पुस्तक-समीक्षा
पारंपरिक कहन और नई फ़िक्र का ताज़ा मजमुआ ‘ज़िंदगी के साथ चलकर देखिये’: के.पी. अनमोल
क़रीब तीन सौ साल का सफ़र तय करने के बाद आज ग़ज़ल आम आदमी के बीच आ खड़ी है। एक मुफ़लिस की ग़रीबी पर अश्क़ बहा रही है तो अपने दौर की कालिख़ को भी शब्द दे रही है। नि:संदेह ग़ज़ल आज की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा हो चुकी है। जबसे यह महलों की तंग गलियों और महबूब की बांहों से निकल हक़ीक़त के रास्तों पर उतर आयी है, तबसे हर शख्श ने इसका हाथ थामा है और इसे अपने साथ चलता पाया है। अब आज की ग़ज़ल देश-दुनिया की फ़िक्र बयाँ करती है और हर विषय को अपने दामन में भर अपने आँचल की खूबसूरती बढ़ाती नज़र आ रही है।
आज देखा यह जा रहा है कि हर नया-पुराना शायर ग़ज़ल की पारंपरिक रूढ़ियों के दायरों से बाहर निकल उसके शिल्प, कहन, विषय और तत्त्वों में ताज़गी भरना चाह रहा है और चाह रहा है कि ग़ज़ल के चाहने वालों को यह नये से नये फ्लेवर में मिले ताकि इसका स्वाद और मज़ा हर बार नया लगे।
इसी कोशिश में एक नाम युवा शायर शिज्जु शकूर का भी शामिल है। शिज्जु शकूर अपने तमाम अनुभवों को ग़ज़ल के साँचे में ढाल ज़िंदगी के साथ चलकर देखना चाहते हैं। रायपुर, छत्तीसगढ़ के युवा ग़ज़लकार शिज्जु शकूर साहब एक तरफ एक दवा कंपनी में क्षेत्रीय प्रबंधक पद को शोभित कर रहे हैं तो दूसरी ओर ये ग़ज़ल, कविता और दोहों के सृजन से साहित्य को भी समृद्ध कर रहे हैं। कुछ समय पहले इनका एक ग़ज़ल संग्रह ‘ज़िंदगी के साथ चलकर देखिये’ प्रतिष्ठित प्रकाशन समूह ‘अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद’ से प्रकाशित हुआ है, जो इनका पहला प्रकाशन है। इससे पहले इनकी रचनाएँ साझा संकलन ‘ग़ज़ल के फ़लक पर-1’ और ‘शब्द व्यंजना’, ‘अभिव्यक्ति अनुभूति’ व ‘हस्ताक्षर’ आदि वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।
ग़ज़ल की पारंपरिकता के साथ आधुनिकता का समावेश कर अच्छे शेर कहने वाले शिज्जु शकूर अपने पहले ही संग्रह में हर तरह की ‘वेरायटी’ के साथ उपलब्ध हैं। पारंपरिक कहन, भारी भरकम अरबी-फ़ारसी युक्त शब्दावली के साथ जदीद फ़िक्र व ताज़ा कोशिशें लेकर अपने संग्रह में ग़ज़ल के हर रंग को समेटते दीखते हैं। देखिये-
कभी ग़ज़ल में उतर ख्व़ाब में समा के कभी
जमालो-वुसअते-क़ुदरत टहल के देखते हैं
ये रंगे-इश्को-वफ़ा गाह रंजो-शाद कभी
ग़ज़ल के रंग में डूबा हूँ इक ज़माने से
इनके कलाम में कुछ रूमानी अश’आरों की बदौलत मोहब्बत के नाज़ुक अहसासात की शिनाख्त भी होती है, लेकिन ये अहसास लौकिक कम, अलौकिक ज़्यादा लगता है-
मेरी ग़ज़ल में उतर आती है वो आहिस्ता
मेरा हयात से बस इतना वास्ता ही सही
औराक़ पर उतर गये पल इंतज़ार के
मिसरों में तेरी शक्ल सी मानो बनी हुई
अब लाज़िम सी बात है कि अगर मोहब्बत का अहसास है तो दिल पर चोट और शिकवे, शिकायतें तो होंगी ही, देखिये फिर-
कुछ रोज़ की तड़प थी फ़कत ऐ मेरे हबीब
इक तज़्रिबा हुआ कि तुझे जान तो गया
जब शायर एक ऐसे अनिश्चित दौर में जी रहा हो, जहाँ हर ओर बस धुआं-धुआं सा हो। कुछ भी साफ़ साफ़ नज़र न आ रहा हो, न फ़ितरत, न हरकत और ना ही मंसूबे। एक वर्ग हो जो अपने आक़ाओं की शह पे अपने वक़्त के चेहरे को बिगाड़ने पर तुला हो और दूसरा वर्ग ठगा-ठगा सा, मंज़र समझने की कोशिश कर रहा हो। चारों तरफ कुछ भी सही न हो और अनिष्ट की आशंका मुँह बाए सर पे खड़ी हो, तब कलम यही लिखेगी, क्यूंकि यही लिखना उसका धर्म होगा-
अब खुलके उगलते हैं वो ज़हर फ़िज़ाओं में
क्यूँ आज क़यामत की है गंध हवाओं में
कौनसा है रास्ता महफूज़ जाऊं किस तरफ़
आफ़तें तो आफ़तें है आयें चारों ओर से
न जाने शह्र ये किसकी अमाँ में है क्या हो
यहाँ हर आँख में डर के सिवा कुछ और नहीं
हाल के माहौल में गंदी राजनीति व अंधी राष्ट्रभक्ति की हवा में अच्छे-अच्छे समझदार बहकते दिखाई दे रहे हैं। जिनसे उम्मीद न थी, वे भी बचकानी बातें कर रहे हैं। कुछ ऐसे ही नादान साथियों को संबोधित कर शकूर साहब कह रहे हैं-
किसी खूँख्वार को मतलब नहीं ईमानों दीं से कुछ
तू आँखें खोल के देखे तो तेरा सारा भ्रम निकले
और यही शेर जेहाद के नाम पर दुनिया भर में ताण्डव फैला रहे बेवकूफ़ो की ज़ेहालत की हक़ीक़त बताता हुआ, ईमान वालों को अपने मज़हब को ठीक से समझने की सलाह भी देता है।
एक आम वोटर की नज़र से देखें तो इक शेर उसे अपनी औकात समझाता हुआ सा महसूस होता है-
उँगलियाँ थीं, नाम थे, पहचान थी सबकी मगर
वे सभी बस वोट थे उनका कोई चेहरा न था
किताब में सामाजिक सरोकारों के भी अनेकों शेर अपनी मौजूदगी दर्शाते हैं। आज बुज़ुर्गों की उपेक्षा की कहानी जगह जगह खुलने वाले वृद्ध आश्रम और भागती-दौड़ती ज़िंदगी को क़रीब से देखते फुटपाथ बा-ख़ूबी बयान करते हैं। लेकिन यह हमारी बदकिस्मती ही है कि हम अपने बुज़ुर्गों के अनुभवों से फ़ायदा उठाने की बजाय उन्हें दर-बदर कर रहे हैं। शायर अपने एक शेर में हमारे विवेक पर कुछ यूँ आश्चर्य करता है-
आजकल निगाहों को क्या हुआ ज़माने की
तज़्रिबे को चेहरे की झुर्रियाँ समझते हैं
एक छोटी बहर की ग़ज़ल में हादसों के बीच ज़िंदगी का सिलसिला बताते हुए शायर मुश्किल हालातों से जिजीविषा के साथ लड़ने का हौसला देता है तो साथ ही यह भी बताता है कि नाकामियों के अंतिम छोर पर ही क़ामयाबी की दहलीज़ होती है, जिसे देखे बिना ही हम नाकामियों का मातम मना, हार मानकर लौट आते हैं और क़ामयाबी हमसे महज़ एक क़दम दूर रह जाती है। यहाँ शायर एक दार्शनिक का जामा पहनकर हमसे मुख़ातिब होता है-
ये भी जीने की अदा है
ज़ीस्त का हर पल नया है
हादसों के दरमियाँ इक
ज़िंदगी का सिलसिला है
छोर पर नाकामियों के
मंज़िलों का रास्ता है
शायर की दार्शनिकता का एक और सबूत देखिये-
भीड़ चेहरे सिर्फ़ कहने के लिए मौजूद हैं
घूमकर देखा मगर मुझको मिला कोई नहीं
भारतीय संस्कृति की समन्वयपरकता का उदहारण देते हुए अपनी किताब में दीपावली के माहौल पर एक प्यारी ग़ज़ल देखने को मिलती है। एक मुस्लिम शायर की कलम से हिन्दू धर्म के एक त्यौहार पर इतनी खूबसूरत ग़ज़ल पढ़कर हैरानगी कतई नहीं होती, बल्कि रसखान, रहीम सरीखे भक्त कवियों का स्मरण हो आता है और साहित्य की पवित्रता की बलाइयाँ लेने का मन करता है।
धुआँ होकर बलाएँ भाग जाती हैं दिवाली में
दुआएँ खुलके यूँ जल्वे दिखाती हैं दिवाली में
ज़मीं पर आसमां मानो उतर आता है हर सू जब
चराग़ों की सफ़ें, लौ जगमगाती हैं दिवाली में
चराग़ों, रौशनी की वुसअतों के दरमियाँ बेबस
कहीं तारीकियाँ भी छटपटाती हैं दिवाली में
कुल मिलाकर शकूर साहब की पहली ही किताब में पाठक को ज़िंदगी के हर पहलू पर अच्छे अश’आर पढ़ने को मिलेंगे तो साथ ही शायरी की बारीकियों को समझने का मौक़ा भी मिलेगा। हाँ, एकाध जगह पर कुछ खटकता हुआ सा भी लगता है, लेकिन बहुत कम। एक अच्छे शायर की कोशिश में कुछ कमियों का होना लाज़मी भी है। उम्मीद है कि आने वाले दिनों में शकूर साहब की शायरी का मेआर आला मकाम पायेगा। एक अच्छी किताब की मुबारकबाद के साथ दुआएँ हैं कि मन ही मन ख़ूब सोचते रहिये, ख़ूब मुस्कुराइये और धड़कनों की साज़ पर ख़ूब ग़ज़लें गाइये।
मन ही मन कुछ सोचता हूँ मुस्कुराता हूँ कभी
धड़कनों की साज़ पर अपनी ग़ज़ल गाने के बाद
समीक्ष्य पुस्तक- ज़िंदगी के साथ चलकर देखिये
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- शिज्जु शकूर
प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, इलाहबाद
संस्करण- प्रथम, पेपरबैक, 2015
मूल्य- 120 रूपये
– के. पी. अनमोल