ग़ज़ल पर बात
पाठक से बहुत सरलता के साथ कई सार्थक बातें करती एक ग़ज़ल: के. पी. अनमोल
कोई भी रचना उतनी ही सशक्त होगी जितनी मजबूती से उसमें उसके परिवेश और काल का समावेश होगा। अगर किसी रचना में आसान से हर किसी को समझ आने वाले शब्दों में अपने आसपास की बात की जाए तो वह रचना अधिक गहराई से ज़हन में उतरती है। आज के हिन्दी काव्य में यही बात ग़ज़ल पर लागू होती है। वर्तमान समय में हिन्दुस्तानी धारा की ग़ज़ल में भाषा और शिल्प की विद्वता और पांडित्य को एक तरफ रख साधारण से व्यक्ति के मन की बात, उसकी पीड़ा, उसकी ख़ुशियों और अनुभवों को बहुत ही सरल तरीक़े से उकेरा जा रहा है। और शायद यही वजह है कि बहुत कम समय में ग़ज़ल ने लोकप्रियता के मामले में प्रतिमान स्थापित किये हैं।
आज अगर हम दुष्यन्त के अलावा बात करें तो भी ज़हन में कई ऐसे नाम आएँगे, जिन्होंने अपनी ग़ज़लों से इस विधा को बुलन्दी अता की है। इसी कड़ी में ग़ज़ल की युवा खेप को पढ़ा जाना और सुखद है। आज युवा ग़ज़लकार कहन और भाव के साथ-साथ शिल्प पर भी बराबर ध्यान दे रहे हैं यह एक और सुखद पहलू है।
आइए, आज बात करते हैं जोधपुर (राज.) के युवा ग़ज़लकार ख़ुरशीद खैराड़ी की, जो बहुत सादगी से ग़ज़ल में अपनी बात रखते हैं और सीधे हमारे दिलों तक पहुँचा देते हैं। ख़ुरशीद भाई की ग़ज़लों में ग्रामीण परिवेश, पारिवारिक मूल्य और संवेदनाएँ जीवंतता के साथ मौजूद रहती हैं। इनकी यह ग़ज़ल सबसे पहले इन्हीं के मुख से सुनी थी, फिर ‘हस्ताक्षर’ के ज़रिये पढ़ी और अब इनके पहले ग़ज़ल संग्रह में शामिल हो, सदा के लिए मेरे संकलन का हिस्सा हो गई है। इस ग़ज़ल में ऐसा कुछ तो है, जिसकी वजह से यह सालों तक मेरे दिलो-दिमाग़ में रही और अब यह मुझे ख़ुद पर ‘बात’ करने के लिए उकसा रही है। क्या है, आइए देखते हैं।
ग़ज़ल बहरे-मीर यानि फेलुन की कड़ियों वाली बह्र ‘फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन’ यानि 2222 2222 2222 में कही गयी है। इस बहर की रवानी कुछ इस तरह की है कि मन रम जाता है। ग़ज़ल का मत्ला (मुखड़ा) ही हमें अपने समृद्ध भारतीय परिवेश की ओर ले चलता है। जहाँ संयुक्त परिवारों में बच्चे अपने बुज़ुर्गों की छाँव तले पला करते थे। परिवार के सभी सदस्यों का मेल-जोल, एक-दूसरे के प्रति ज़िम्मेदारी, स्नेह-आशीष बच्चों में बिना किसी आग्रह के कई संस्कार रोपित कर देते थे। अब आज चूँकि समय और परिवेश काफ़ी बदल गया है। लगभग हर 10 में से 8 व्यक्ति संयुक्त परिवार और पारिवारिक माहौल के लिए शिद्दत से तड़पते हैं। तभी ख़ुरशीद जी जैसे ग़ज़लकार की कलम से ऐसे ख़याल निकला करते हैं।
दादीसा के भजनों जैसी मीठी दुनिया
पहले जैसी कहाँ रही अब अच्छी दुनिया
पहले की दुनिया यानि गाँवों का भोला-भाला परिवेश, दादी के भजनों जैसी मिठास से वाकई सराबोर था। जब ननिहाल जाने पर नाना जी के घर से 10 मकान दूर रहते परिवार का कोई व्यक्ति प्यार से सिर पर हाथ रख पूछता था, “भानूं कब आया?”
अगर अपना अनुभव बताऊँ तो यकीन मानिए 12-13 वर्ष की आयु तक मुझे ख़ुद पता नहीं था कि मेरे सगे मामा कितने हैं! क्यूंकि नाना जी के तीन भाइयों के परिवार में कुल 7 मामा इस तरह मिल-जुलकर रहते थे कि हम बच्चों को यह एहसास कभी नहीं हो पाया कि ये सातों मामा सगे भाई नहीं हैं।
वाकई अब बताइए क्या आज के परिवेश में ऐसा होता है? (अगर अपवाद को छोड़ दें)
प्यार मुहब्बत, भाईचारे, मानवता की
समझ न पायी बातें सीधी सादी, दुनिया
दिन-सी उजली रातें भी हो जाये यारो
अँधियारे में रहे भला क्यूँ आधी दुनिया
आप शेर को पढ़कर अंदाज़ लगा पाये कि यह दो पंक्तियों का शेर स्त्री-विमर्श का समर्थन करते एक लेख जैसी शक्ति रखता है ख़ुद में?
ज़रा दुबारा पढ़िए शेर!
हाँ, समझे…..’दिन-सी उजली रातें’ दिन को अगर पुरुष मानें तो रात हुई स्त्री। पहली बात दिन और रात से तुलना कर यह दर्शाना कि यह साथ अभिन्न है। जीवन के लिए जितनी एहमियत दिन की है उतनी रात की भी है। और दूसरी बात यह कि शेर कह रहा है कि ‘अंधियारे में क्यूँ रहे’ यानि अब तो बराबर का दर्जा मिले!
वाह्ह्ह भई….ज़िंदाबाद है इस शेर के लिए।
घर से ऑफिस, ऑफिस से घर फिर कुछ ग़ज़लें
सिमट गई है इतने में ही मेरी दुनिया
अब ग़ज़लकार एक नितांत निजी ख़याल आपसे बाँट रहा है लेकिन यह आप में से कईयों को अपने आपसे जुड़ा शेर लगेगा। यहाँ ग़ज़लकार के लिए घर-परिवार, कामकाज और अपना शौक, इन के इर्द-गिर्द ही समष्टि है। आपके साथ भी तो यही है।
नटखट बच्चे, घर की खटपट, मेरी बाँहें
कितनी छोटी-सी है यारो उसकी दुनिया
यहाँ शब्द ‘उसकी’ की नज़ाकत पर जग कुर्बान भई। क्या ही सलीक़े से एक ऐसा ख़याल पिरो दिया जो कई रचनाकारों के ज़हन में तो हो सकता है आया हो लेकिन वे भी अपनी रचना में न ढाल पाये। एक गृहिणी के लिए घर-परिवार, बच्चे और उसका शौहर, है ना कितनी छोटी-सी दुनिया। शेर की नज़ाकत और खूबसूरती देखते ही बनती है।
शहरों में है झूठे दर्पण दरके रिश्ते
गाँवों में है झील सरीखी सच्ची दुनिया
जिनका वास्ता आज भी गाँवों से है, उनको यह बात सौ आना खरी लगेगी। सच है कि शहरों की तरफ भागकर हमने क्या-क्या खो दिया!
बाँधी मज़हब की गिरहें मासूम दिलों में
अपने जाले में आखिर ख़ुद उलझी दुनिया
यह शेर तो आईना है साहब! आज चौतरफा देखिए, हर तरफ अपने ही जाले में उलझी पड़ी दुनिया दिखेगी। हकीकत है, धर्म-मज़हब ईश्वर को हासिल करने का एक साध्य ही रहता तो बेहतर होता। उसे साधन बनाकर हमने अपना ही बंटाधार कर लिया।
मैंने सच्ची कुछ बातें फिर दुहराई तो
मुझको कहती है दीवाना पगली दुनिया
ऐसा ही तो होता है, कुछ ऐसा ही करने पर कबीर पर पत्थर बरसाए गए थे। समझदार की तो हर दौर में मुसीबत रही है लेकिन यह बात लाउड स्पीकर की आवाज़ के लिए शोर मचाती या एक पशु का हवाला देकर मासूम इंसान का खून करने पर आमादा भीड़ कभी नहीं समझ पायेगी।
जाने कब ‘ख़ुरशीद’ निखारोगे तुम आकर
देहातों की घोर अँधेरी काली दुनिया
इस शेर का दोहरा अर्थ शायद मैं बेहतर समझ सकता हूँ क्यूंकि ख़ुरशीद भाई को आप सबकी तुलना में ज़रा-सा नज़दीक से मैंने ज़्यादा देखा है। यहाँ ख़ुरशीद का पहला मा’ना तो वे रहनुमा हैं जिन पर सब जगह बराबर विकास की जवाबदारी है लेकिन गाँवों या ज़रुरतमंदों तक विकास का पहुँचना अब भी दरकार है।
दूसरा भाव यह है कि गाँव में पढ़-लिखकर जनाब ख़ुरशीद साहब बाबू बनकर शह्र चल दिये हैं और वहाँ मज़े से बसर कर रहे हैं, लेकिन गाँव तो उनसे उम्मीद लगाए बैठा था ना कि महावीर पढ़-लिखकर मुझे संवारेगा!
ग़नीमत यह है कि गाँव के उस ख़ुरशीद (सूर्य) को यह स्वतः एहसास है कि गाँव की उनसे क्या उम्मीद है। भाई जिस तरह से आपके सीने में अपनी मिट्टी की महक रहती है उसे देखकर यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि उस मिट्टी की उम्मीद एक दिन ज़रूर पूरी होगी, हाँ हर चीज़ का एक दिन मुक़र्रर होता है।
ग़ज़ल में मतले से मक्ते तक केवल और केवल हमारे आसपास की बातें हैं, हमारे आसपास के ही शब्द हैं, हमारे आसपास के ही मंज़र हैं। अगर किसी काव्य में इस तरह की सरलता और सार्थकता हो तो मन का रमना तो लाज़िम है। तो कुछ यही था इस ग़ज़ल में जो मेरे भीतर के बातूनी को ‘बात’ करने के लिए उकसा रहा था। अब काफ़ी हल्का महसूस कर रहा हूँ, आप बताइए आप पढ़/सुनकर क्या महसूस कर रहे हैं?
– के. पी. अनमोल