रचना-समीक्षा
निराशारूपी अंधकार में आशारूपी दीपक जलाता कवि: आज़र ख़ान
रामदरश मिश्र जी ने अपनी एक कविता ‘कवि’ में कवि के गुणों का बखान किया है। विलियम वर्ड्सवर्थ ने कहा है कि “कविता कवि के उत्कट भावों का सहज उद्रेग है।” ये भाव कवि में अंतर्मन में कभी भी किसी भी समय प्रकट हो सकते हैं। कवि एक ऐसा असाधारण व्यक्ति होता है जो सदैव अपनी धुन में मस्त रहता है। कभी तो वह हवाओं से बातें करने लगता है, कभी उसके कान में ही कही गई बात को वह नहीं सुनता है, कवि ऐसा व्यक्ति होता है जो भीड़ में अकेला हो सकता है और अकेले में वह बात कर सकता है। वह हमेशा अँधेरे में रौशनी को खोजने का प्रयास करता रहता है।
संसार में अनगिनत लोग ऐसे हैं जो दुखों के बोझ में दबे हैं। कवि भी उनमें से ही एक व्यक्ति होता है, जो हमेशा दुखों की मार सहता है और अंततः उन्हें कविता के माध्यम से व्यक्त करता है। कविता के लिए कहा भी गया है कि ‘दिल में दर्द को जगह दे ऐ अकबर इल्म से शायरी नहीं होती’ कह सकते हैं कि जिसने दुखों का सामना नहीं किया, वह कभी एक अच्छा कवि नहीं बन सकता। इसी कारण कवि को दूसरों के दुःखों की भी अनुभूति होती है। हजारों दुखों को लेकर मनुष्य ज़िंदगी जीता है। ‘कंगाली की कड़ी धूप में’ इस पंक्ति से भाव गरीबी का है। निम्न वर्ग में जीवन यापन करने वाले मनुष्य, जिनके पास कुछ भी नहीं होता है, वे भी इस मिथ्या जगत में जीवन को जीते हैं।
एक बेसहारा व्यक्ति को सहारा देने के बजाय उस पर कितने ही लोग हंसने वाले होते हैं। जगह-जगह पर ऐसे निर्दयी, दूसरों पर हंसने वाले लोग दिख जाते हैं, लेकिन इन बेसहारा लोगों के लिए कवि सहानुभति रखकर उसके लिए आँसू बहता है। संसार में एक तरफ वो लोग है जो खा पीकर, अच्छा पहनकर फिर तब बचता है उसे फेंक देते हैं, ना जाने कितने जलसे, मज्लिशें, शादी बारातें आदि में ना जाने कितना ही खाना और बेकार की चीज़ें कबाड़ के रूप में फेंक दी जाती हैं, लेकिन एक तरफ ऐसे भी लोग हैं जो खाने को तरसते हैं, पहनने का ख्वाब देखते हैं। उनकी आँखों से निकलने वाले आँसू बरसात की तरह बहते हैं।
गलियों, सड़कों या फिर मलबों के नीचे दबकर मरने वालों के दर्द का अहसास कवि की आँखों के सामने घूमता रहता है।
चलने वाली हवा भी ज़ख्म देती है, नदियों में बहता पानी भी खौफ देता है। इन परिस्थितियों से अवगत होकर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे चारों ओर कभी न ख़त्म होने वाला अँधेरा फ़ैल गया है। लेकिन कवि को अभी ऐसा विश्वास है कि अभी बहुत बचा हुआ, उसकी आँखों में आशा की किरण है। वह सपनो में इसी आशा को खोजता रहता है और इस अन्धकार को ख़त्म करने के लिए नए-नए उजास रुपी शब्दों को चुपचाप धुनता रहता है।
कविता-
आवाज़ों के कोलाहल में भी
तू कुछ गुनता रहता है
सन्नाटे में भी ना जाने
क्या-क्या तू सुनता रहता है
गठरी-मोटरी लाद दुखों की
ज़िंदगियाँ चलती रहती हैं
कंगाली की कड़ी धूप में
वे नंगी जलती रहती हैं
हँसता रहता आसमान
अपनी निर्दयता का सुख लेकर
उनके लिए आंसुओं से तू
छायाएँ बुनता रहता है
फैला आती है कबाड़
धन-मदमाते जलसों की रातें
कितने ही टूटे बसंत
कितनी-कितनी रोती बरसातें
मलबों के भीतर रह-रह
कुछ दर्द फड़फड़ाते-से लगते
अपनी पलकों से प्रभात में
तू उनको चुनता रहता है!
ज़ख़्मी-ज़ख़्मी हवा घूमती
डरा-डरा-सा बहता पानी
लगता है, यह समय हो गया
तम की एक अशेष कहानी
नहीं, बहुत कुछ अभी शेष है
तेरे सपनों से धुनि आती
तेरे शब्दों का उजास, तम को
चुप-चुप धुनता रहता है!
रामदरश मिश्र
– आज़र ख़ान