उभरते स्वर
विश्व वेदना कलप रही आतंक के गलियारों में,
कैसा ये खेल हैं मनुज खेल रहा हथियारों में।
चारों तरफ है बेबसी पाषाणों-सा ये खेल हुआ,
संवेदना तो लुप्त हुई षड्यन्त्रों का बस मेल हुआ।।
बच्चे-बुड्ढ़े बने निशान मासूमों का संहार हुआ,
कोई न जान सके क्यों कैसे ऐसा हाल हुआ।
हैवान मानो हँस रहा कहकहे लगाता हैं दानव,
ये कैसा युग आया नरभक्षी नर को भक्ष रहा।
आतंक की कोई ज़ात नहीं न है इसका ईमान,
बस जिहाद के नाम पर शैतान बना करते हैं।
फैला हैं जो रक्त यहाँ उसकी कोई पहचान नहीं,
हिन्दू हो या हो मुस्लिम होती कोई पहचान नहीं।
ख़ुद वहशी हँस रहा खड़ा घमंड में चूर है,
वो जाने तो जान ले कल उसका भी ये हश्र है।
आज वो हथियार से खेल रहा है पाखंडी,
कल हथियार खेलेगा तुझसे तू ये वहशी जान ले।
विश्व को तूने सदा आतंक के गंदे खेल से लूटा,
अब बारी हैं तेरी मानवता देख सके तो देख ले।
नीच तू तो गिरा हुआ पहले ही इंसानियत से,
अब क्या तू मुहँ दिखायेगा रब के इम्तिहान में।
शोषित करके तू क्या समझा तेरी ये बिसात हैं,
आगे आकर देख ज़रा किसकी शह और मात है।
हे दरिंदे! अब तू देख तेरी दरिंदगी का क्या ईनाम है,
तुझसे तेरे अपने दूर हुए ये तेरी सज़ा का ऐलान हैं।।
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हैं आस तेरे आने की प्रतिपल,
नित यादों का लेकर दर्पण।
मैं बाट जोहती पल-पल,
तुझसे फिर मिल पाने की।
हैं आस तेरे आने की प्रतिपल।।
आता नित यादों का मौसम,
रिमझिम ले तेरी बाहर।
दिल का कोना-कोना करता,
तुझसे न जाने क्यों प्यार।
है आस तेरे आने की प्रतिपल।।
पतझड़ तू अब जल्दी जा,
बैरन बसंत को आने दे।
मेरी आँखों के ख़्वाबों को,
नूतन स्वप्न अब सजाने दे।
है आस तेरे आने की प्रतिपल।।
नव गीत अब अधर में आये,
इन्हें साज बन जाने दे।
कब से राहें देख रही हूँ
आँखों को दीप जलाने दे।
है आस तेरे आने की प्रतिपल।।
– आकांक्षा द्विवेदी