उभरते-स्वर
नज़र किसकी लगी
ये नज़र किसकी लगी
कि सारे नज़ारे बदल गए
हवा ने रुख़ जो बदला
सारे सितारे बदल गए
कि कल तक था
हमारा आशियां दर जिनका
वो आज महलों में बैठे हैं
और हमारे घर तक बदल गए
ख़बर किसको न थी
कि एक दिन वो लौट जाएँगे
दिल पर हमारे
असर वो गहरा छोड़ जाएँगे
पर यकीं नही होता
कि बेवफाई की यूँ इन्तहा होगी
वो पहले ज़ख्म भी देंगे
फिर मुस्कुराकर तड़पता छोड़ जाएँगे।
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मेरे देश का बचपन
सोचती हूँ
क्यूँ मेरे देश का बचपन
आज भी भूखा नंगा रोता है
पूस की ठंडी रातों में
क्यूँ फुटपाथों पर सोता है
चिथड़ों में लिपटा तन उसका
टूकड़ो से पेट वो भरता है
चकाचौंध भरी दुनिया की
चमक-दमक से डरता है
रहता है चुपचाप खड़ा वो
सबकी बातें सुनता है
भरपेट भोजन, तनभर कपड़ों के
सपनों में जालें बुनता है
हर रोज़ सुबह कचरे के ढेर से
टूटे सपनों के टुकड़े वो चुनता है
पाँव में चुभे कंकर
पर आह नहीं वो करता है
अधरों पे उसके क्यूँ
मुस्कान नहीं ठहरती है
सोचती हूँ
क्यूँ मेरे देश का बचपन
आज भी भूखा नंगा रोता है
पूस की ठंडी रातों में
क्यूँ फुटपाथों पर सोता है।
– रितु राज