मूल्याँकन
पहाड़ों की सामाजिक पीड़ा का बखान करती कथा: छाया देवदार की
– बद्री सिंह भाटिया
आशा शैली लगभग साहित्य की सभी विधाओं में अपना स्थान रखती हैं। उनका उपन्यास ‘छाया देवदार की’ हिमाचल प्रदेश के उस समय को दर्शाता सामने आया है, जब इस प्रदेश का इस नाम से कोई अस्तित्व नहीं था। यह प्रदेश विभिन्न ठकुराइयों/राजशाहियों में विभक्त था। आशा शैली ने इस उपन्यास में जिस
क्षेत्र विशेष के जनजीवन को अपना वर्ण्य विषय बनाया है, वह सुदूरवर्ती क्षेत्र आज रामपुर-बुशहर जनपद का दूरवर्ती हिस्सा है। इस जनपद के हिमक्षेत्र के एक गाँव कापटी की एक लड़की बीरमा के जीवन के एक विकट भाग का सरस चित्रण उपन्यास में हुआ है।
आशा शैली ने इस पुस्तक में कापटी गाँव के दलित जातियों के रहन-सहन, उनकी समाजार्थिक परिस्थितियों का वर्णन करते तत्कालीन सत्ता के प्रभाव और व्यवहार को भी कथा का हिस्सा बनाया है। इसके साथ बच्चों के सामान्य जीवन, उनमें पनपते प्रेम और बाल विवाह की परम्परा को बताते हुए वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता के वर्णन के साथ मौसम के बदलाव सरस भाषा में प्रकट किए हैं। बीरमा वन में गाँव के अन्य बच्चों के साथ पशु चराने जाती है। वहाँ वह अधिक समय अपने से कुछ वर्ष बड़े बिस्ना के साथ बिताती है। हँसती है, खेलती है, शाम को घर वापस आ जाती है। यह दिनचर्या है। शिक्षा के नाम पर गाँव के पास एक प्राथमिक पाठशाला भी नहीं है। उपन्यास का यह काल लगभग तीसरे दशक के अंतिम वर्षों का प्रतीत होता है।
यह वह समय है जब इस क्षेत्र को अंग्रेजों ने शिमला हिल्स का नाम दिया था। शिमला तब तक पटियाला के अधीन था और अंग्रेजों ने इसे ग्रीष्मकालीन राजधानी बना दिया था। उपन्यास के अनुसार शिमला में रेल भी आ गयी थी। इस काल में पटियाला के शासक को एक शौक था कि वह अपने हरम में सुंदरता की अनेक जीवित मूर्तियाँ रखा करता था और इस कार्य के लिए वह अपने सिक्ख सिपाहियों को दूरदराज के क्षेत्रों में भेजा करता था। ये सिपाही पहाड़ों में भी आते थे और जैसे-कैसे सुंदर लड़कियों को अपने साथ ले जाते थे। उनके इन कारनामों की इलाके में ख़ूब चर्चा होती। इन उठाई अथवा माँग कर ले जाई गयी लड़कियों में दलितों की लड़कियों को प्राथमिकता दी जाती थी। जब भी ये सिक्ख सिपाही किसी गाँव में या रास्ते में दिख जाते तो एक फुसफसाहट इलाके में फैल जाती कि सिकड़ू (सिक्ख) अमुक जगह देखे गए हैं। कि वे बाराबीस के किसी गाँव से कि फलाँ गाँव से दो लड़कियों को अपने साथ ले गए हैं। यह भी कि वे दिन में तो इलाके में घूमकर अपना शिकार तलाशते हैं और सुबह शाम या रात को अपने काम को सरंजाम देते हैं। यह समझने योग्य है कि इस काम के लिए उन्होंने स्थानीय प्रशासन या कुछ लोगों की मदद जरूर ली होगी, जो उन्हें अपना काम बखूबी करने दे रहे थे। कापटी गाँव भी इससे अछूता नहीं रह गया था। लोगों में घबराहट थी। यह भी पता चल गया था कि वे केवल कुंआरी लड़कियों को ही ले जाते हैं। इसलिए बीरमा के माता-पिता ने कम उम्र में ही उसकी सगाई बिस्ना से कर दी थी। उस समय के बारे में सोच; आज हैरानी भी होती है कि कोई प्रतिरोध नहीं, स्थानीय शासक को कोई सरोकार नहीं। दलितों की बेटियों को ही निशाना बनाया जा रहा है।
इसी लड़कियों की ढूँढ क्रम में एक दिन बीरमा का गाँव कापटी भी आ गया और एक दिन बीरमा को वे ले गए। बीरमा पहाड़ी रास्तों पर रोती-चिल्लाती छटपटाती घोड़े पर एक सिपाही की गोद में आगे बढ़ती रही। जहाँ कहीं पड़ाव पड़ा, वहाँ उसे खाना खिलाकर गोली देकर सुला दिया जाता। वह शिमला से एक अन्य लड़की के साथ रेल मार्ग से कालका और फिर वहाँ से जीप द्वारा पटियाला राजभवन के एक खण्ड में पहुँचा दी जाती है।
क्या व्यवस्था थी। शैली बताती है कि राजभवन के हरम के उस खण्ड में उसे राजा द्वारा परखा गया और उसका चयन स्वयं के लिए कर एक बड़ी दासी अथवा
वरिष्ठ हरमवासीनी को सौंप दिया। मानो वह गर्म सूट का कपड़ा हो, जिसे उसने अपने लिए चयन कर लिया। राजा की पसंद थी वह, इसलिए उसकी पढ़ाई-लिखाई हेतु शिक्षकों की नियुक्ति भी कर दी जाती है। उसका नाम परिवर्तित कर जसबीर कौर भी रख दिया गया।
बीरमा को वहाँं का जीवन आत्मसात कर अपनी संरक्षिका दर्शनकौर को मासी का दर्जा देकर आगे का जीवन जीने के लिए तैयार कर दिया। अब वह राजा की थी। इसलिए वह उसके बारे में समय-समय पर जानकारी लेने आता रहता। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो राजा एक छोटे पशु को बलि के लिए पाल रहा है और जब वह तगड़ा हो जाएगा तब वह उसे काटकर उसका भोग लगाएगा। अबोध बीरमा धीरे-धीरे समझ को प्राप्त होती जा रही है। उसे पता चलता है कि प्रतिदिन वहाँ उस जैसी जाने कितनी लड़कियों को पहाड़ों की कोख से लाया जाता है। पाला जाता है और फिर बलि चढ़ाया जाता है। उससे पहले भी बहुत-सी लड़कियाँ आई हैं और राजभवन में कुछ समय बाद पूजा कर राजा का भोग बनी हैं या मुसाहिबों में बाँट दी गई हैं। राजा के दरबार में उसके मेहमानों में अंग्रेजों के विभिन्न अधिकारियों का आना-जाना भी लगा रहता था। बीरमा अपने बारे में सोचती- वह क्या है। बीरमा या जसबीर कौर। वह अपनी मातृभाषा में बात करना चाहती है पर किससे करे?
आशा शैली ने राजमहल में रखी जा रही बालाओं और प्रौढ़ हो गयी महिलाओं का वर्णन करते हुए बीरमा के माध्यम से राजमहल के भीतर की जिंदगी को स्वर दे अवगत कराया है कि ये विभिन्न अंचलों से लाई गयी बालाएँ, उम्र के साथ आगे बढ़ती पंद्रह बरस की आयु पाने के बाद उसकी एक विशेष पूजा होनी थी। उस पूजा के बाद उसका वह प्रशिक्षण वाला कमरा और राजभवन का भाग भी बदल जाना था और यह पूजा हुई।
बीरमा के जीवन को अभिव्यक्त करते शैली ने वहाँ घटी एक और घटना का जिक्र करते बताया है कि राज भवन के उस हरम भाग में एक ऐसी लड़की आयी, जो प्राय: रोती रहती थी। उसे समझाया जाता मगर वह और ज्यादा रोती। बीरमा को भी इसका पता चला। वह उसके पास गयी। उसने देखा यह लड़की तो उसकी छोटी बहन चेई जैसी ही है। बल्कि चेई ही है। उसने उसे अपने पास बुलाया और उसकी देखरेख करने वाली दासी से उससे कुछ क्षण अलग से बात करने की आज्ञा माँगी। उसने अपनी भाषा में उसे जब चेई कर बुलाया तो वह चौंकी। बीरमा ने उससे बतियाते अपने घर के बारे में पूछा। वह दुःखी हुई जब पता चला कि उसके पिता ने उसके सिक्ख सिपाहियों द्वारा ले जाने को लड़की को बाघ द्वारा खाया जाना बताया। उपन्यास में इस स्थिति का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया गया है।
शैली बताती है कि बीरमा सोलह बरस की हुई तो उसकी चण्डी पूजा हुई। अब वह पूरी तरह से राजा की रखैल ही नहीं, प्यारी रानी हो गई थी। उसके साथ राजा
पर्दा लगी बग्घी में नगर घूमने भी जाया करता था। वह अब किसी और के पास नहीं बल्कि जसबीर कौर उर्फ बीरमा के पास ही रहने आता। उपन्यास में चण्डी
पूजा का बहुत ही रोचक वर्णन किया गया है। जिन लड़कियों की चण्डी पूजा होनी थी, उन्हें बहुत ही अच्छे ढंग से तैयार किया गया था। उन्हें एक द्वार से
पूजा के कमरे में प्रवेश करना था। उस कमरे में अंधेरा था। बस एक छोटा-सा सरसों के तेल का दिया टिमटिमा रहा था। बीरमा के आते ही राजा ने उसे
सम्भाल लिया और बाकी को अपने मुसाहिबों को ले जाने के लिए कहा। उस समय की औरत की यह कैसी स्थिति थी कि उसे मिठाई की तरह उपहार में बाँट दिया जाता था।
हरम की स्त्रियों के गर्भ नहीं ठहरना चाहिए। यदि ठहर ही जाए तो राजा उसे गिरवा देता था। परंतु बीरमा उर्फ जसबीर कौर के किसी गलती से ठहरे गर्भ को
गिरवाया नहीं बल्कि उसकी देखभाल की। निश्चित अवधि पर प्रसव हुआ। बच्ची पैदा हुई तो राजा ने उसे प्यार से अपने आगोश में लिया और नाम दिया
गुरप्रीत कौर। अब जसबीर राजा के लिए कुछ पुरानी हो गयी थी। मगर वह फिर भी उसके पास आया करता और बच्ची के साथ खेल लिया करता।
इसी बीच भारत आजाद हो गया और पटियाला के उस शासक की भी मृत्यु हो गयी। राजा के हरम में खलबली मच गयी। इतनी सारी महिलाएँ अनाथ हो गयीं। अब उनका क्या होगा! इस असमंजस की अवस्था को आशा शैली ने दृश्यात्मकता के साथ वर्णित किया है। उन सबकी पीड़ा कि नया शासक युवा है। यह क्या फैसला लेगा? और फिर एक दिन फैसला आया भी कि सभी महिलाओं को आजाद कर जो जाना चाहे उसे उनके अपने ठिकानों पर बाइज़्ज़त भेज दिया जाए।
हरम से छोड़ी महिलाओं के लिए समाज में क्या जगह होगी, यह सोचा जा सकता है। कितनों को तो अपने विगत का पता भी नहीं होगा। यह भी कि उनके लिए वहाँ के दरवाजे बंद हो गए होंगे। वे एक दायित्व अथवा बोझ ही तो होती। यहाँ बीरमा उर्फ जसबीर कौर ने अपने साथ के लिए मासी बनी अपनी उस दासी को माँग लिया जो उसे पहले पहल मिली थी। जिसके सान्निध्य में वह वहाँ रह सकी थी। उसका पीछे भी कोई नहीं था। इसलिए उसने उसे समझाया कि पहाड़ में वापस जाकर जीवन कट जाएगा।
वापसी में बीरमा का पटियाला की रानी के रूप में स्वागत हुआ और उसके भाइयों ने उसे अपने एक प्लाट (दोगरी) में बने मकान में जगह दे दी। कितना भोला था वह समाज। कोई फिक्र नहीं। उनकी बहन आ गयी। बस। वह लौट आई थी तो जीविका का सवाल उठा। अपने पास लाया धन और सोना कितने दिन चलना था। वह वहाँ के समाज में विचरने लगी। तभी पता चला कि उसका वह प्रेमी बिस्ना तो उसके वियोग में पगला गया है। वह घर में टिकता ही नहीं। उसका भाई चेत्रु शिमला में किसी अंग्रेज के पास नौकरी करता रहा है।
बीरमा के लौटने और बिस्ना के भाई चेत्रु के माध्यम से आशा शैली ने पहाड़ों में प्रजामण्डल आंदोलन का वर्णन किया है। हिमाचल बना नहीं था। अभी भी इसे
शिमला हिल्स स्टेट के नाम से रामपुर बुशहर रियास्त के रूप में ही जाना जाता था। वह कहती हैं कि चेत्रु शिमला में स्वतंत्रता संग्राम में कूद
गया था। शिमला में वह अब प्रजामण्डल कार्यकर्ताओं के साथ सक्रिय भागीदारी निभा रहा था। उसके कहने पर बीरमा भी पहाड़ी क्षेत्रों में अपनी सेवाएँ
देने लगी।
विगत कभी पीछा नहीं छोड़ता। बीरमा अपने नए जीवन को स्वीकार करते कहती है कि वह पटियाला में रानी जसबीर कौर नम्बर 280 थी। अब न कहीं रानी जसबीर कौर है और न ही बीरमा। न इधर की रही, न उधर की। रानी जसबीर कौर को बीरमा बनने में कई साल लगेंगे। वह अपनी पीड़ा को मासी से अभिव्यक्त करती पूछती है। (पृष्ठ 101) उपन्यास में उसकी इस पीड़ा का बाखूबी चित्रण हुआ है। उसके इलाके में पढ़ा लिखा होने से उसे जनता द्वारा संचालित माध्यमिक पाठशाला में पढ़ाने का आमंत्रण भी मिलता है और वह बड़ी ना नुच के साथ इसे अपनी मुँह बोली मासी दर्शनकौर के समझाने पर स्वीकार करती है।
प्रेम की पीड़ा का वर्णन करते हुए शैली ने बीरमा और बिस्ना के उस बचपन के प्रेम को अभिव्यक्त किया है, जो वन चरांदों में पनपा था। फिर छोटी उम्र
में मंगनी की बात चलने के कारण प्रगाढ़ हो गया था। बिस्ना उसके मन में पटियाला में भी था और वापस गाँव आकर भी वैसा ही है। वह उसे खोजती है।
पूछती है और जब पता चलता है कि वह उसके विछोह में पागल-सा हो गया है तो मानसिक पीड़ा महसूस कर पहले स्वयं को दोषी मानती है। फिर अपनी विवशता को भी महसूस करती है।
एक औरत को समाज में सहारे की आवश्यक्ता होती है। यदि वह स्वयं सक्षम नहीं है तो उसका परिवार चलाने के लिए धन की बड़ी आवश्यक्ता होती है और यदि वह किसान है तो खेतों में हल चलाने आदि के जैसे काम करने के लिए किसी मर्द की जरूरत होती है। यद्यपि ये काम पैसे या अन्य सम्पर्कों से हो जाते हैं
मगर एक युवा स्त्री के लिए ये कठिन भी है। माना जसबीर कौर रानी के रूप में वहाँ सम्मानित है। समाज और भाई उसे स्वीकार कर उसका आदर करते हैं मगर वह कहीं भीतर से टूटी हुई भी है। वह स्थायित्व चाहती है। स्वयं को व्यस्त रखने की कोशिश में वह समाज सेवा और प्रधान के कहने पर पहाड़ों में शिक्षा
के प्रति आई जागरूकता के प्रतिफल छठी कक्षा के छात्रों को पढ़ाने भी लगी है मगर एक अस्थिरता उसके भीतर विद्यमान है। उसे अपनी बेटी गुरप्रीत की
फिक्र भी है। गुरप्रीत राजमहल में पैदा हुई और गाँव के कठोर जीवन में आकर परवरिश पाने लगी। एक टीस उसके भीतर है।
उपन्यास उस समाज के लोगों की सोच और दूसरे विवाह ही नहीं, उसकी बेटी को अपनाने के रिवाज को भी दर्शाता है। यह होता है गाँव के कुछ लोग उसकी माँ
और भाई के साथ उसके पास आते हैं और उसे दूसरे ब्याह के लिए प्रेरित करते हैं। गाँव का एक बुजुर्ग बोला- “देख बीरमा…अब तू पटियाला की रानी नहीं
है और हमारे गाँव में विधवा औरत दूसरी शादी न करे यह कोई नियम नहीं है। बल्कि तुम दोनों के लिए यही ठीक है कि तुम शादी कर लो। (पृष्ठ 157)। यह
प्रस्ताव बिस्ना को लेकर होता है। दोनों एक-दूसरे को देखते हैं और सिर झुकाए बैठे हैं। बड़ी देर के बाद वह कहीं स्वीकार करती है और बिस्ना से मिलती है।
यह वह समय है जब हिमाचल प्रदेश एक राज्य के रूप में उभर गया था। लोग प्रसन्न थे कि अब राजा की बेगार नहीं देनी होगी। वे भी समानता का अधिकार
रख पायेंगे। इसका उल्लास जहाँ सारे क्षेत्र में था, वहीं यह प्रसन्नता दलित वर्ग के लोगों में ज्यादा थी, जो प्राय: सवर्णों द्वारा प्रताड़ित किए जाते रहे थे। सवर्णों की प्रताड़ना का एक वर्णन उपन्यास में दलितों की पीड़ा और आक्रोश के रूप में तब भी आता है, जब पटियाला के शासक के लोग दलितों की लड़कियों को ही उठाकर ले जाते थे। वे कहते भी थे कि दलितों की ही लड़कियाँ क्यों उठाई जाती हैं?
उपन्यास में लोक को उसकी संस्कृति, आचार-व्यवहार के साथ प्रकट करते वहाँ के लोक शब्दों और मेलों और वादी में गाए जाने वाले गीतों का उनके अर्थ के
साथ समावेश कर यह कृति एक आँचलिक कृति भी बन जाती है।
लेखिका ने इस उपन्यास को लिखने की प्रेरणा के बारे में मेरी बात शीर्षक से अपने वक्तव्य में मालती नामक एक प्रौढ़ा का जिक्र करते दीवान जमनादास
की लिखी पुस्तक महाराजा को संदर्भ के रूप में बताया है।
‘छाया देवदार की’ शीर्षक पर कई बार विचार किया। क्या इस प्रेमाख्यान का शीर्षक ऐसा होना चाहिए। कि राजाओं के शोषण का शिकार हुई पहाड़ी युवतियों
के तहस-नहस हुए जीवन को दर्शाती इस कृति को देवदार की छाया शीर्षक दिया जा सकता है? और फिर हिम से आच्छादित पर्वतों की ढलानों पर उगे देवदार के घने जंगलों की छाया और पवन का आभास महसूस कर ऐसा लगा यह सही है। ये देवदारों की हरियाली से सुसज्जित पहाड़ एक शरण्यस्थल भी तो है। इनके साये में जीवन व्यतीत हो सकता है। कापटी गाँव की रिवाजें भी उस लुटी हुई परित्यक्त, शोषित और लौटी हुई गाँव की लड़की को कितने आदर से स्वीकार कर रहा है। यदि यह कोई और समाज होता, जहाँ रूढ़ियाँ विद्यामान होती तो वहाँ उसका जीवन तानों और घृणा से जाने कैसा दुश्वार हो जाता। पर देवदारों के समाज में उसे जो छाया मिली वह उसके जीवन के लिए एक आसरा बनी। मालती तो मर गयी मगर बीरमा बिस्ना के साथ जीवनयापन करने को आगे बढ़ गयी।
समीक्ष्य पुस्तक- छाया देवदार की
विधा- उपन्यास
लेखिका- आशा शैली
प्रकाशक- सिद्धी प्रकाशन, इलाहाबाद
मूल्य- 150 रूपये (पेपरबैक)
– बद्री सिंह भाटिया