नाटक
नाटक- राधिका के सपने
प्रस्तावना
यह नाटक हमारे समाज में जब एक बेटी का जन्म होता है तब से लेकर अपनी पूरी जिंदगी के सफ़र में वो किस तरह अपने सपनो का त्याग अपने परिवार के लिए करती है। पर कहीं न कहीं उसके सपने उसे एहसास दिलाते है की उसका भी अपना कोई अस्तित्व है, अपने प्रति उसकी कोई जिम्मेदारी है । इस नाटक को लिखते वख़्त किरदारों के साथ पूरी ईमानदारी करने की कोशिश की गई है ।
पात्र परिचय:
1-सूत्रधार
2-राधिका
3-सौरभ
4-रमा – राधिका की माँ
5- विद्याचंद्र ,- राधिका के पिता
6-शीला – राधिका की सास
7- नुपुर – राधिका की टीचर
दृश्य- 1
सूत्रधार
औरत कहीं कमजोर नहीं
वो तो ऐसी शक्ति है ।
अपनी पर जो आजाए
ब्रह्ममांड हिला सकती है ।
पर औरत अपनी मर्यादा
जी जान से सहेज कर रखती है ।
गर बात हो उसके अस्तित्व की
वो दुनिया से भी लड़ सकती है ।
औरत कही कमजोर नहीं
वो तो ऐसी शक्ति है ।
छोटा सा शहर……………
एक छोटा सा शहर ऋषिकेश जो अपने आप में एक इतिहास समेटे है । शांत गंगा नदी के तट पर बसा छोटा सा एक प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर नगर । जहाँ पर लोग पूजा पाठ , दान पूण्य कर के एक सीधा सा जीवन जीते हैं वही पर रहता था विद्याचंद्र जी का परिवार छोटा पर सुखी विद्याचंद्र जी एक प्राइवेट कंपनी में क्लर्क , उनकी पत्नी रमा सरकारी स्कुल में प्रधियापिका बेटा और बेटी से भरपूर । पत्नी आदर्श विचारो की महिला और संस्कार से भरपूर परिवार ।
विधा ….अरे ओ रमा सुबह की चाय तो साथ पिया करो ।
रमा ( अंदर से जबाब देती है ) अजी सुबह सुबह आपके साथ चाय पीने लगूँ तो काम कैसे होगा , स्कुल भी जाना होता है आप तो जानते हो ।
विद्या – अरे भाग्यवान कुछ वख़्त इस नाचीज़ के लिए भी निकाल लिया कर ( और मुस्कराने लगते हैं )
रमा – हाथ में चाय का पियाला ) आप भी न कभी कभी बिल्कुल बच्चे बन जाते हो ।
राधिका — माँ कितने बज गए है? ( राधिका आँखों को मलते हुए आती है ) माँ आज तो देर हो गई मुझे तो स्कुल जल्दी पहुँचना था ।
रमा – क्यों कुछ ख़ास है क्या ?
राधिका –हां , माँ आज से 15 अगस्त की तैयारी शुरू हो रही है और आप तो जानती हो जहाँ राधिका नहीं वहाँ कुछ नहीं
( और शरारती बच्चों की तरह हंसने लगती है )
रमा–( राधिका की इस हरकत पर मुस्कराती है ) अच्छा अब जल्दी तैयार हो , मैं नाश्ता लगाती हूँ इतनी बड़ी हो गई पर बच्चपना नहीं गया ।
राधिका ( तैयार होते हुए गुनगुनाती है ) चाँद सितारों से हम उसकी मांग सजाएंगे दुल्हन सा प्यारा देश बनाएँगे ।
और इस तरह विद्या चंद्र जी के घर की सुबह एक प्यार भरी नोक झोक से शुरू होती है ।
दृश्य 2
राधिका – गुड़ मार्निग मैंम ।
टीचर — गुडमार्निंग राधिका , अरे हां राधिका आज स्कुल के कार्यक्रम के लिए चयन प्रक्रियाएं शुरू करनी है । इसलिए प्रार्थना सभा में सब को सूचित कर देना ।
राधिका – जी मैम ।
( प्रार्थना सभा का दृश्य )
राधिका स्टेज पर आकर बिद्यार्थियों को सूचित करती है । प्रिय साथियों जैसा की आप सब लोग जानते हो 15 अगस्त के उपलक्ष्य में हमारे विद्यालय में रंगा रंग कार्यक्रम होते है परन्तु इस बार कुछ अच्छे कार्यक्रमों का चयन देहरादून में होने वाली प्रतियोगिताओं के लिए होगा अतः आप में से जो विद्यार्थी भाग लेना चाहते है वो स्कुल समाप्ति के बाद हाल में एकत्रित हो जाए ।
सूत्रधार — देवियो और सज्जनों राधिका — एक किरदार जो स्कुल से लेकर कालेज तक विद्यार्थायों और टीचर के लिए एक अहम् भूमिका रखता है सबको उससे बहुत उम्मीद हैं ।
विद्या चंद्र उनके लिए तो राधिका उनका अस्तित्व है जिसमें वो अपने सपनों को पूरा करने का इन्तजार करते हैं ।
विद्या चंद्र जी जहाँ पिता और पुत्री हैं वहीँ वो दोनों एक दूसरे से हर मुद्दे पर खुल कर बहस करते हैं ।
विद्या चंद्र — बेटा , कांग्रेस सरकार के राज्य में बहुत विकास हुआ है , बाकी सरकार तो आती जाती रहती हैं पर यह एक स्थिर सरकार है ।
राधिका — पापा सरकार चाहे किसी की हो बात तो तब है जब राष्ट्र के हित में कार्य करे गरीब लोंगो के विकास के बारे में सोचे । पर आज हर नेता सिर्फ अपनी कुर्सी को सुरक्षित करने में लगा है ।
विद्या चंद्र — नहीं बेटा ऐसा बिलकुल नहीं है , कुछ लोग बुरे होते हैं पर सब नहीं ।
रमा — आप दोनों हर वख़्त एक मुद्दे पर बहस क्यों करते हो आप लोगों के पास कोई काम नहीं
राधिका — माँ तुम नहीं समझोगी क्योंकि तुमने अपनी दुनिया अपने परिवार और स्कुल के बच्चों तक सिमित कर ली है पर माँ मैं बहुत कुछ करना चाहती हूँ । देश के लोगों , समाज की कुरीतियों ,अपने अंदर के कलाकार को पहचान दिलाने के लिए माँ मैं आपकी तरह अपनी दुनिया सिमित नहीं करना चाहती हूँ ।
विद्या चंद्र — बिलकुल मेरी बेटी एक दिन बहुत नाम कमाएँगी और मैं फख्र से कहूँगा मैं राधिका का पिता हूँ ।
रमा — बस तुम भी इसी की बढ़ावा देते रहो पर बेटी लड़की को शादी करके दूसरे घर जाना है और वहाँ पर उन्ही के हिसाब से खुद को ढालना पड़ता है ।
राधिका –उफ़ माँ तुम भी न , मैं सब कुछ समझती हूँ , पर क्या एक लड़की का अपना कोई अस्तित्व नहीं अरे घर परिवार की जिम्मेदारी निभाते हुए वो बहुत कुछ कर सकती है ।
रमा — देखो राधिका मैं सिर्फ इतना जानती हूँ की सपने टूटने का दुःख इंसान को तोड़ देता है और मैं यह नहीं चाहती ।
राधिका–पापा आज मैं आप और माँ दोनों के लिए चाय बना कर लाती हूँ आप भी क्या याद करोगे राधिका स्पेशल चाय ।
सूत्रधार ……समय का चक्र यूँही चलता जाएगा
हर चक्र के बाद कुछ नया नज़र आएगा , समय का चक्र या तो तोड़ेगा या तोड़ जाएगा या फिर एक नई सुबह लाएगा
खुवाहिशे रखना इंसान का हक़ है वो पूरी होगी की नहीं यह नहीं कहा जा सकता । परन्तु हार कर बैठना इंसान फितरत के विरुद्ध है ।
दृश्य- 3
राधिका — माँ मैं चलती हूँ कालेज को देर हो रही है । और आज मुझे कालेज से ही पेंटिंग और टाइपिंग क्लास भी जाना है देर हो जाएगी । चिंता मत करना ।
रमा –ध्यान से जाना ( रमा सोचने लगती है आज जमाना बहुत बदल गया है पता न्हिबिस्के नसीब में क्या लिखा है माँ के चहरे की चिंता साफ़ दिखाई देती है ) हे भगवान् मेरी बेटी को उसके लक्ष्य में कामयाब करना ।
राधिका –( शाम को घर आने के बाद ) पापा आज हमारे कालेज में एक नोटिस आया है कालेज की तरफ से एक टीम इलाहाबाद जानी है जिसका वहां और कॉलेजों से मुक़ाबला होगा मेरा भी उसमे नाम है अगर आप हां करोगे तो मैं भी चली जाउंगी ।
विद्या चंद्र — यह तो बहुत ख़ुशी की बात है अलग अलग जगह के लोगों से मिल कर ही हमें हमारी संस्कृति की पहचान होती है ।
राधिका — पापा बुधवार को जाना है दोपहर 2 बजे की ट्रेन है हरिद्वार से ।
विद्या चन्द्र –दो दिन बाद तुम अच्छे से पैकिंग कर लो और किसी चीज की जरूरत हो तो लिस्ट बना दो मैं लेता आऊंगा ।
दो दिन बाद
विद्या चंद्र –बेटा तू तैयार है टाइम हो गया
राधिका — बस 2 मिनट पापा
रमा — राधिका अपना सारा समान देख लिये न कुछ छूटा तो नहीं ।
राधिका — नहीं माँ
सूत्रधार —राधिका निकल पड़ती है अपने गन्तव्य की और । पर पीछे से एक दिन अचानक
विद्या चंद्र — अरे राधिका की माँ कहा हो तुम जल्दी बाहर आओ । तुमसे जरूरी बात करनी है
रमा — आती हूँ बौखला क्यों रहे हो ।
विद्या चंद्र –तुम अपनी राधिका के हाथ पिले करना चाहती थी न , तो देखो उसके लिए बहुत अच्छा रिश्ता आया है । उन्होंने अपनी राधिका को देखा है और वो उनको बहूत पसंद है बस राधिका से और पूछ ले वो अभी पढ़ना चाहती है
रमा — अजी उससे क्या पूछना शादी की उम्र है और रही पढ़ने की बात तो ससुराल वालो को नौकरी करवानी होगी तो खुद पढ़ा लेंगे । भगवान् ने सही वख़्त पर सुन ली बस बात बने तो गंगा नाहा लूँ ।
सूत्रधार —क्यों हर बार औरत की बाली संस्कारो के नाम पर दी जाती है ? क्यों औरत का कोई अस्तित्व नहीं ? क्यों वो सब की इच्छाओ के आगे झुक जाती है । यह कैसी विडम्बना है हमारे समाज की एक और लड़कियां पढ़ लिख कर आगे बढ़ना चाहती है वही घरवाले शादी कर के अपनी जिम्मेद्दारिओ से मुक्त होना चाहते हैं ।
क्यों कोई उनकी भावनाओ को नहीं समझता ?
दृश्य- 4
राधिका सीधी साधी नैन नक्श की माध्यम ऊंचाई वाली लेकिन प्यारी सी, रमा के साथ अंदर आती है ) बेटा यह शीला जी सौरभ की माता जी
राधिका — ( अदब से झुक कर पैर छूती है )
शीला — जीती रहो दूधो नहाओ पूतो फलो और ससुराल वालो की खूब सेवा करो । भई हम तो यही आशीर्वाद देंगे ।
रमा — जी आपका आशीर्वाद सदैव बना रहे बच्चों पर ।
और सौरभ की तरफ इशारा कर के यह हैं सौरभ जी
राधिका –हलकी नज़र सौरभ की तरफ डालते हुए नमस्ते करती है ।
सौरभ — नमस्ते का जबाब जरा मुस्करा कर देता है ।
सूत्रधार —-और शुरू होता है दो परिवारों को जानने का प्रोग्राम आखिर राधिका शीला को पसंद आ जाती है और छोटे छोटे रिवाजो के बाद विवाह का दिन भी नज़दीक आ जाता है पर राधिका जो जीवन की उंचाइओ को छूना चाहती थी आज अपने सपनो को तहखाने में बंद कर चाबी छुपा देती है और निकल पड़ती है एक समझदार बेटी से एक सुशील बहू बनाने के सफ़र में ।
सूत्रधार ….आँख में आँसू लिए बोली बेटी बाबुल से …..
रे बाबुल बड़े प्यार से सींचा तूने मोहे
आज काहे गैरो के हवाले कर दिया
खता थी मेरी तो सजा दे देते …….
तुमने ती खुद से ही जुदा कर दिया
जो आगँन महकता था मुझसे काहे
तूने उस आँगन से विदा मोहे कर दिया ।
दृश्य- 5
राधिका –नए घर में प्रवेश , चारो तरफ लोग कोई राधिका को बहु तो कोई चाची , कोई भाभी ,कोई मामी नामों से सम्बोधित कर रहा था और राधिका नज़ारे झुकाए सब का अभिवादन करती है
शीला — बहु यह हैं तुम्हारी दादी सास पैर छु कर आशीर्वाद लो हमारे घरो में बड़ो को भगवान् माँना जाता है । वो जो कह दे उनके आगे मुह मत खोलना यही रीत है ।
राधिका — दादी सास के पैर छूती है और शीला की बात पर हामी में सर हिलाती है ।
शीला — राधिका ) बहु अब तुमको इस घर के कायदे कानून के हिसाब से चलना पड़ेगा । अपने मायके के कायदों को छोड़ना पड़ेगा । देखो भई हमारे यहाँ न तो बहुएं सर से पल्ला उतारती हैं और न बड़ों के बीच बैठती हैं । और न उन्हें बाहर जाने की इजाजत है ।
राधिका –( मन ही मन एक आनजाने डर को महसूस करने लगती है ) जी माजी जैसा आप कहेंगी ।
सौरभ ( बहुत कम बोलने वाला ) देखो राधिका हमारे घर की परम्पराएँ हैं जो अब तुमको निभानी हैं । मेरी माँ जो कहे वो तुमको मानना ही होगा और निभाना भी । और हां मेरी जिंदगी में सबसे पहले मेरी माँ है यहबात पहले ही कह दूँ अपनी हद कभी पार मत करना ।
राधिका — वो तो ठीक है पर मेरे अपने भी तो कुछ सपने हैं । क्या मैं सबको निभाते हुए उनको भी पूरा कर सकती हूँ ।
सौरभ –देखो, अब तुम्हें अपने सपने अपनी खुशियां सब वह परिवार में ढूंढनी होगी । बाहर की दुनिया से तालमेल मत बैठाना यही सबके लिए ठीक होगा ।
राधिका — पर सौरभ आप तो जानते हैं मैं एक पढ़ी लिखी लड़की हूँ । चार पैसे कमाऊंगी तो घर के काम आएँगे और फिर मैं बहुत कुछ करना चाहती हूँ । मैं सिर्फ घर तक सीमित नहीं रहना चाहती ।
सौरभ — राधिका साफ़ साफ़ कह देता हूँ सब बाते निकाल दो अपने दिमाग से अगर रिश्ता निभाना चाहते हो वरना तुम्हारी मर्जी।
(राधिका सौरभ की बाते सुनकर स्तब्ध रह जाती है )
शीला — सौरभ और राधिका का वार्तालाप सुनती है ) देखो सौरभ मैं तुम्हें पहले ही कह दूँ औरत पैर की जूती होती है जितना सर चढ़ाओगे उतना सर चढ़ कर बोलेगी । लगाम कस कर रखो ।
राधिका — माँ, आप औरत हो कर एक औरत के लिए ऐसा सोचती हो ।
शीला — अरे, मैं सच्चाई कह रही हूँ । मुझे सिखाने की कोशिश भी मत करना ।
सौरभ — मैं इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहता! जो कह दिया बस!
राधिका — अपने कमरे में आकर सुबकने लगती है । और सोचती है आज ऐसे दोराहे पर हूँ जहाँ समझौते की राह ही समझ आती है और इसी में सब की भलाई । क्या करूँ मैं?
सूत्रधार — क्या राधिका इस समझौते से खुश रह पाएगी । नहीं राधिका समझौते तो करती है और रिश्तों को जी जान से निभाते हुए संस्कारो और रिवाजो को सहेजती । पर न तो मायके का विश्वास जित पाती है और न ससुराल में लोगो की अपेक्षाओं को जो असीमित हैं । पुरे समर्पण के बाद खुश कर पाती है । धीरे धीरे वो खुद को बदल लेती है । उसके अंदर का चुलबुला पैन उसके चहरे की रौनक कही गुम हो जाती है बस जिन्दगी है सिर्फ जीनी है । राधिका के अंदर ही अंदर एक द्वन्द चलता रहता है कुछ करने की उसकी इच्छा जोर मारने लगाती है । एक तड़प सी उठती है क्यों उसने अपने अंदर के अस्तित्व को समाप्त कर लिया ? क्यों वो अपने अधिकारो के लिए नहीं बोली ,? क्या एक औरत होना जुर्म है क्यों उसने कोई भी अन्याय सहा ? वो चाहती तो बहुत कुछ कर सकती थी । सिर्फ अपने परिवार के लिए ही नहीं इस देश , इस समाज उन जरूरतमंदों के लिए । फिर क्यों नहीं उठाया उसने कोई कदम ? कैसे तोड़ दिए उसने उन सपनो को जो सिर्फ उसके नहीं थे?
राधिका — सुबह की पहली किरण के साथ उठती है आज उसको अपने अंदर वाही 17 साल पहले वाली राधिका नजर आ रही थी जो ख़ुशी से चहकती रहती थी जिसके चहरे पर हमेशा दृढ़ निश्चय का तेज रहता था । बड़े प्यार से आईने के आगे अपने आपको बहुत देर तक निहारती है और गाना गुनगुनाती है कांटो से खिंच कर यह आँचल तोड़ कर बंधन बाधी पायल
सौरभ — क्या बात राधिका कोई ख़ास बात बहुत खुश नजर आ रही हो ।
राधिका — एक दृढ़ निश्चय से बोलती है मुझेतुम से कुछ बात करनी है ।
सौरभ — हाँ बोलो , पर जरा जल्दी मुझे देर हो रही है।
राधिका — सौरभ बात आराम से करने की है जरा देर से चले जाना ।
सौरभ — झल्लाकर पागल हो क्या ? तुम्हे क्या पता पैसे कमाना कितना मुश्किल है । बाहर निकल के पैसे कमाने पड़े तो पता चले तुम्हे ।
राधिका — वही तो जानना चाहती हूँ और आज मैं तुमसे पूछ रही हूँ । मैंने अपने पैरो पर खड़े होने की ठान ली है । अब मैं किसी की नहीं सुनूंगी । अब चाहे मुझे उसके लिए कोई भी कुर्बानी देनी पड़े ।
सौरभ –लगभग चिल्ला कर तुम्हारा दिमाग खराब नहीं । अब इस उम्र में नौकरी ।मेरे घर के रीती रिवाज़ को ताक पर रखोगी । लोगो के सामने मुझे नीचा दिखाओगी अरे कोई नहीं पुछैगा तुम्हे एक दिन धक्के खा कर आ जाएगी
राधिका –एक फीकी सी मुस्कान के साथ सौरभ 17 साल तुम्हे देने के बाद भी तुम धक्के मार कर घर से निकाल देने की धमकी देते हो । मैं एक बार अपने सपनो को जी कर देखना चाहती हूँ । जीत गई तो खुश हो लुंगी । देर से सही अपने सपनो को अकार तो दे सकी हार गई तो मेरे अंदर की तड़प मिट जाएगी की क्यों मैं ने अपने सपनो से न्याय नहीं किया ।
– मनीषा गुप्ता