आलेख
निशान्त के काव्य में किसानी जीवन-बोध: डाॅ. दयाराम
हिन्दी में किसानी जीवन पर कविताएँ बहुत कम हैं। इस बात को यूँ भी लिखा जा सकता है कि हिन्दी में किसान कवि बहुत कम हैं, न के बराबर। जो कवि किसानी जीवन पर कुछ कविताएँ लिखते हैं, उन्हें किसानी जीवन का सतही अनुभव होता है। इस प्रकार उनके काव्य में किसानी जीवन की वह गहराई नहीं आ पाती, जो कि आनी चाहिए। यूँ तो पढने-लिखने के लिए प्रत्येक कवि को कृषि कार्य छोड़ना पड़ता है। फिर भी इक्का-दूक्का ऐसे कवि हैं, जिनका पूरा का पूरा परिवार खेती-बाड़ी पर निर्भर होता है और उन्हें खेती-किसानी की फ़िक्र होती है। ऐसे ही एक कम चर्चित कवि निशान्त हैं।
इनकी पृष्ठभूमि पूर्णतया किसानी है। इनका जन्म 1949 ई. में पंजाब के राजस्थान से सटते अबोहर इलाके में हुआ। इनके परिवार की ज़मीन राजस्थान के पल्लू इलाके में भी है। ये बचपन से ही पढाई के साथ कृषि कायों में अपने परिवार की मदद किया करते थे। काॅलेज में पढते हुए भी छुट्टी के समय गाँव-घर आकर खेत में काम करते थे। यद्यपि पढ-लिख कर ये सरकारी अध्यापक हो गए, फिर भी परिवार से जुड़े रहने के कारण किसानी जीवन की दुश्वारियों से परिचित रहे और उस पर काव्य लिखते रहे।
1983 ई. में प्रकाशित इनके प्रथम काव्य संग्रह ‘झुलसा हुआ मैं’ में किसानी जीवन से सबन्धित एक कविता है ‘एक भूमिहीन की व्यथा’
इतनी बड़ी धरती पर
कोई खेत नहीं मेरा
जिसमें मैं
बो दूँ कुछ दाने
और उग पड़े लहलहाती फसल
……………………
लेकिन सुना है
इस देश में
चौधरी, ठाकुर और सेठों के
कुत्ते-बिल्लों और चिड़ियों के नाम से
खेत हैं। (पृष्ठ- 41)
साठ-सत्तर के दशकों में लेंड-सीलिंग की बात खूब चलती थी। उस समय बड़े किसानों ने अपनी ज़मीनें फर्जी नामों पर करवा दी थी। फलस्वरूप भूमिहीन भूमिहीन ही रह गए थे। कवि का खुद का कुनबा इसी प्रकार के शोषण से पीड़ित था। तभी तो इन्होंने एक भूमिहीन की पीड़ा अपनी कविता में प्रकट की।
इनके दूसरे काव्य संग्रह ‘समय बहुत कम है’ में प्रकाशित कविता ‘सीमान्त किसान’ तो किसानी जीवन का पूरा आख्यान है। ‘पहल’ ने इसे लम्बी कविता की संज्ञा देकर छापा था।
उसे बार-बार सुनाया गया
ऊंट बेकार में खाता है
किराये का ट्रैक्टर
मिनटों में खेत जोत जाता है
पैसे नहीं तो
बैंक से उधार लो
साहूकार-बनिये के शोषण से
बचाने के नाम पर
उसे कर्जायती बने रहने के लिए
हिलाया गया
फसल की कोई
गारन्टी नहीं थी
आंधी-ओलों से फसल मरी तो
मुआवजा अव्वल तो दिया नहीं गया
और दिया भी गया तो
आधा बीच में ही डकार गए। (पृष्ठ 64/65)
कृषि कार्य में औरतों का बहुत बड़ा योगदान रहता है। पढे-लिखे समाज में कामकाजी महिलाओं का चलन तो अब बढा है। लेकिन खेती-किसानी के कार्यों में औरतों का दखल तो वर्षों से रहा है। वे खेतों में भी काम करती हैं और घर का सारा कार्य भी निपटाती हैं। खेती-किसानी में नारी जीवन कैसा है, इसका चित्रण इनके तीसरे काव्य संग्रह ‘ख़ुश हुए हम भी’ में प्रकाशित ‘बहू का पुरस्कार’ में हुआ है।
गोर-निछोर बहू
बहुत अंधेरे
सबसे पहले उठती रही
……….
उसने नीरा-चारा
बाड़े-पशुओं को
थापे उपले
…………
सास की मर्जी
उससे पानी भरवाती
कपड़े धुलवाती या भेजती खेत जल्दी
……….मर्द!
मर्द आगे की बजाय
औरत को आगे लगाता
………….
सांझ के काम
अंधेरे में ही करती
दूहना-जमाना
बर्तन मांजना (पृष्ठ- 35)
इसी काव्य संग्रह में ‘गाँव के समाचार’ कविता में किसानी जीवन की त्रासदी यूँ बयां है-
हाड़ी की नहीं हुई थी बिजाई
सावणी हो गई है
पानी मार
खेती-किसानी में लगे श्रमिकों का जीवन कैसा है, इसका चित्रण इनके चौथे काव्य संग्रह ‘बात तो है जब’ में यूँ है-
दिन भर खटे खेत में
सांझ हुई घर जाना है
चुना-बिना जो दिन भर
उसे उठाकर भी
ले जाना है
………….
सरल हुई ज़िंदगी सबकी
नई सदी में भी अपना तो
वही हाल पुराना है (पृष्ठ- 65)
इस संग्रह की पहली कविता ‘संगीत सुनें’ किसानी जीवन का संगीत है। (पृष्ठ 9) इस संग्रह के पृष्ठ 66 पर प्रकाशित लम्बी कविता ‘रखवाला’ भी किसानी जीवन पर है।
निशान्त की किसानी जीवन से सबन्धित कुछ कविताएँ ऐसी भी हैं, जो पत्रिकाओं में तो छपी लेकिन किसी संग्रह में नहीं आ पाई। ‘अलाव’ में छपी उनकी कविता ‘बारिश की देरी पर’ किसान की दुविधा का ज़िक्र यूँ है-
तुम्हारे न आने से
एक तो खेतों में
अन्न नहीं होगा
…………
भूख जादा लगेगी
ठाले बैठों की उमस में
दिन कटाई भी मुश्किल होगी
हमारा एक-एक पल
आँसू के घूँट पीकर गुजरेगा
किसानी जीवन से सबन्धित इनकी कई कविताएँ ‘कृति ओर’ में छपी थी। एक कविता थी,
बीच कटाई: बीच कटाई
छांटें आई
खुश हुई ननद-भोजाई
मैले तन की
लत्ते की
हो गई धुलाई
……………..
बुजुर्गो को खली
काम हरजाई
‘कृति ओर’ में छपने वाली अन्य कविताएँ थीं, ‘कार्तिक में किसान’, ‘जीवट’ और ‘कपास’। ‘कपास’ एक लम्बी कविता है, जिसमें कपास पैदा करने वाले किसानों की दुश्वारियों का मार्मिक चित्रण हुआ है। उपरोक्त कविताएँ पूरी की पूरी किसानी जीवन-बोध की हैं। वैसे निशान्त का सारा काव्य ही किसानी और ग्रामीण संस्कृति से निसृत है।
– डॉ. दयाराम