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निशान्त की कविता में ग्रामीण जीवन के विविध आयाम: दयाराम
समकालीन कवि जिनकी कविताएं ग्रामीण जीवन का विविध आयामों के रूप में चित्रांकन करती है, इनमें एक चिरपरिचित कवि का नाम है-निशान्त। कवि निशान्त राजस्थान के पीलीबंगा, जिला हनुमानगढ़ कस्बे में लगभग 45 वर्षों से काव्य लेखन कर रहे हैं। उनके चार कविता-संग्रह ‘झुलसा हुआ मैं’, ‘समय बहुत कम है’, ‘खुश हुए हम भी’ तथा ‘बात तो है जब’, दो कहानी-संग्रह ‘मृत्यु भय’ व ‘जि़न्दगी के टेढ़े मोड़’ और ‘अलग-थलग जि़न्दगी’ (गद्य विविध संग्रह), ‘शौक भगवान बनने का’ (व्यंग्य संग्रह) ‘पाँच बाल कहानियां’ ‘धंवर पछै सूरज’ ‘आसौज मांय मेह’ (राजस्थानी कविता संग्रह) साहित्य जगत में वैचारिक सरोकारों के साथ आये हैं। कवि निशान्त के व्यक्तित्व और कृतित्व को ग्रामीण परिवेश ने विशिष्टता व गहनता प्रदान की है। उनके काव्य में गाँव, खेत-खलिहान, ऋतुएं, मौसम, गली-मौहल्ले, बच्चे, गृहिणियां, स्कूल, मेले, तीज-त्योहार, चौपाल आदि का सांगोपांग चित्रण मिलता है। इन विविध प्रसंगों के जीवन्त चित्रण का यथार्थ देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि निशान्त और उनकी कविता गंवई जीवन-रस से सराबोर है। इतना ही नहीं निशान्त की कविता ग्रामीण जीवन की भाव-सुलभता की तरह सपाटबयानी से घटित घटनाओं के कथ्य धरातल पर महकती हुई, बिना किसी दुराव-छिपाव के आती है।
कवि का जीवन-सत्य गाँव और गाँव का जीवन है। क्योंकि निशान्त का अधिकांश जीवन ग्रामीण संस्कृति से जुड़ा रहा है और यही गाँव शब्द-चित्रों के माध्यम से कल्पनामयी होकर कागज पर उतरा है। कवि साफ शब्दों में ‘कोई नहीं जाता उधर’ कविता में कहते हैं- “मैं अक्सर/पकड़ा करता हूँ/ खेतों के छोटे रास्ते।”1 ये छोटे रास्ते गाँव के खेतों के ही हैं। इन रास्तों पर किसान परिवार एक टक देखता है। “ढाणी में खड़ा/ किसान परिवार/ जिसने ताका अचरज से कि/ कोई है /जो आता है/इधर भी।”2
यह छोटी-सी घटना दृष्य बिम्ब के रूप में उभरती है, जिसमें कवि और किसान के हृदय में गंवई संवेदना, अपनत्व व समानता के बीज अंकुरित होते दिखाई देते हैं। इन बीजों का पोषण लोकजीवन से निरन्तर होता है। ‘बात तो है जब’ काव्य-संग्रह की प्रथम कविता ‘संगीत सुनें’ एक गहरी पुकार के साथ आज के मानव को गाँव की चक्की, झाडू, बिलौने, टोके, खाती की ऐरण, हथौड़े, फावड़े, रांपी आदि का संगीत सुनाती है। यह संगीत मात्र संगीत नहीं, बल्कि गाँव की मिट्टी का प्रेम व लगाव है जो सीधा लोकजीवन से जुड़ता है- “संगीत सुनें/ धुलते कपड़ों की/ थप! थप! का/ कुत्तर करते/ टोके की/ कट! कट! का/ जमीन काटते/ फावडे़ का/ कपड़ा बुनती खड्डी का/ संगीत सुनें/ आओ! संगीत सुनें!”3 इसी कड़ी में गाँव की औरतों का संगीत जीवन-राग है, जिसमें वर्ष भर के उत्सव, त्यौहार, एक राग में मधुर तान से जुड़ते चले आते हैं, जो मानव जीवन की जड़ता, कुण्ठा, अवसाद को तोड़कर मानवीय सरोकारों की स्थापना करते हैं- “गाँव की औरतों के साथ/ मां सींचती-पूजती थी/ पीपल/ मनाती थी/ छोटे से छोटा त्यौहार भी/ पूरे चाव से”4 दरअसल यहाँ माँ ग्रामीण संस्कृति का प्रतीक बनकर उभरती है। यह प्रतीक कवि को रफ़्ता-रफ़्ता बचपन की धुंधली यादों में ले जाता है। जहाँ गाँव का सुकून भरा पड़ा है- “कुएं के चौतरे पर बैठ कर/ बनाए हमने गीली मिट्टी के खिलौने/ किशोर होते-होते/ उसकी डालों पर डाले हिंडोले/ मस्त हो चराई भैंसे-गायें/ रस लिया बातों का/ खाती की खतोड़ में/ खेला कुरां-डंडा/ गुल्ली-डंडा/घुच्ची-दड़ी/शक्कर भीजी/ विस्मय से देखी/ जोहड़े की पाळ पर उतरी/ गाडि़ये लुहारों की जिन्दगी/ चांदनी में नहाएं/ खेलते आंख मिचौनी।”5 उक्त चित्र गंवई संवदेना से सिक्त हैं, जिनमें जीवन की गति है। किन्तु समय के साथ गाँव की चौपालें, चौपालों पर ताश खेलते हुए बुज़ुर्ग, कोडि़यों के पासे फेंकते हुए व हुक्के का कश खींचते हुए लोग आज एक स्वप्न बन चुके हैं। चारोेें तरफ आपा-धापी मची है। ऐसे भयावह माहौल में कवि निशान्त को गाँव की गंध याद आती है-
“देखी सवारी गणगोर की
खेला फाग गांव भर के संग
संबंध कितने मधुर थे
चाचा-चाची/ ताया-ताई/ भाई-भाभी/
के रिश्ते सब को मन्जूर थे
विश्वास था इतना कि
कोई मारने आएगा तो
सारा गांव सर पर छा जाएगा”6
सूचना क्रान्ति के दौड़ते रथों ने गाँव की पृष्ठभूमि को पूर्णतः बदल दिया है। गाँव दिनो-दिन शहर हो गये हैं- “इधर मेरे गांव में भी/लोग हो गए हैं/ कार और कोठी वाले/ ट्रैक्टरों और मोटरसाइकिलों की/ तो गिनती ही क्या“7 वैश्वीकरण की अंधी दौड़ और बाजारवाद की गिरफ्त से गाँव अछूता नहीं रहा है। गाँव के त्यौहार, रीति-रिवाज, परम्पराएं आदि पर विदेशी-संस्कृति का रंगीन पर्दा गिर रहा है। लोकजीवन से अपनत्व, स्नेह और ममत्व जैसे संबंधों में शहरीपन और अर्थवादी सोच उत्पन्न होने लगी है। मानव की अर्थवादी मानसिकता से उसका धर्म, कर्म, चरित्र सब कुछ अर्थ केन्द्रीत हो चुका है। रिश्तों की मिठास में पैसों की अकड़ का प्रवेश वास्तव में दयनीय स्थिति का संकेत है। ऐसे में गाँव और गाँव का जीवन बोझा बन गया है- “कहने को गांव/हो आता हूं/ लेकिन वास्तव में/ गांव के एक कोने में/ रात काट आता हूँ।”8 दरअसल रात को काटना, विवशता का संकेत है। इससे स्पष्ट होता है कि मानव शहरी हवा के आगे गाँव को दुत्कार चुका है। ग्रामीण बंधन महज़ उसे कच्चे धागे की तरह लगते हैं जिनसे वह सदैव मुक्ति की कामना करता है। उसका एक ही स्वप्न है- स्वच्छंदता और व्यक्तिवाद। इसी कारण वह गाँव के लोग और गाँव को गंवारू समझने लगा है।
गाँवों में आज भी आर्थिक अभावों की मार झेलते लोग हैं तो दबे-कुचले और शोषित हैं। नये युग की आधुनिकता इन्हें कतई विकास के पथ पर नहीं लाई है। आधुनिकता के नाम पर इनको खूब छला गया है-
“सिर्फ रूड़ी-कूरड़ी की खाद से
फसल मुनाफा नहीं देगी
यूरिया डालो/ स्प्रे करो
पैसे नहीं तो
बैंक से उधार लो (कम रेट का लालच दिया गया)
इस प्रकार/ साहूकार बनिये के शोषण से
बचाने के नाम पर/ हिलाया गया
यानी मदद के नाम पर उसे
मीठा ज़हर दिया गया”9
इस मीठे जहर को गाँवों के किसान निगलते रहे और साहुकार अपनी तोंद का इजाफा करते रहेे। गाँव के भोले-भाले लोगों के स्वप्न दिन-रात टूटते रहे हैं। ऐसे स्वार्थी वातावरण में इन्हें छलावे के अलावा कुछ नहीं मिला है। निशान्त की ‘रखवाला’ कविता इस यथार्थ की सशक्त अभिव्यक्ति है- “एक पेड़ पर/ धूना लगाए/ कम्बल ओढ़े/ बैठा था एक मजदूर…………….फिर भी मालिक ने जहां कह दिया/ कि बैठ जाओ/ वहाँ बैठे हैं/ बस मौज-मस्ती है/ हाँ! सचमुच ही/ उसकी आँखों में चमक थी/ ऐसी ही/ जैसी होती है/ किसी बंधेल कुत्ते की।”10
निशान्त को गाँवों के विघटन की पीड़ा भी सालती है। आधुनिक मानव की व्यष्टि भावना से संयुक्त परिवार बिखरे हैं। गाँवों में त्यौहारों की मस्ती, राजा-रानी की कहानियां, बुजुर्गों का सान्निध्य, महिलाओं के गीत, रीति-रिवाज आदि कवि के स्मृति पटल पर आते हैं- “प्रत्येक रस्म-रिवाज के गीत/ बड़प्पन के साथ-साथ/ मान-तान था उसका/ सारे गांव में/ इन गीतों के लिए/ यूं आज सालों बाद/ करते हुए मां को याद/ मुझे लगता है कि/ मां ग्रामीण संस्कृति का/ प्रतीक थी”11
वर्तमान परिवेश में वैज्ञानिक संसाधनों ने मानव को चहारदीवारी में कैद कर दिया है। उसी चहारदीवार में उसकी सुख-दुःख की अनुभूतियां, हँसी-खुशी का वातावरण उत्पन्न भी होता है और समाप्त भी होता है। उसकी संवेदना इन दीर्घकाय दीवारों को लांघने में कमजोर पड़ती दिखाई देती है। यथार्थ है कि मानव अपनों के बीच ही अजनबी की भूमिका में आ गया है। उसकी यह भूमिका सांस्कृतिक संकट का संकेत है। कवि निशान्त एक-दूसरे में अपनी पहचान गंवा चुके मानव के पक्ष में खड़ा होकर भौतिक संसाधनों की खुशहाली को एकदम अस्वीकार कर देता है-
“बदलाव की चकाचैंध में
मेरी आँखें चुंधिया जाती हैं
कलेजा मुंह को आता है
बे-मौत मरने को
जी चाहता है
इस बढ़ी हुई खुशहाली में”12
सत्य है कि खुशहाली के संसाधनों ने गाँवों में भौतिक संसाधनों की भरमार पैदा कर दी है। कवि इन भौतिक संसाधनों के मध्य अपनी जमीनी पहचान को खोजता नजर आता है। गैस चुल्हे को अस्वीकार कर लकड़ी के चुल्हे व उससे उठने वाले धुएँ को आनन्द का कोश मानना इसी का प्रमाण है- “धुआँ उठ रहा है/ दाल-भात/ उत्सव के लिए कोई पकवान/ या पशुओं का चाटा-बांटा”13
यथार्थ है कि गांवो में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हुई है। राजनीति का प्रवेश गाँवों के लिए जातीय विभाजन का आधार भी बना है। सब-कुछ बिखरा-बिखरा सा दिखाई दे रहा है। ऐसे जलते समय में साहित्यकार का दायित्व बढ़ जाता है। उसे संस्कृति और कुसंस्कृति के मध्य अन्तर स्थापित कर सांस्कृतिक परम्पराओं में प्राण फूँकने का कार्य करना पड़ता है। एक सशक्त व प्रगतिशील साहित्यकार अपनी भूमिका महत्ता के साथ अदा करता है। वह युवा पीढ़ी के समक्ष मूल्य-संस्कारों के बीज बोने तक सीमित नहीं रहता बल्कि अपनी लेखनी से उनका पोषण भी करता है। उक्त सन्दर्भों में कवि निशान्त के हृदय की संवेदना, उनकी विचार शक्ति और उनकी कविताएं सफलता के सोपान पर नज़र आती हैं। निशान्त की कविताएं ग्रामीण जीवन की समस्याओं का यथार्थ बखान कर चुप्पी साधने वाली नहीं हैं, बल्कि पाठक के हृदय को झकझोर कर, उसमें समस्या के हल को प्रतिस्थापित करने वाली प्राणशक्ति है।
सन्दर्भ-
1. बात तो है जब, निशान्त, बोधि प्रकाशन, जयपुर, पृं. 11
2. वही, पृ. 12
3. वही, पृ. 9
4. खुश हुए हम भी, निशान्त, आदर्श प्रकाशन मंदिर, बीकानेर, पृ. 17
5. वही, पृ. 22
6. वही, पृ. 24
7. समय बहुत कम है, निशान्त, आधुनिक प्रकाशन, बीकानेर, पृ. 76
8. खुश हुए हम भी, निशान्त, आदर्श प्रकाशन मंदिर, बीकानेर, पृ. 30
9. समय बहुत कम है, निशान्त, आधुनिक प्रकाशन, बीकानेर, पृ. 64-65
10. बात तो है जब, निशान्त, बोधि प्रकाशन, जयपुर, पृ. 67-68
11. खुश हुए हम भी, निशान्त, आदर्श प्रकाशन मंदिर, बीकानेर, पृ. 17
12. समय बहुत कम है, निशान्त, आधुनिक प्रकाशन, बीकानेर, पृ. 76-77
13. बात तो है जब, निशान्त, बोधि प्रकाशन, जयपुर, पृ. 20
– डॉ. दयाराम