उभरते-स्वर
नारी
जो तुम्हें बयां कर सके नारी
वो शब्द कहाँ से लाऊँ
जो तेरी परिभाषा को
एक शब्द में पीरों सके
वो शब्द कहाँ से लाऊँ
तुम्हें सृष्टि कहूँ में या
कहूँ जीवन का आधार
तुम्हें समर्पण कहूँ या
कहूँ मेरी पहचान
वो शब्द कहाँ से लाऊँ
तुम्हें विधाता की एक
ख़ूबसरत रचना कहूँ मैं
या कहूँ स्वयं की रचियता
तुम्हें हृदय का हर्ष कहूँ
या कहूँ अपनत्व की मूरत
वो शब्द कहाँ से लाऊँ
तुम्हें वेद कहूँ मैं या
कहूँ तुम्हें पुराण मैं
तुम्हें गीता कहूँ मैं या
कहूँ मैं तुम्हें पूरा ब्रह्माण्ड
जो तुम्हें बयां कर सके नारी
वो शब्द कहाँ से लाऊँ
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अन्याय
मैं इस देश का न्याय हूँ
और मेरे ही साथ अन्याय हो रहा है
मेरी ही वजह से तुम हो
तुम्हारा अस्तित्व मुझसे है
तुम्हारी पहचान मुझसे है
जहाँ हमारा सम्मान होना चाहिए
आज हमारा अपमान हो रहा है
मैं इस देश का न्याय हूँ
और मेरे ही साथ अन्याय हो रहा है
जिस मंदिर में देवी को पूजा जाता है
उसी मंदिर की चोखट पर या
झाड़ियों में मुझे फेंक दिया जाता है
धर्म और ग्रन्थों में मान दिया जाता है
तो दूसरी तरफ़
अख़बारों में मेरी इज़्ज़त को
हर रोज़ उछाला जाता है
मैं इस देश का न्याय हूँ
और मेरे ही साथ अन्याय हो रहा है
जिस नारी को करना चाहिए नमन
उसी का आज हो रहा दमन
जिस्म तो नोच नोच कर खा ही चुके हैं
पर रूह तक को नहीं छोड़ा तुमने
दरिंदगी की हद तो पार के ही चुके हो
अब कहाँ जाकर न्याय दिलाऊँ ख़ुद को
मैं इस देश का न्याय हूँ
और मेरे ही साथ अन्याय हो रहा है
– जया वैष्णव