आलेख
निराला की कविताओं में प्रेम की प्रगतिशीलता : मीना कुमारी
प्रेम में डूबने और गहराई तक जाकर उसका रसपान करने की चाहत सबके हृदय में उठती है, जैसा कि अनुभव से अभी तक हमने जाना है, परन्तु प्रेम को इस चाहत के अनुसार प्राप्त करने की जितनी अधिक क्षमता और जितनी अधिक संभावना एक कवि में देखी जा सकती है…किसी और में दिखाई देना मुश्किल ही है | वैसे कहा तो यह भी जाता है कि नैसर्गिक रूप से प्रेम करने वाला प्रत्येक व्यक्ति या तो एक बड़ा दार्शनिक होता है या फिर एक बड़ा कवि | पर सवाल यह भी है कि इस संसार में प्रेम करते कितने हैं? कौन हैं वे जो प्रेम करते हैं और क्यों करते हैं? वे जो प्रेम करते हैं या जिन्हें प्रेम होने का भ्रम होता है, क्या उसके स्वरूप या अस्तित्त्व की पहचान करने की समझ उनमें विकसित हो पाती है? अपने समय का प्रेम को लेकर यह एक बड़ा सवाल है | इस सवाल से जूझने का साहस कबीर ने भी किया था, मीरा ने भी किया था | बाजार में खड़े होकर सबके ‘खैर’ की दुआ मांगना कबीर का प्रेम की पराकाष्ठा पर पहुँचना था तो हरि-प्रेम में मगन होकर संसार के जड़-चेतन में कृष्ण की मूर्ति देखते हुए समाज-विशेष के प्रचलित मानदंडो को नकारते हुए मीरा का घर- विहीन हो जाना प्रेम के अस्तित्त्व को बचाए रखने का ही साहस था |
कवि निराला का प्रेम इन दोनों स्थितियों के बीच का प्रेम है | कहीं गहरे में जाकर समझने का प्रयत्न करें तो कबीर और मीरा दोनों का व्यक्तित्त्व निराला में एक समान रूप से दिखाई दे सकता है | जहां कवि व्यक्तिगत अनुभूतियों को स्व की स्मृति में जीता है अथवा जीने की परिकल्पना करना चाहता है वहाँ मीरा की सी प्रेम विह्वलता नजर आने लगती है| मीरा को सांवरिया-मिलन के इंतजार का जो आनंद होता है निराला में वही आनंद उलाहना का रूप ले लेता है | यहाँ और इस स्थिति में कवि कह उठता है—यथा
महकी साड़ी
जैसे फुलवाड़ी
रत्नों के फूल जड़े
लता चढ़ी जड़ पकड़े
लहरी पछियायी
नहरों की खाड़ी;
जैसे जोबन
दुहरे-दुहरे बदन
आँखों में साख भरी
लाखों पर राख पड़ी
अनहारी खड़ीलड़ी
हाथ के जतन
तुम्हारी हवा से सोये
तम्हारी हवा से जागे
वे कह जो गये कल आने को
सखि बीत गए कितने कल्पों |1
‘तुम्हारी हवा से’ सोने और ‘तुम्हारी हवा से’ जागने की स्थिति प्रेम के उस समय की स्थिति होती है जब व्यक्ति-हृदय अपना सर्वस्व प्रियतम को समर्पित कर चुका होता है | समर्पण का यह भाव एक हद तक दिखावा भी हो सकता है पर दिखावे की प्रवृत्ति का पोषक हृदय प्रिय-इंतजार में ‘कितने कल्पों’ बीत जाने की बात विल्कुल भी नहीं करेगा | यहाँ वह चयन और विकल्प का तरीका भी तो अपना सकता है; लेकिन ऐसा कदम वही उठा सकता है जिसके पास विकल्प और चयन की सुविधा हो | जब इस चराचर संसार में उस एक प्रियतम के सिवाय दूसरे किसी के अस्तित्त्व की विश्वास ही न हो और उसी के संसर्ग में अपना सम्पूर्ण जीवन-यापन करने करने की उसकी अपनी प्रतिबद्धता हो, भले ही इस मार्ग में आगे बढ़ने से लोग-जन नाराज हो जाएँ, सुख समृद्धियाँ मुंह मोड़ लें, वह एक उसी का था, उसी का है और उसी का रहते हुए अपना सम्पूर्ण जीवन जी लेना चाहता है—यथा
कुछ न हुआ, न हो |
मुझे विश्व का सुख, श्री, यदि केवल
पास तुम रहो | और यह भी कि
सुख का दिन डूबे डूब जाय
तुमसे न सहज मन ऊब जाय
उलटी गति सीधी हो न भले,
प्रति जन की दाल गले न गले,
टाले न बान यह कभी टले,
यह जान जाय तो खूब जाय |2
बहुत से कवि या आलोचक इन पंक्तियों को देखते हुए कवि निराला के निजी जीवन की परिकल्पना करने लगते हैं; ऐसी स्थिति में उन्हें इस बात का भी ख्याल नहीं रहता कि प्रेम के ये कसीदे मात्र प्रिय-मिलन के क्षणों की रंगरेलियां मनाए जाने के वर्णन भर नहीं हैं अपितु आत्मा के, जो सांसारिक उलझाओं में आकर स्वयं के अस्तित्त्व को ही विस्मृत कर चुका होता है, परमात्मा के साथ एकाकार होने के अनुपमेय क्षण हैं | कवि इन क्षणों को विल्कुल भी विस्मृत नहीं करना चाहता क्योंकि वह मानता है और स्वीकार भी करता है—यथा,
मरा हूँ हजार मरण
पायी तब चरण-शरण |3
हजारों मरण की प्रक्रिया से गुजरते हुए चरण-शरण प्राप्त होने की स्थिति-बोध को स्वीकार करने वाला हृदय मीरा का ही हृदय हो सकता है और उसके बाद कवि निराला का | मीरा को प्रेम को लेकर और इस एक मात्र सत्य को स्वीकारने की स्थिति में जो दुःख भोगना पड़ता है, जिन यातनाओं को सहना पड़ता है वही दुःख और वही यातनाएं कवि निराला के भी जीवन की कहानी हैं | यहाँ कवि व्यक्तिगत अनुभूति से गुजरते हुए भव-भूमि की यथार्थता को व्यंजित करता हुआ चलता दिखाई देता है इसलिए उसके अनुभव-जगत् (जहां प्रेम केंद्र में है) की स्थितियों को देखा और समझा जा सकता है लेकिन जहां कवि सामाजिक अनुभवों को जीता और देखता है वहाँ इसकी दृष्टि कबीर का रूप ले लेती है | जो निराला अपने कवि-कर्म के प्रति यह उद्घोष करता दिखाई देता था “मैनें ‘मैं’ शैली अपनायी” वही निराला ‘मैं’ की अनुभूति-प्रक्रिया से बाहर निकलकर जनसामान्य के सुख-दुःख, वेदना-संवेदना, आशा-आकांक्षा का साक्षात्कार करने लगता है | ‘भिक्षु’, और ‘मजदूर स्त्री’ की दयनीय दशा का बोध निराला को अपने इसी साक्षात्कार के माध्यम से होता है | यहाँ कवि प्रचलित छायावादी मान्यताओं से ऊपर उठकर जन-सामान्य की यथार्थ स्थिति को देखने का प्रयत्न करता है और यह उसके मानव-प्रेम के प्रति सामाजिक सहभागी प्रवृत्ति का सबसे सुन्दर रूप उभर कर आता है—वह उसी प्रेम के वशीभूत होकर यह कहते हुए समय-समाज की विसंगतियों को उद्घाटित करता है—यथा,
कोई न छायादार
पेड़ वह
जिसके तले बैठी हुई, स्वीकार,
श्याम तन, भर बंधा-यौवन,
नत नयन, प्रिय कर्मरत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ, करती बार-बार प्रहार;
सामने तरुमालिका अट्टालिका, प्रकार !4
यहाँ यह भी देखा और समझा जा सकता है कि कबीर जिस नारी को माया की संगिनी और ‘नरक की खान’ कहकर संबोधित करते हैं निराला उसी नारी की यथार्थ वेदना को जन-सामान्य के समक्ष प्रस्तुत करते हैं | सवाल दृष्टि का है और जनधर्मिता का है तो निराला कबीर से भी प्रगतिशील दिखाई देते हैं | यह इसलिए भी क्योंकि वे समाज में श्रम को महत्त्व देते हैं | श्रम के लिए आवाहन सभी जातियों एवं धर्मों के लोगों का करते हैं-यथा ,
जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ, आओ, आओ |
आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला,
धोबी, पासी, चमार, तेली
खोलेंगे अँधेरे का ताला,
एक पाठ पढेंगे, टाट बिछाओ |”5
जो बातें मानवीय प्रेम में कबीर अध्यात्म को माध्यम बनाकर कहते हैं वही बातें कवि निराला यथार्थ धरातल पर उतरकर सबको साक्षी बनाकर, सबको संबोधित करते हुए कहते हैं |
‘गुलाब’, जो निराला के यहाँ शोषक वर्ग के रूप में प्रतीक बनकर उभरता है, से ‘कुकुरमुत्ता’, जो निराला के यहाँ पद-दलित और शोषित वर्ग का प्रतिनिधित्त्व करता हुआ दिखाई देता है, यथार्थतः यह कबीर-दृष्टि का ही परिचायक था और निराला के व्यक्तिगत जीवन से उठकर सामाजिक जीवन की विसंगतियों को देखते-भोगते उसमे सुधार की आकांक्षा को साकार रूप देना था | साकार रूप देने की प्रतिबद्धता का ही परिणाम था कि तत्कालीन शासन-सत्ता के साथ-साथ शासक-वर्ग को पोषने और उन्हें उतसाहित करने वाले नियंताओं को भी ‘कुकुरमुत्ता’ के माध्यम से बेनकाब करते हैं—और यह कहते हुए पाए जाते हैं—यथा,
और अपने से उगा मैं
बिना दाने का चुगा मैं
कलम मेरा नहीं लगता
मेरा जीवन आप जगता
काम मुझसे ही सधा है
शेर भी मुझसे गधा है
चीन में मेरी नक़ल, छाता बना
छत्र भारत का वही, कैसा तना
सब जगह तू देख ले
आज का फिर रूप पैराशूट ले |”6
निराला अपने जीवन में विद्रोही थे यह सभी कहते हुए पाए जाते हैं परन्तु इनका विरोध व्यक्तिगत स्वार्थ-हित को साधने का विद्रोह नहीं था | इनका विद्रोह सच्चे अर्थों में सामाजिक सुधार की भावना से लसित था | शांति श्रीवास्तव के शब्दों में कहें तो कहा जा सकता है-“जो अपनी भाग्य-रेखा को खण्डित कर सकता है उसके लिए सामाजिक नियमों को खंडित कर देना कैसे असंभव हो सकता है | जिसने व्यक्तिगत जीवन में कभी अनीति को प्रश्रय नहीं दिया वह सामाजिक अनीतियों को कैसे सहन कर सकता है | दैविक, भौतिक और सामाजिक सब आपत्तियां कवि के सामने झुक गयी लेकिन वह स्वयं किसी के सामने नहीं झुका | दैवीय विपत्ति को स्मृति की शांति से दूर किया, भौतिक अभाव को धर्म की शीतल छाया में शांत किया तथा सामाजिक बंधनों को अपने पौरुष से ध्वस्त कर दिया | स्वयं लग्न का मंत्र पढ़ पंडित जी की महत्ता पर प्रश्नवाची चिह्न लगा दिया तथा बिना बारात बुलाए व्याह रचाकर मिथ्या व्यय के सामाजिक अंधविश्वासों पर कुठाराघात किया |”7 ऐसा व्यक्तित्त्व निःसंकोच मानवीय प्रेम का प्रचारक हो सकता है संहारक नहीं | पोषक हो सकता है पर शोषक नहीं | कवि निराला का काव्य मानवीय प्रेम का सहज, स्वाभाविक, संवेग है |
सन्दर्भ सूची-
1. द्रष्टव्य, श्रीवास्तव, परमानन्द, निराला, नई दिल्ली : साहित्य अकादमी, 2006, पृष्ठ-41-42
2. द्रष्टव्य, श्रीवास्तव, परमानन्द, निराला, नई दिल्ली : साहित्य अकादमी, 2006, पृष्ठ-37
3. द्रष्टव्य, श्रीवास्तव, परमानन्द, निराला, नई दिल्ली : साहित्य अकादमी, 2006,
4. द्रष्टव्य-सिंह, बच्चन, निराला का काव्य, पंचकूला : आधार प्रकाशन , 2005, पृष्ठ-104-105
5. द्रष्टव्य, श्रीवास्तव, परमानन्द, निराला, नई दिल्ली : साहित्य अकादमी, 2006, पृष्ठ-32
6. द्रष्टव्य, श्रीवास्तव, परमानन्द, निराला, नई दिल्ली : साहित्य अकादमी, 2006, पृष्ठ-61
7. श्रीवास्तव, डॉ० कुमारी शांति, छायावादी काव्य एवं निराला, कानपुर, ग्रंथम प्रकाशन : 1966, पृष्ठ-178
– मीना कुमारी