आलेख
नाटककार- डाॅ. रामकुमार वर्मा: अनीता पटेल
आधुनिक हिन्दी साहित्य में नाटक लेखन की जिस परंपरा का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिशचंद्र ने किया, उसे समृद्ध करने का श्रेय निःसंदेह जयशंकर प्रसाद को जाता है। हिन्दी नाटक की इस समृद्ध परंपरा को गतिशील बनाने में एकांकी के जनक के रूप में प्रसिद्ध डाॅ. रामकुमार वर्मा के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
विशेषकर ऐतिहासिक नाटककारों में डाॅ. वर्मा अपनी सशक्त पहचान रखते हैं।
दुर्भाग्य की बात है कि साहित्य इतिहासकारों व आलोचकों के द्वारा परवर्ती ऐतिहासिक नाटककारों में जो प्रसिद्धि हरिकृष्ण प्रेमी, सेठ गोविन्द दास, गोविन्द वल्लभ पंत, उदय शंकर भट्ट, लक्ष्मीनारायण मिश्र आदि को मिली, वह डाॅ. रामकुमार वर्मा को नहीं मिली। जहाँ नाटककार रामकुमार वर्मा की चर्चा की गई है वहाँ उनके पूर्ण नाटकों के साथ उनकी एकांकियों को भी नाटकों में शामिल कर लिया गया है, जबकि डाॅ. वर्मा ने 26 पूर्ण नाटकों की रचना की है। अतः एकांकीकार रामकुमार वर्मा से नाटककार रामकुमार वर्मा के पार्थक्य को जानना व समझना आवश्यक है।
डाॅ. रामकुमार वर्मा के 26 नाटकों का नामोल्लेख काल-क्रमानुसार इस प्रकार है- शिवाजी (1945), कौमुदी महोत्सव (1949), विजय पर्व (1954), कला और कृपाण (1958), जौहर की ज्योति (1967), सत्य का स्वप्न (1967), महाराणा प्रताप (1967), नाना फड़नवीस (1969), सारंग स्वर (1976), पृथ्वी का स्वर्ग (1971), जय बंगला (1971), अग्निशिखा (1971), संत तुलसीदास (1973), जय आदित्य (1973), जय वर्धमान (1974), जय भारत (1975), भगवान बुद्ध (1975), समुद्रगुप्त पराक्रमांक (1978), सम्राट कनिष्क (1978), देवी श्री अहिल्याबाई (1980), स्वयंवरा (1980), अनुशासनपर्व, मालव कुमार भोज (1981), कुंती का परिताप (1983), सरजा शिवाजी (1985) व कर्मवीर (1985)।’’1
इनमें से शिवाजी, कौमुदी महोत्सव और सरजा शिवाजी एक अंक के नाटक हैं तथा ‘विजय पर्व’ को ही दुबारा ‘अषोक का शोक’ व ‘कला व कृपाण’ को ‘वत्सराज उदयन’ के नाम से प्रकाशित किया गया है। ‘पृथ्वी का स्वर्ग’ डाॅ. वर्मा का एकमात्र सामाजिक नाटक है तथा ‘अनुशासन पर्व’ में महात्मा गाँधी के सत्य व अहिंसा से लेकर इंदिरा गाँधी की आपातस्थिति तक की घटनाओं का नाटकीय विवेचन किया गया है, शेष सभी नाटक ऐतिहासिक पृष्णभूमि पर आधारित हैं।
डाॅ. वर्मा के नाटकों के कथानक 600ई.पू. से लेकर आजादी के बाद तक के घटना क्रम पर आधारित हैं। डाॅ. वर्मा कोई भी ऐतिहासिक विषय चयन करने से पूर्व उससे सम्बन्धित बहुत सी पुस्तकों का गहन अध्ययन करते थे, ताकि इतिहास को कोई हानि न पहुँचे। इस बात का उल्लेख वे अपने नाटकों की भूमिकाओं में अक्सर करते रहें हैं। उदाहरण के लिए ‘विजय पर्व’ की भूमिका में उन्होंने गहन अध्ययन और विश्लेषण के बाद यह निष्कर्ष दिया कि अशोक ने सिंहासन के लिए अपने भाईयों का वध नहीं किया बल्कि अमात्य मंडल द्वारा सम्राट बनाए गए। अपने नाटकों के विषय में डाॅ. रामकुमार वर्मा का कथन है- “‘यदि आप मेरे नाटकों पर दृष्टि डालें तो आपको ज्ञात होगा कि मैंने सामाजिक नाटकों की अपेक्षा ऐतिहासिक नाटक अधिक लिखे हैं। इसका कारण एक तो राष्ट्र की संस्कृति में मेरा विश्वास है, जिसका विकास करने में हमारे ऐतिहासिक महापुरूषों का विशेष हाथ रहा है। दूसरे ऐतिहासिक तथ्य के निरूपण से हमारे वर्तमान जीवन को एक नैतिक धरातल मिलता है।”2
भारतीय संस्कृति के साथ-साथ सकारात्मक जीवन मूल्यों को भी डाॅ. रामकुमार वर्मा ने अपने नाटकों के केन्द्र में रखा। डाॅ. वर्मा जीवन का पर्यवसान आनंद में मानने की जो भारतीय जीवन दृष्टि है, उसके समर्थक थे। उनकी दृष्टि कुंठा, निराशा, अवसाद को रेखांकित करने में नहीं थी, ये सब जीवन का अंग है लेकिन उसका आदर्श नहीं। डाॅ. वर्मा आदर्शवाद के साथ आशावादिता के भी पक्षधर थे। मनोरंजन के साथ डाॅ. वर्मा के नाटकों में वर्तमान और भविष्य के लिए संदेश भी छिपे हैं। एक साक्षात्कार में डाॅ. वर्मा इस बात को स्पष्ट करते हैं- “भारतीय इतिहास की उन घटनाओं पर मैंने नाटकों की रचना की है, जो अत्यधिक संवेदनशील रही हैं। मैंने उन्हीं पात्रों का चयन किया है, जो शोर्य और पौरुष के प्रतीक थे। मैंने यह प्रयास किया है कि अपने अतीत के गौरव गरिमा को अपने नाटकों में इस प्रकार प्रस्तुत करूँ कि हमारा वर्तमान उससे कुछ सीख ले और भविष्य प्रेरणा ग्रहण करे। राष्ट्रीयता और भारतीयता को मुखरित करना ही मेरा ध्येय रहा है। मेरे नाटकों में इतिहास और समाज के स्वर अनुगुंजित हुए हैं, जो त्याग, धैर्य, बलिदान और अस्मिता से युक्त हैं। मैंने राष्ट्रीय अस्मिता को सर्वोपरि स्थान दिया है।”3
एक उच्चकोटि के अध्यापक होने के कारण उन्होंने विद्यार्थियों के स्तर को समझते हुए उनमें जीवन मूल्य, नैतिकता, सकारात्मक दृष्टि, पुरूषार्थ आदि विकसित करने हेतु ही अपने समय में व्यापक परिवर्तन करने वाले चन्द्रगुप्त मौर्य, शिवाजी, महाराणा प्रताप, अशोक, कनिष्क, हर्ष, कर्ण, समुद्रगुप्त आदि पात्रों का चयन अपन नाटको में किया, ताकि आज के युवा उनसे कुछ प्रेरणा ग्रहण कर सके। ‘समुद्रगुप्त पराक्रमांक’ नाटक की भूमिका में डाॅ. वर्मा कहते हैं- “मैंने विद्यार्थियों के मनोविज्ञान के अनेक रूपों का अध्ययन किया है। उन रूपों के अनुसार ही उन्हे देश की संस्कृति के प्रति आस्थावान बनाने के लिए मैंने ऐतिहासिक नाटकों की रचना की।”4
इसी प्रकार ‘कर्मवीर’ नाटक की भूमिका में कहते हैं- “कर्ण ने भाग्य को चुनौती देते हुए जिस पुरूषार्थ का परिचय दिया है, वह सम्पूर्ण महाभारत के किसी पात्र में नहीं है।……… आज हमारे देश के नवयुवकों के लिए इसी पुरूषार्थ की आवश्यकता है। महाभारत का कर्मवीर कर्ण आज भारत के प्रत्येक नवयुवक का मार्गदर्शक बने, मेरी यही कामना है।”5
इतिहासकार केवल इतिहास में घटित प्रमुख घटनाओं का संकलन करता है किन्तु एक साहित्यकार उन घटनाओं में अपनी कल्पना का रंग भरकर, पात्रों का मनोवैज्ञानिक चित्रण करके उनके आंतरिक द्वन्द्व व भावनाओं के संघर्ष को उकेरकर साहित्य के माध्यम से पाठकों के सम्मुख जीवन्त बनाता है। डाॅ. रामकुमार वर्मा ने भी अपने नाटकों में इतिहास और कल्पना का सुन्दर सामंजस्य स्थापित किया है, जिसके परिणामस्वरूप उनके नाटक सिर्फ पाठ्य के स्तर पर ही नहीं बल्कि मंचन के स्तर पर भी लोकप्रिय एवं सफल बन पडे़ हैं। डाॅ. वर्मा का रंगमंच से निकट का संपर्क रहा है। अपनी किशोरावस्था से ही उन्होंने अनेक नाटकों में अभिनय किया, जयशंकर प्रसाद के ‘चन्द्रगुप्त’ व ‘अजातशत्रु’ दोनों नाटकों में अभिनय किया और उसमें आने वाली रंगमंच सम्बन्धी कठिनाईयों को भी समझा। अतः अपने नाटकों की रचना डाॅ. वर्मा ने रंगमंच को ध्यान में रखते हुए की। इनका मानना है कि ‘रंगमंच के नाटको में व्यक्ति, वर्ग, समाज और राष्ट्र को ऊपर उठाने की शक्ति है। ……… अतः यदि नाटक साहित्य का सबसे विशिष्ट अंग होना चाहता है, तो उसे रंगमंच का आश्रम ग्रहण करना ही होगा।”6
अतः रंगमंच को ध्यान में रखते हुए डाॅ. वर्मा ने अपने नाटको में विस्तृत रंगसंकेत, मंचसज्जा, प्रकाश, ध्वनि, पात्रों की वेशभूषा व अंग संचालन सम्बन्धी निर्देश भी दिये हैं। इनके अधिकांश नाटक तीन अंक के हैं तथा पात्रों की संख्या पर भी ध्यान दिया गया है ताकि अभिनय में असुविधा न हो। डाॅ. जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव कहते हैं- “डाॅ. वर्मा का नाट्यलेखन रंगमंच और अभिनयपरक सब प्रकार की तथाकथित चुनौतियों से टकराने में सक्षम है। उनकी नाट्य-कृतियों के प्रतिन्यास निर्देशन की सभी अपेक्षाओं को पूरा करते हैं।”7
इस प्रकार डाॅ. रामकुमार वर्मा जयशंकर प्रसाद के समान ही भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीयता का जयघोष करने वाली नाट्य परंपरा को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नाटककार के रूप में डाॅ. वर्मा की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि उन्होंने रंगमंचीय नाटक लिखकर नाटक को पाठ्य के स्तर से उठाकर सीधे रंगमंच से जोड़ दिया है। इस संदर्भ में प्रो. प्रकाशचन्द्र गुप्त का कथन अवलोकनीय है- “आपने रंगमंच को ध्यान में रखते हुए नाटक की रचना की है। इस प्रकार हिन्दी रंगमंच के विकास में डाॅ. वर्मा का बड़ा योगदान है।”8
अतः हिन्दी नाटक और रंगमंच को समृद्ध बनाने में डाॅ. रामकुमार वर्मा के इस महनीय योगदान को किसी भी प्रकार अनदेखा नहीं किया जा सकता।
संदर्भ-
1. सं. शर्मा, डाॅ. चन्द्रिका प्रसाद एवं गोयनका, डाॅ. कमल किशोर, रामकुमार वर्मा नाटक रचनावली-3, पृ. 481-482, किताबघर नई दिल्ली, सं.-2010
2. हिन्दुस्तानी (त्रैमासिक), डाॅ. रामकुमार वर्मा जन्मशताब्दी विषेशांक, जुलाई-सितम्बर 2004, अंक-3, पृ.-170, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद
3. आजकल, नवम्बर-1990, अंक-7, पृ.-6, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली
4. सं. शर्मा, डाॅ. चन्द्रिका प्रसाद एवं गोयनका, डाॅ. कमल किशोर, रामकुमार वर्मा नाटक रचनावली-3, पृ.-11, किताबघर, नई दिल्ली, सं. 2010
5. वही, पृ.-403
6. वर्मा, डाॅ. रामकुमार, विजय पर्व, पृ.-15, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2001
7. सं. शर्मा, डाॅ. रामकिशोर एवं वर्मा, डाॅ. राजलक्ष्मी, डाॅ. रामकुमार वर्मा गौरव ग्रंथ, पृ. 595, डाॅ. रामकुमार वर्मा ट्रस्ट, इलाहाबाद, प्र.सं.-2005
8. वही, पृ.-116
– अनीता पटेल