स्मृति
पसरी हुई ख़ामोशी में डूबी हुई पुकार जब शाइरी बन के उभरती है तो भारत भूषण पंत कहलाती है
– चाँदनी पाण्डेय
भारत भूषण पंत जी की शाइरी हिंदुस्तान की सरहदों को फाँदकर बाहरी मुल्क की अदबी दुनिया के दिलों पर बरसों से राज करती रही। यह उनकी शाइरी का ही कमाल था कि आम-ओ-ख़ास के साथ-साथ नौजवान से वृद्ध तक उनकी शाइरी के जादू में बंधे नज़र आते रहे।
3 जून, 1958 में जन्मे भारत भूषण पंत, जिन्हें स्नेह और अपनत्व से लोग ‘दादा’ कहा करते रहे, मात्र 61 वर्ष की उम्र में 12 नवम्बर, 2019 को इस मायावी दुनिया को अलविदा कह गये। वे बीमार थे मगर उनके स्वास्थ्य लाभ की पूरी संभावनाएँ बढ़ने लगी थीं कि अचानक मौत के क्रूर व असमय खेल ने उन्हें अपना ग्रास बना लिया। अब अदबी दुनिया में जो एक ख़ला पैदा हुआ है, उसे भरना स्वयं दादा के ही बस का था। यह क्षतिपूर्ति असम्भव है।
आपकी शाइरी आम ज़बान की शाइरी थी, जो ज़ेह्न से होते हुए जज़्बात तक पहुँचती थी और एक ‘खट’ की आवाज़ के साथ अपना असर छोड़ती थी। पढ़ने, सुनने के बाद भी आपकी शाइरी के जादू से आज़ाद होना पाठक के बस की बात नहीं थी।
मोहतरम जनाब वाली यासी साहब के शागिर्द रहे ‘दादा’ ख़ुद एक उस्ताद शाइर थे, जिनके क़दमों में बैठकर बहुत से शागिर्द इस्लाह लिया करते थे। फिलहाल वक़्त में उन्होंने इससे भी इतिश्री कर ली थी और अधिकतर एकांत में ही रहते थे। उनके फेसबुक अपडेट्स से ही उनकी शाइरी और हालचाल मिल रहे थे।
आपकी दो किताबें ‘तन्हाईयाँ कहती हैं’ और ‘बेचेहरगी’ मन्ज़रे-आम पर आ चुकी हैं। एक और किताब, जो इन दोनों किताबों को मिलकर बनी और छपी, उपलब्ध है और उनकी शाइरी की तीसरी किताब ‘कुछ मज़ामी ग़ैब से’ आने वाली थी, जो अब उनकी ग़ैर मौजूदगी में आएगी। भारत भूषण पंत जी लखनऊ के अमीनाबाद में एक को-ऑपरेटिव बैंक में कार्यरत रहे और बाद में वी. आर. एस. ले लिया।
2004 में शरीक़-ए-हयात (पत्नी) को कैंसर हुआ और 2014 में पत्नी ने साथ छोड़ दिया। उनके इंतेक़ाल के बाद ‘दादा’ तक़रीबन एकांतवास में ही रहे, जो उनकी ज़ेह्नी तन्हाई को मज़बूत करता गया, जिसका एहसास उनकी शाइरी से भी होता है। यह अलग बात कि इस दर्द को उन्होंने अवाम के दर्द से जोड़कर शाइरी की।
पसरी हुई ख़ामोशी में डूबी हुई पुकार जब शाइरी बन के उभरती है तो भारत भूषण पंत कहलाती है। यह पुकार उनके जीवन की तकलीफों को भी उजागर करती है और कहीं न कहीं हम उसमें ख़ुद की तकलीफ महसूस करके भी तसल्ली पाते हैं। आपकी शाइरी दर्द के एक गहरे समन्दर की उस तह तक ले जाती है, जहाँ पाठक अपने दर्द को महसूस करता है और आपकी शाइरी की यह ख़ासियत भी आपकी मक़बूलियत का सबब रही। आपने लीक से हटकर शाइरी की और किसी की तक़लीद नही की। आपने अपनी शाइरी को यकसानीयत का शिकार होने से बचाया और शाइरी का एक नया और बड़ा कैनवस तैयार किया। एक ऐसा कैनवस, जहाँ ज़िन्दगी की उलझनें भी हैं और समाधान भी, तन्हाई के कुँए से सदाएँ देतीं शाइरी में रिश्तों के जुड़ाव, घटाव की तकलीफ़ भी है और मुहब्बत को जुनू की हद तक जीने की तसल्ली और फ़िक्रमन्दी का रँग भी इस कैनवस में मौजूद है। दम तोड़ती इंसानियत की दर्दनाक पुकारें भी हैं और ख़ुलूस से हाथ थामे मुहब्बत भी है। ज़रूरतन आपने तख्य्यूल का भी पीछा किया और उसे हक़ीक़त का पैरहन भी दिया। आपके अशआर की बेसाख़्तगी आपके शेरी फ़न को आशकार करती है और इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मौजूदा दौर में इस तरह की शाइरी अब विरले शाइर के यहाँ ही पाई जाती है। सच भी है कि अदब में वही शाइरी ज़िंदा रहती है, जिसमें नज़ाकत-ए-ख़याल के साथ शिद्दत-ए-एहसास भी उसी रफ़्तार से रवा हों, जितनी सादगी, सफाई, अल्फ़ाज़ की नरमी और फ़नकाराना चाबुकदस्ती क़ारफर्मा होती है। आपकी शाइरी आपबीती है, जिसे आप अपनी शेरियत और दिमाग़ की रंगआमेज़ियो का सहारा लेकर जगबीती बना देते हैं। आप ग़म-ए-दौरां से ग़म-ए-जानाँ तक की आहों को शाइरी में नक़्श करने वाले शाइर हैं, जिनकी शाइरी ज़िन्दगी की नाउम्मीदी से ताकत हासिल करती है और नकारात्मकता को सकारात्मकता में तब्दील करती है।
अब जबकि उनकी ज़िंदगी की किताब बन्द हो चुकी है तो अदबी दुनिया के इस बाब को यादगार बनाने के लिए हम सब को एक संजीदा ज़िम्मेदारी की तरफ मुड़ना होगा, जिसके तहत हम उनकी शाइरी को महफ़ूज़ रख सकें। यही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
उनके कुछ अशआर-
वो दर्द भरी चीख़ मैं भूला नहीं अब तक
कहता था कोई बुत मुझे पत्थर से निकालो
ये शख़्स हमें चैन से रहने नहीं देगा
तन्हाइयाँ कहती हैं इसे घर से निकालो
___________________
ख़ुद पर जो एतमाद था झूठा निकल गया
दरिया मेरे क़यास से गहरा निकल गया
शायद बता दिया था किसी ने मेरा पता
मीलों मेरी तलाश में रस्ता निकल गया
अब तो सफ़र का कोई भी मक़सद नहीं रहा
ये क्या हुआ कि पाँव का काँटा निकल गया
___________________
क़रीब आती हर एक शय ने मेरा नज़रिया बदल दिया है
मैं जिसके पीछे पड़ा हुआ था, उसी से पीछा छुड़ा रहा हूँ
मुझे यकीं है इसे जलाकर मैं अपने सब डर मिटा सकूँगा
सो एक कपड़े में रूई भरकर मैं अपना पुतला बना रहा हूँ
___________________
उसी को दिन के उजाले में आऊँगा मैं नज़र
तमाम रात जो देखेगा ख़्वाब करके मुझे
जगह-जगह पे मुड़े हैं कई वरक़ मेरे
किसी ने रोज़ पढ़ा था किताब करके मुझे
मैं इक नशा हूँ उसे पड़ गयी है लत मेरी
हयात पीने लगी है शराब करके मुझे
___________________
अभी तक जो नहीं देखे, वो मंज़र देख लेते हैं
चलो आपस में हम आँखें बदलकर देख लेते हैं
नदी क्या उस किनारे से भी इतनी ख़ूबसूरत है
अगर ऐसा है तो उस पार चलकर देख लेते हैं
___________________
कैसा ख़ौफ़ज़दा इक मंज़र रात मेरे सपने में था
रस्सी का पुल टूट रहा था, मैं आधे रस्ते में था
___________________
बिगड़ चुके हैं मेरे गाँव के तमाम शजर
हवा के साथ भी अब छेड़छाड़ होने लगी
___________________
जिस लम्हे में मेरे अंदर चोर नहीं होता कोई
मुझमें जितने ज़ेवर हैं, सब ख़ुद बाहर आ जाते हैं
___________________
उन्हें मैं अपने जैसा लग रहा हूँ
मेरे पीछे कई पागल पड़े हैं
___________________
काग़ज़ इतना बोसीदा है, छूने से फट जाता है
माज़ी के इस लम्बे ख़त को पढ़ने में डर लगता है
___________________
किस-किस का सामान पड़ा है, सोच रहा हूँ लौटा दूँ
लेकिन इक डर भी लगता है, घर ख़ाली हो जायेगा
___________________
इस तरह तो और भी दीवानगी बढ़ जाएगी
पागलों को पागलों से दूर रहना चाहिये
___________________
अपने अंदर का जंगल भी वर्ना बीहड़ हो जाता है
जब घास बड़ी हो जाये तो ख़ुद आग लगानी पड़ती है
___________________
रात में इश्क़ भी बेबाक हुआ करता है
रात का वक़्त ख़तरनाक हुआ करता है
___________________
तबसे लगता है कोई देख रहा है मुझको
मैंने काग़ज़ पे बना दी थीं किसी की आँखें
___________________
मुहब्बत में नज़रअंदाज़ करना भी ज़रूरी है
ज़ियादा आबयारी से भी पौधा सूख जाता है
(कानपुर निवासी लेखिका चाँदनी पाण्डेय इस दौर की उम्दा ग़ज़लकार हैं।)
– भारत भूषण पन्त