उभरते स्वर
नारी
पीड़ा को रखती है उर में
सुख-दु:ख में स्थिर रहती है
सहती पल-पल, कर्मठ निश-दिन
कुल की मर्यादा रखती है
विषम काल में भी स्मित
हर कष्ट-वेदना पी जाती है
पर-हित पर अर्पित हो, फिर से
दुर्गम पथ पर चल देती है
आसन्न हो अति उच्च पदों पर
शक्ति, अधिकारों से संपन्न
संयत कदम, अडिग निश्चय से
जग को गर्वित कर देती है
किंचित पुनर्विचार करो
दर्प-दंभ, अभिमान तजो
सृष्टि की पूरक, निर्मात्री
धात्री का सम्मान करो!
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बस ये अपराध किया मैंने
जीने की चाहत में ख़ुद को, क्या-क्या सिखा दिया मैंने,
तनहा गुज़रे लम्हों को ही जीवन बना लिया मैंने।
बस ये अपराध किया मैंने।
यादों के कुछ ताने-बाने, नम पलकों के सपन सलोने,
आशाओं की मृगतृष्णा में, सब कुछ भुला दिया मैंने।
बस ये अपराध किया मैंने।
मन का पंछी उड़ा गगन में, पंख कटे और गिरा धरा पे,
फिर से उसमें प्राण फूँक, अम्बर पर चढ़ा दिया मैंने।
बस ये अपराध किया मैंने।
दिल की बात कहूँ तो कैसे? श्रोता हूँ बस, वक़्ता नहीं,
मन में उठते उद्गारों को, अन्तस् में दबा लिया मैंने।
बस ये अपराध किया मैंने।
कुछ ख़ुशी मिले मन को, तन का ऐसा श्रृंगार किया मैंने,
काँटों को ही फूल समझ, वेणी में सज़ा लिया मैंने।
बस ये अपराध किया मैंने।
ज़ख़्मों को उपहार जान, संजो कर रखा है दिल में,
बार-बार टूटे रिश्तों को, फिर सम्मान दिया मैंने।
बस ये अपराध किया मैंने।
किसी राह पर कभी किसी ने, रुक कर पूछा हाल मेरा,
होंठों पर मुस्कान दिखा, आँसू को छिपा लिया मैंने।
बस ये अपराध किया मैंने।
अपने ही हाथों, अपने मूल्यों का ह्रास किया मैंने,
ध्वस्त हुए अवशेषों में, नवयुग आह्वान सुना मैंने।
बस ये अपराध किया मैंने।
झूठे वादे कर ख़ुद से, ख़ुद को ही दग़ा दिया मैंने,
इन्सां को भगवान बना, मन्दिर में बिठा दिया मैंने।
बस ये अपराध किया मैंने।
– सुभाषिणी विश्नोई