जो दिल कहे!
नैतिक पतन ~ “जैसा बोओगे, वैसा काटोगे” {As You Sow, so Shall You Reap!}
भारत में बहुत सारी सामाजिक समस्याएँ और कुरीतियाँ है। ये सामाजिक समस्याएँ, सामाजिक भेदभाव इत्यादि आधुनिक भारत में बड़ी मात्रा में पनप रहे हैं। आज वर्तमान समय में भारत की सामाजिक व्यवस्था में सबसे ज्यादा नैतिकता का ह्रास हुआ है। नैतिकता किसी बीते हुए ज़माने की बात लगती है जो पुस्तकों में यदा-कदा पढ़ने को मिल जाया करती है और कुरीतियाँ वे होती है जो पुराने समय से समाज में घर किये हुए हैं।
किसी भी देश की समृद्धि, संस्कृति और सभ्यता को उस देश में उपस्थित नैतिकता के आधार पर मापा जाता है। देश के लोगो में जितनी अधिक नैतिकता होगी वह देश उसी अनुपात में समृद्ध और सुसंस्कृत होगा। अगर समाज में नैतिकता न हो तो देश भी विकृत हो जाता है। लोगो में अच्छे संस्कार और अच्छी सोच नहीं होगी तो समाज बुराइयों के अँधेरे में चला जायेगा। आपसी भाईचारा, शांतिपूर्ण वातावरण, सदभावना एवम् नैतिकता की राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका है। लोग अगर नैतिक व्यवहार नहीं करेंगे तो समाज एक जंगल के समान अव्यवस्थित हो जाएगा। अपराध, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी आदि नैतिकता के अभाव का ही परिणाम है। और अगर इन बुराईयों को न रोका गया और नैतिकता का पतन इसी प्रकार जारी रहा तो देश का पतन भी निश्चित है।
क्या कभी हम गंभीरता से इस बात पर चिंतन करते हैं कि अनायास ऐसी क्या बात हो गयी कि हमारा नैतिक एवं चारित्रिक पतन तेजी से दिखने लगा, अविश्वास की भावना दिलों में घर कर गयी। बुजुर्ग हो चुकी पीढ़ी युवावर्ग पर नित्य प्रत्यारोप लगाती है कि इनके पास नैतिकता नाम की चीज शेष रही ही नहीं….हम लोगों के ज़माने में यह बात नहीं थी जैसे गंभीर आरोप। क्या आज के सामाजिक पतन की सारी जिम्मेवारी सिर्फ युवा वर्ग की ही है, इस प्रत्यारोप से आज प्रौढ़ हो रहा समाज भी अछुता नहीं है। आज क्यूँ नहीं समाजशास्त्री/ मनोवैज्ञानिक/लेखक जैसे प्रबुद्ध वर्ग इन तथ्यों का विश्लेषण कर समाज के सामने सच्चाई को रखने की कोशिश भी कर रहे हैं?
चलिए आज आपको अतीत के पन्नों में ले चलता हूँ, जहाँ नैतिकता के पतन की जड़ें छुपी हुई हैं, जहाँ नैतिक ह्रास पुष्पित और पल्लवित हुआ था और मिथ्यारोप आज की युवा पीढ़ी को झेलनी पड़ रहा है। क्या नैतिकता का ह्रास आज शुरू हुआ है अथवा हमारी पीढ़ी से अर्थात वह वर्ग जो आज प्रौढ़ हो रहा है; जिस पर सीधा आरोप लग रहा है कि इस वर्ग ने ही अपनी अगली पीढ़ी के बच्चों में सही संस्कार के बीज प्रत्यारोपित नहीं किये हैं जिसका परिणाम है आज का बर्बर समाज।
प्रसिद्ध इतिहासकार Robert Wohl ने अपनी एक पुस्तक ‘Generations Of 1914’ में लिखा है कि सन् 1914 में जब पहला विश्वयुद्ध हुआ, तब से नैतिक मूल्यों का अचानक गिरना शुरू हो गया और ऐसा पहले किसी भी ज़माने में नहीं देखा गया और “जिन्होंने भी इस युद्ध को देखा था, वे यकीन नहीं कर सकते कि अगस्त 1914 से संसार का रुख ही बदल गया है।”
प्रसिद्ध इतिहासकार, Norman Cantor कहते हैं: “हर जगह चाल-चलन के बारे में लोगों के स्तर, जो पहले से ही गिरने शुरू हो गए थे, अब पूरी तरह खत्म हो चुके हैं। बड़े-बड़े नेता और सेना के जनरल अपने अधीन लाखों लोगों के साथ इस तरह पेश आए, मानो वे हलाल किए जानेवाले जानवर हों। जब उन्होंने ही ऐसा किया, तो भला धर्म का या सही-गलत का कौन-सा उसूल आम लोगों को हर दिन एक-दूसरे के साथ जानवरों जैसा सलूक करने से रोक सकता है? . . . पहले विश्वयुद्ध (1914-18) में जिस कदर खून की नदियाँ बहायी गयीं, उसकी वजह से इंसान की जान की कीमत एकदम घट गयी।”
अँग्रेज़ इतिहासकार, H G Wells ने अपनी किताब ‘Outline Of History’ में लिखा कि जब से विकासवाद के सिद्धांत को अपनाया गया, तब से “सही मायनों में नैतिक मूल्यों का गिरना शुरू हुआ।” क्यों? क्योंकि कई लोगों का यह मानना था कि इंसान बस ऊँची जाति का जानवर है, और कुछ नहीं। वैल्स ने, जो खुद एक विकासवादी थे, सन् 1920 में लिखा: “लोगों ने तय किया कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, ठीक भारत के शिकारी कुत्तों की तरह। . . . इसलिए उन्हें लगता है कि बड़े-बड़े और ताकतवर लोगों का कमज़ोर और कम दर्जे के लोगों पर धौंस जमाना और उन्हें दबाकर रखना सही है।”
दरअसल, जैसे कैनटर ने बताया, पहले विश्वयुद्ध का लोगों पर इतना बुरा असर हुआ कि उनकी सही-गलत की समझ पूरी तरह बिगड़ गयी। उन्होंने कहा: “राजनीति की बात ले लो या पहनावे की, या फिर लैंगिक संबंध के बारे में उनके रवैए की, हर मामले में पुराने ज़माने के लोगों को सरासर गलत बताया गया है।” उन्होंने विकासवाद के सिद्धांत को बढ़ावा देकर प्राथमिक शिक्षा को ध्वस्त कर दिया और लोगों को युद्ध में हिस्सा लेने के लिए भड़काया।
दो-दो महायुद्ध को झेलने और 1930 की महामंदी से सामाजिक ताना-बाना अस्त-व्यस्त हो गया था और लोगों की आर्थिक एवं मानसिक स्थिति विकृत हो चुकी थी, तब लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी से चले आ रहे सही-गलत के अंतर को मानने के बजाय, अपने मन-मुताबिक व्यवहार करने लगे। John Costello ने अपनी चर्चित पुस्तक love, Sex and War: Changing Values, 1939-45 में लिखा है कि “ऐसा लगता है कि लैंगिकता के मामले में जितने भी नियम थे, उन सभी को युद्ध के दौरान ताक पर रख दिया गया था। मैदाने-जंग में फौजियों को मर्यादा पार करने की जो छूट दी जाती है, वही छूट अब आम लोगों को भी दी जाने लगी। . . . युद्ध की वजह से हर जगह छाए तनाव और सनसनी में, नैतिकता उड़न-छू हो गयी। नतीजा, जिस तरह युद्ध के मैदान में इंसान की ज़िंदगी पल-भर की और दो कौड़ी की मानी जाती है, उसी तरह आम लोगों की ज़िंदगी की भी नैतिकता की कोई कीमत नहीं रही।”
दुसरे विश्वयुद्ध के बाद, Alfred Kinsey की दो बहुत ही चर्चित पुस्तक पाठकों के समक्ष आयी जो Kinsey Report के नाम से ज्यादा जानी गयी— ‘Sexual Behavior in Human Male’(1948) और ‘Sexual Behavior in Human Female’(1953) यह एक प्रकार का सर्वे था जो लगभग 800 पन्नों की थी। इस रिपोर्ट का यह परिणाम हुआ कि समाज में सेक्स के बारे खुलकर चर्चा होने लगी, जितनी पहले कभी नहीं होती थी और नैतिक मूल्यों में अचानक तेजी से ह्रास होना शुरू हो गया और 1960 के दशक आते-आते भारत समेत विश्व के कई देश सीधे और तेज़ी से एक ऐसे गर्त में गिरने लगा जिसे असभ्यता कहा जा सकता है।
इतिहास में 1960 का दशक बहुत ही महत्वपूर्ण रहा है क्यूंकि यह वही दौर था जब ‘नारी मुक्ति आंदोलन’ की चिनगारी फूटी थी। उसके फौरन बाद, लैंगिकता के मामले में एक बड़ी क्रांति आयी। साथ ही एक नए नैतिक मूल्यों की शुरूआत हुई। असरदार गर्भ-निरोधक गोलियाँ ईजाद की गयीं, जिससे इस वजह से स्त्री-पुरुषों के बीच, बिना वैवाहिक-संबंध स्थापित किये, लैंगिक संबंध रखना आम हो गया।
सन् 1970 के दशक के आते-आते, वी.सी.आर. ने गंदी और अश्लील फिल्मों को घरों की चहारदीवारी के भीतर पहुंचा दिया, जिन्हें सार्वजनिक तौर से सिनेमा घर में देखना संभव नहीं था। इसी दौरान, प्रेस, फिल्म निर्माता और टी.वी. का कार्यक्रम बनाने वालों ने भी नैतिकता के मामले में ढील देना शुरू कर दिया। परिणामस्वरूप आज, पूरी दुनिया में सस्ती इन्टरनेट ने लैपटॉप और स्मार्टफोन के जरिये पोर्नोग्राफी को हर व्यक्ति तक सुलभ कर दिया, जिसका परिणाम है आज हर चौथा व्यक्ति अपने व्हात्ट्सएप के माध्यम से पोर्न विडिओ को एक दुसरे के साथ साझा कर रहा है। कुछ अति आधुनिक युवा पीढ़ी अपने बेडरूम सीन तक सोशल मिडिया पर न जाने कैसे डाल देने की हिम्मत कर ले रहे हैं। आज लोग सेक्स करने के अपने अनुभव की इस तरह खुलकर बात करते हैं, मानो वे मेन्यू कार्ड में दिए दोपहर के खाने के बारे में चर्चा कर रहे हों।”
नैतिक मूल्यों के गिरने से जो अंजाम हुए हैं, उन्हें देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लोग अपने उन संस्कारों को भूलते जा रहे हैं, जिन पर समाज टिका हुआ है। इन सारी बातों से साफ ज़ाहिर है कि पिछले कुछ दशकों से दुनिया-भर में नैतिक मूल्यों में बड़ी तेज़ी से गिरावट आयी है। आखिर, इन सारे बदलावों की वजह क्या है? इनके बारे में हम-आप कैसा महसूस करते हैं? और इन बदलावों से भविष्य के बारे में क्या पता चलता है? देश के विकास और सामाजिक खुशहाली के लिए हम सभी को नैतिकता के महत्त्व को समझना होगा और इसे अपने जीवन में अपनाना होगा। हम अपने कर्तव्यों का पालन नैतिकता के साथ करें तो देश के पतन को रोका जा सकता है।
– नीरज कृष्ण