना चाहते हैं या बहुत कुछ कर चुके हैं। मानी चरमराई व्यवस्था ने चंद दिनों में ही मनुष्य को उसकी हक़ीक़त से रूबरू करवा दिया। दूसरी ओर जिनके मन-हृदय परिस्थितियों को झेलने में सक्षम नहीं थे, अवसादित भी हुए। इस वर्ग में वो वृद्ध लोग ज़्यादा थे, जो अकेले रह गये थे। जिनको घर के बाहर जाकर सामान लाने की दिक्कतें थीं। बीमारी-हारी उनके साथ थी। इस अंतराल में मेरी कई बुजुर्गों से बात हुयी, जो अवसादित हो रहे थे। उनकी छोटी-छोटी मदद करने से वो इस विपदा से निकल सके। शायद ऐसे बहुत-से और भी वृद्ध होंगे, जिनको कोई मदद नहीं मिली होगी। वो आज भी परेशानी में होंगे। ऐसे में लोगों को परिवार का महत्व बहुत अच्छे-से समझ आया।
प्रकृति के मौन-संदेश का वाहक एक निर्जीव वायरस बना कि भावों-संवेदनाओं, मूल्यों और संस्कारों से जुड़ा जो भी आसपास है, उसे सहेज लो और पुनः-पुनः विचार करो। जो भी पास है, उसकी कद्र करो। प्रदूषण कम हुआ तो प्रकृति के महत्व को हम सभी ने बहुत निकट से महसूस किया। पंछियों की चहचाहट हो या नदियों का पानी निर्मल साफ़ दिखा।
हर क्षेत्र में सृजन का प्रतिशत अपेक्षा से अधिक नज़र आया। लोगों के छिपे हुए हुनर सामने आये। तकनीक के विस्तार को शिक्षा और व्यावसायिक क्षेत्रों में बढ़ावा देने के लिए नए आयामों की खोज हुयी। जिनके असर हर उम्र के लोगों पर अलग-अलग पड़े।
एक ही मंच पर बड़ी संख्या में लोगों को कम खर्च में इकट्ठा किया गया। वेबीनार के माध्यम से जो लोग कहीं आने-जाने में समर्थ नहीं थे, वो भी उसमे भाग ले सके। मगर तकनीकी की सुविधाओं की वजह से घर भी ऑफिसों में परिवर्तित हो गये। परिणामस्वरूप अल्हड़ मासूम उपेक्षित हुए। मेरी कई अभिवावकों से बात हुयी, जिनके बच्चे पाँच से दस वर्ष के थे। ऑनलाइन क्लाससेज होने से बच्चों के स्वास्थय पर असर पड़ा है। उनकी आँखों से जुड़ी समस्याएँ सामने आयीं।
आज बच्चों के लिए असमंजस की स्थिति बढ़ी है। बच्चों के लिए स्कूल जाना ऊर्जा का स्त्रोत होता है। पर अभिवावकों ने यह भी बताया कि चूँकि बच्चे खाली हैं न ही उनको स्कूल जाना है, न ही अपने दोस्तों के साथ खेलने की आज़ादी है तो टी.वी, कंप्यूटर या फिर घर में अन्य धमा-चौकड़ी करने के लिए एक ओर तो वो स्वतंत्र हैं पर घर के अस्त-व्यस्त हो जाने पर माँ-बाप की बौखलाहट का सामना भी कर रहे हैं। बच्चों को बेवजह डांट भी पड़ रही है। बच्चों की समझ नहीं आता, जिसके लिए एक बार उनको मना किया जा रहा था, उसी चीज के लिए उनको अनुमति मिल रही है। जब वही करते हैं तो ज़बरदस्ती डाँट भी खा रहे हैं। क्या करना है; क्या नहीं, यह अब उनकी समझ से परे होता जा रहा है। हालांकि बाद में माँ-बाप अपनी ग़लती को महसूस कर आत्मग्लानि भी महसूस करते हैं।
ऐसी स्थिति बड़े शहरों के फ्लैट्स में रहने वाले कामकाजी एकल परिवारों के सामने बहुतायत में आ रही है। इसके उलट जहाँ संयुक्त परिवार हैं या जहाँ बच्चों को दो से अधिक लोग देखने व संभालने वाले हैं, वहाँ उनकी स्थिति तुलनात्मक रूप से काफ़ी बेहतर है। एक और बहुत बड़ा परिवर्तन जो देखने में आ रहा है कि इस उम्र के बच्चे ज़रूरत से ज़्यादा ख़ुद से ही बातें करने लगे हैं, क्योंकि माँ-बाप के व्यस्त होने से बच्चे कितनी देर टी.वी. देखेगे या ख़ुद के साथ खेलेंगे। ख़ुद से बहुत अधिक बातें करना बच्चे के व्यक्तित्व पर बहुत प्रभाव डालता है। यहीं से दूसरी काफ़ी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे बच्चे अक्सर बड़े होने पर दूसरों के साथ ज़्यादा घुल-मिल नहीं पाते हैं। इस उम्र के बच्चे जो देखते हैं, वही ख़ुद में ढाल लेते हैं। यह तो भविष्य ही बताएगा कि इस विषमकाल का क्या-क्या असर इन बच्चों पर पड़ा है।
आज महँगी शादियों का स्वरूप पारिवारिक समारोह में बदल गया है। इस विषमकाल ने बहुत अच्छे-से समझा दिया कि कुछ भी स्थाई न रहता है न रहेगा। लॉकडाउन के इस अंतराल में साहित्य सृजन भी बहुत हुआ। मैंने भी अपने कार्यक्षेत्र की ज़िम्मेवारियों के साथ-साथ सृजनशीलता को विस्तार दिया। भविष्य में आने वाले मेरे उपन्यास का शीर्षक ‘पूर्ण विराम से पहले….’ भी मनुष्य को सजग रहने को कहता है। इस अमूल्य जीवन में हमारी लापरवाहियों की वजह से पूर्ण-विराम लगे, उससे पहले यह चिंतन-मनन की ओर इंगित करता है।
– प्रगति गुप्ता