छन्द-संसार
नारी पर दोहे
खुशियों का गेरू लगा, रखती घर को लीप।
नारी रंग गुलाल है, दीवाली का दीप।।
खुशियों को रखती सँजो, ज्यों मोती को सीप।
नारी बंदनवार है, नारी संध्या दीप।।
नारी, नारी का नहीं, देती आयी साथ।
शायद उसका इसलिए, रिक्त रहा है हाथ।।
तार-तार होती रही, फिर भी बनी सितार।
नारी ने हर पीर सह, बाँटा केवल प्यार।।
पायल ही बेड़ी बनी, कैसी है तकदीर।
नारी का क़िरदार बस, फ्रेम जड़ी तस्वीर।।
सृष्टि नहीं नारी बिना, यही जगत आधार।
नारी के हर रूप की, महिमा बड़ी अपार।।
जिस घर में होता नहीं, नारी का सम्मान।
देवी पूजन व्यर्थ है, व्यर्थ वहाँ सब दान।।
लक्ष्मी, दुर्गा, शारदा, सब नारी के रूप।
देवी-सी गरिमा मिले, नारी जन्म अनूप।।
कठिन परिस्थिति में सदा, लेती ख़ुद को ढाल।
नारी इक बहती नदी, जीवन करे निहाल।।
है सावित्री-सी सती, बनती पति की ढाल।
पतिव्रत नारी सामने, घुटने टेके काल।।
नारी मूरत त्याग की, प्रेम दया की खान।
करना जीवन में सदा, नारी का सम्मान।।
नारी को अबला समझ, मत कर भारी भूल।
नारी इस संसार में, जीवन का है मूल।।
सूना है नारी बिना, सारा यह संसार।
वह मकान को घर करे, देकर अपना प्यार।।
नारी तू अबला नहीं, स्वयं शक्ति पहचान।
अपने हक़ को लड़ स्वयं, तब होगा उत्थान।।
क्यूँ नारी लाचार है, लुटती क्यूँ है लाज।
क्या पुरुषत्व विहीन ही, हुई धरा ये आज।।
बेटी को नित कोख में, मार रहा संसार।
ऐसे में कैसे मने, राखी का त्योहार।।
बेटी हरसिंगार है, बेटी लाल गुलाब।
बेटी से हैं महकते, दो-दो घर के ख़्वाब।।
तितली-सी उन्मुक्त है, बेटी की परवाज़।
किंतु कहाँ वह जानती, उपवन के सब राज।।
– गरिमा सक्सेना