आलेख
निशान्त कृत ‘बात तो है जब’ की वैचारिक पृष्ठभूमि
– डाॅ. दयाराम
समकालीन कवि जिनकी कविताएँ जीवन को विविध आयामों के रूप में चित्रांकन करती है, इनमें एक चिरपरिचित कवि का नाम है- निशान्त। कवि निशान्त राजस्थान के पीलीबंगा, ज़िला हनुमानगढ़ कस्बे में विगत चार दशक से रचनाकर्म में संलग्न हैं। कवि निशान्त की अब तक ‘झुलसा हुआ मैं’, ‘समय बहुत कम है’, ‘खुश हुए हम भी’, ‘मृत्यु भय’, ‘ज़िन्दगी के टेढे़ मोड़’ (कविता संग्रह), ‘अलग-थलग ज़िन्दगी’ (गद्य विविध संग्रह), ‘शौक भगवान बनने का’ (व्यंग्य संग्रह), ‘पाँच बाल कहानियाँ’, धंवर पछै सूरज’, ‘आसोज मांय मेह’ (राजस्थानी कविता संग्रह) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कवि-कथाकार निशान्त अपनी सृजना के साथ समकालीन साहित्य में प्रमुख हस्ताक्षर हैं। निशान्त का ‘बात तो है जब’ बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित नवीन कविता-संग्रह है। इसमें कुल बहत्तर कविताएँ सम्मिलित हैं, जिनकी भावभूमि कथ्य और आधार समकालीन जीवन परिवेश पर आदृत है।
कविता-संग्रह ‘बात तो है जब’ का मूल स्वर शोषित, पीड़ित मजदूरों-किसानों के दुःख, दर्द के साथ है। कवि अपनी प्रगतिशील दृष्टि से समाज में फैली आर्थिक विषमता को पहचानता है और मानव-मानव के मध्य युगों से स्थापित अन्तर को समसामयिक परिवेश के साथ चित्रित करता है। निशान्त की एक कविता है-‘रखवाला’, जिसमें गाँव के खेत में रखवाली करने वाले आदमी की हैसियत पालतू कुत्ते से अधिक नहीं है। यह समाज में उच्च वर्ग द्वारा शोषित मानव का यथार्थ चित्र है-
चौधरी के गेहूँ के तो बाड़ लगी है
अच्छे-खासे तारों की
फिर कोई पशु भी नहीं
आते इतनी दूर तो
हाँ! है यह बात भी
फिर भी मालिक ने जहाँ कह दिया
कि बैठ जाओ/ वहाँ बैठे हैं
बस मौज-मस्ती है
हाँ! सचमुच ही
उसकी आँखों में चमक थी
ऐसी ही/ जैसे होती है
किसी बंधेल कुत्ते की।1
मानव की स्थिति पालतु कुत्ते जैसी होना पूँजीवादी युग का सत्य है। इस युग में अमीर पूर्णमासी के चन्द्रमा की तरह खिल रहा है जबकि ग़रीब की भूख ही तृप्त नहीं होती हैं। अजगर की तरह पूँजीवादी व्यवस्थाएं तमाम सुविधााओं को निगल रही हैं। ऐसी स्थिति में ‘एक सर्वहारा की प्रार्थना’ कविता हमारी समूची व्यवस्थाओं को धत्ता देकर हृदय को झकझोर देती है-
मेरे मचलते हाथों को
मिलता रहे काम
पचती रहे
प्याज-रोटी
और हाँ! भगवान
अगर तुम कहीं हो
एक काम और भी करना
कुछ मुश्किलें
उन्हें भी देना
ताकि ध्यान बंटे
और बची रहे मेरी
झोंपड़ी और इज्जत। 2
कवि निशान्त की संवेदना मिट्टी व गारे से सने छोटे घरों वाले लोगों के साथ है। उन्हें बड़े घर संवेदन रिक्त दिखते हैं जबकि छोटे घरों में उठता हुआ धुआँ मानवता के जीवन-राग अलापता प्रतीत होता है। कविता-संग्रह की ‘काम से है रोटी’, ‘काम पर जा रहे लोग’, ‘जगह और जगह’, ‘चले जाना एक पक्षधर का, ‘वह कम्पाउडर’, ‘हारे हुए लोग’ आदि कविताएँ इसी भावभूमि पर आधारित सामाजिक बोध की कविताएँ हैं।
निशान्त की दृष्टि आज की फैशनपरस्ती पर भी पड़ती है। इस फैशन संस्कृति में उन्हें श्रम व मेहनत का मूल्य ही अच्छा लगता है। कोरे दिखावे और झुठे स्वांग कवि को कतई पसन्द नहीं है। ‘मेरे मुहल्ले की स्त्रियाँ’ कविता समाज के ठुकराये वर्ग विशेष का समर्थन करते हुए संभवतः यही कहती हैं-
शरणस्थली है यह बस्ती उनकी
जो ठुकराए हुए हैं
लौटते हुए घर को
रास्ते में मिली है मुझे
पसीने से नहाई
लकड़ी और घास बीनकर आई
औरतें
जिन्हें देखकर
सोचता हूँ मैं
गंगा स्नान से लौटी स्त्रियों से
किस माने में कम हैं
ये मेरे मुहल्ले की स्त्रियाँ। 3
इसी तरह संग्रह में नारी-शोषण विरोधी गूंज सुनाई देती है। कवि स्त्री-शक्ति को पहचान कर उसे पुरुष होने की प्रक्रिया में शामिल करता है। निशान्त का यह नवीन प्रयोग है। ‘द्रोपदियाँ’ कविता इसका सशक्त प्रमाण है-
‘ब्यावली’ एक बार
ससुराल भी गई
लेकिन वहाँ की क्रूरताएँ देखकर
लौट आई
पुरुषों जैसा भेष धरा
और द्रोपदी से
द्रोपदिया हो गई 4
इक्कीसवीं सदी में अर्थ संस्कृति के प्रभुत्व से मानवता भौतिक संसाधनों के मध्य संघर्षशील है। वैश्वीकरण की होड़ और मल्टीनेशनल्स के आगमन से सबकुछ बड़ा हो रहा है, बस इंसान छोटा हो रहा है-
बड़े-बड़े काॅम्पलेक्स
बड़े-बड़े राजनेता
बड़े-बड़े पण्डाल
बड़े-बड़े गुरुजी
हो रहा है बड़ा गाँव भी
छोटा रह गया बस
इंसान। 5
इन्सान की लघुता को भी भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद निगलने को उतावला हो रहा है। बाज़ारवाद के आगे असहाय होते मानव के करुण चित्र को कवि उकेरता है-
मैं सफल होता भी कैसे
दुनिया जिसमें वे
घूमते-फिरते थे
सजा हुआ था
भटकाव का
आकर्षक बाज़ार 6
यथार्थ है कि मानव का धर्म, कर्म, चरित्र सब कुछ बाज़ार की गिरफ्त में है। निशान्त अनुभूत करते हैं कि ये सुख, संपत्ति, ऐश्वर्य के साधन मानव को गुलाम बनाने के औज़ार हैं। ‘गुलाम बनाने वाले’ कविता इसी स्थिति को इंगित करती है-
बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियाँ
और बड़े-बड़े ‘माल्स’
लगाने वाले ये जो
खरीद रहे हैं हमारी ज़मीनें
हमें गुलाम बनाकर छोड़ेंगे 7
वैश्वीकरण के इस दौर में गुलामी से मुक्ति का उपाय भी निशान्त की कविताएँ बराबर खोजती है। व्यवस्था को बदलने के लिए विरोध, क्रोध व आंदोलन का होना आवश्यक है कवि की तटस्थ दृष्टि अन्ना हजारे के आंदोलन से ‘सिद्ध हुआ’ कविता में जुड़ती है-
एक निकले
अन्ना हजारे
क्रान्ति पथ पर तो
करोड़ों-करोड़
निकल पड़े
……………….
कोई करने वाला हो तो
बहुत कुछ हो सकता है
इस देश में। 8
कवि निशान्त मूलतः गंवई संवेदना के कवि हैं। गाँव की गंध, रंग उनके काव्य में रची बसी हैं ‘कोई नहीं जाता उधर’, ‘गाँव पर लिखते हुए’, ‘गेहूँ के खेत’, ‘मिठास भी’, ‘खेतीहर का गीत’, ‘रखवाला’, ‘मेरा जनपद’ आदि कविताएं गाँव की मिट्टी से जुड़ी हैं। गाँव की संस्कृति, सादगी, सरलता कवि को लुभाती है, इसलिए उन्हें तमाम विरोधों से मुक्त जनपद अत्यन्त प्रिय है। गाँव के खिले खेत कवि को अपनी ओर अनायास ही खींचते हैं और उनकी दुधिया मिठास हृदय को प्रफुल्लित कर देती है। उतर आधुनिकता के युग में गाँवों में महानगरों जैसी व्यवस्ता कड़वड़ाहट पैदा कर रही है। आदमी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में इतना संवदेनहीन होता जा रहा है कि अपनों के साथ आत्मीयता के दो बोल बोलने का समय नहीं है उसके पास।आधुनिकता की अंधी दौड़ और पाश्चात्य संस्कृति का रंगीन धुआँ; गाँव को निगल रहा है। ऐसे माहौल में समय और समाज, स्थानीयता से जुड़ी ये कविताएँ व्यापक मानवीय सरोकारों से जुड़ने वाली चिन्ताओं की कविताएँ हैं। दरअस्ल चिन्ताओं से निराशा अवश्य उपजती है लेकिन कविता-संग्रह की ‘संगीत सुने’ जैसी लोकधर्मी कविताएँ निरन्तर संवेदनाओं को जाग्रत करती हुई; मानव जाति में आशा का संचार करने वाली हैं। यथा-
आओ! संगीत सुनें
चलती चक्की का
संगीत सुनें
झाडू का संगीत सुनें
बिलौने का संगीत सुनें
संगीत सुने
धुलते कपड़ों की
थप! थप! का 9
समकालीन परिवेश की राजनीति में भ्रष्टता, नेताओं की स्वार्थ व सत्ता लिप्सा हावी है। कविता-संग्रह की ‘कर्मचारी’, ‘सत्ता लिप्सा’, ‘जीवन के स्तर’, ‘बात तो है जब’ और ‘चुनावी हिंसा’ कविताएँ विविध राजनीतिक विसंगतियों का पर्दाफाश करती हैं। देश की समस्याओं को गौण करके विपक्ष द्वारा सरकार गिराने का निर्णय इसी परिप्रेक्ष्य में है-
महँगाई
बेरोजगारी
शोषण
और भ्रष्टाचार का तो
ताँडव मचा था
फिर भी विपक्ष ने
संकल्प लिया
सिर्फ
सत्तारुढ़ दल को
उखाड़ने का। 10
प्रस्तुत काव्य-संग्रह की ‘भगवान के भाव’, ‘श्राद्ध’, ‘बेचारे हनुमान जी’, ‘एक आवाज़’, ‘निआशा’ आदि कविताएँ हास्य-व्यंग्य के माध्यम से सस्ती धार्मिकता व धर्म की आड़ में पनपते कुकृत्यों का विरोध करती हैं। इसी क्रम में कविता-संग्रह में विविध रंग व रूप बिखरे हुए हैं। ‘भगत सिंह के भगत’ में राष्ट्रीयता का कोरा दिखावा, ‘बच्चाः नौ कविताएं’ में बालकों के मन के उल्लास व खुशी के चित्र, ‘पर्यावरणः चार कविताएं’ में पर्यावरण चेतना और ‘चौमासे के दिन’, ‘मुझ में’ व ‘बसंत के रंग’ में प्रकृति प्रेम का चित्रण स्तरीय रूप में हुआ है।
निश्चय ही, निशान्त की कविताएँ समाज व आदमी से जुड़ी कविताएँ हैं। इनमें मानव जीवन के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आदि विविध परिवेशों का यथार्थ चित्रांकन करते हुए कवि ने मानव हृदय में छायी जड़ता को तोड़ने का सूत्रपात किया है। संक्षेप में समय तथा समाज के सभी आवश्यक मुद्दों को सहज, सरल काव्य भाषा के माध्यम से उजागर करने की दृष्टि से ‘बात तो है जब’ कविता-संग्रह में संकलित कविताएँ सफल हैं।
सन्दर्भ-
1. बात तो है जब, निशान्त, बोधि प्रकाशन, जयपुर, पृं.- 68
2. वही, पृ.- 52
3. वही, पृ.- 72
4. वही, पृ.- 33
5. वही, पृ.- 25
6. वही, पृ.- 22
7. वही, पृ.- 90
8. वही, पृ.- 91
9. वही, पृ.- 09
10. वही, पृ.- 64
– डॉ. दयाराम