स्मृति
निदा फ़ाज़ली
8 फरवरी 2016 को हम सबसे ज़ाहिरी तौर पर विदा हुए निदा फ़ाज़ली साहब की 8 फरवरी 2017 को पहली पुण्यतिथि थी, लेकिन वे अपनी रचनाओं के ज़रिये हमेशा हमारे दिलों में ज़िन्दा रहेंगे। उनकी विराट शख्सियत को ‘हस्ताक्षर’ परिवार की ओर से नमन एवं श्रद्धांजलि!
उनकी बेहतरीन रचनाओं में से कुछ हमारे पाठकों के लिए-
बेसन की सोंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका-बासन, चिमटा फुकनी जैसी माँ
बाँस की खुर्री खाट के ऊपर, हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी, थकी दुपहरी जैसी माँ
चिड़ियों के चहकार में गूंजे, राधा-मोहन अली-अली
मुर्ग़े की आवाज़ से खुलती, घर की कुंडी जैसी माँ
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन, थोड़ी-थोड़ी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर, चलती नटनी जैसी माँ
बाँट के अपना चेहरा, माथा, आँखें जाने कहाँ गई
फटे पुराने इक अलबम में, चंचल लड़की जैसी माँ
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मुँह की बात सुने हर कोई, दिल के दर्द को जाने कौन
आवाज़ों के बाज़ारों में, ख़ामोशी पहचाने कौन
सदियों-सदियों वही तमाशा, रस्ता-रस्ता लम्बी खोज
लेकिन जब हम मिल जाते हैं, खो जाता है जाने कौन
जाने क्या-क्या बोल रहा था, सरहद, प्यार, किताबें, ख़ून
कल मेरी नींदों में छुपकर, जाग रहा था जाने कौन
मैं उसकी परछाई हूँ या, वो मेरा आईना है
मेरे ही घर में रहता है, मेरे जैसा जाने कौन
किरन-किरन अलसाता सूरज, पलक-पलक खुलती नींदें
धीमे-धीमे बिखर रहा है, ज़र्रा-ज़र्रा जाने कौन।
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दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही
चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखें
ज़िन्दगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही
इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही
फ़ासला चाँद बना देता है हर पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही
शहर में सब को कहाँ मिलती है रोने की फ़ुरसत
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसाने से रही
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मैं अपने इख़्तियार में हूँ भी नहीं भी हूँ
दुनिया के कारोबार में हूँ भी नहीं भी हूँ
तेरी ही जुस्तुजू में लगा है कभी कभी
मैं तेरे इंतिज़ार में हूँ भी नहीं भी हूँ
फ़हरिस्त मरने वालों की क़ातिल के पास है
मैं अपने ही मज़ार में हूँ भी नहीं भी हूँ
औरों के साथ ऐसा कोई मसअला नहीं
इक मैं ही इस दयार में हूँ भी नहीं भी हूँ
मुझसे ही है हर एक सियासत का ऐतबार
फिर भी किसी शुमार में हूँ भी नहीं भी हूँ
– टीम हस्ताक्षर