नागफनी के जंगल
हालिया मुम्बई उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया एक निर्णय चर्चाओं में पॉपकॉर्न-सा उछलता रहा, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। मुद्दा भले किसी भी महिला या पुरुष से जुड़ा हो पर दर्द के फोड़े तो एक से ही कलपते हैं। न्यायपालिका के नियमों की बात की जाये तो वहाँ सैक्सुअल असॉल्ट हो या सैक्सुअल ह्रासमेंट दोनों के बीच निर्णय के बारीक से मापदंड निर्धारित किये गये हैं। किसी भी स्त्री या पुरुष के निजी संवेदनशील एरिया या ऑर्गन्स को भले कपड़ों के ऊपर से बिना उसकी मर्जी के छुआ जाये या कपड़े हटाकर छुआ जाये, वो दोनों तरह से उतनी ही पीड़ा, घिन और भय आजीवन छोड़ जाने वाली हरकत है। पुरानी कहावत है कि “जाके पैर न फटें बिवाई वो का जानें पीर पराई” सच ही तो है, स्त्री के द्वारा, स्त्री के लिये दिये गये इस निर्णय ने इस कहावत को ही हाईलाइट किया है।
बहरहाल मेरा मुद्दा किसी भी न्याय संस्था को चैलेंज करना नहीं बल्कि अपनी बात रखना है। हमारे कानून में यदि कुछ कृत्यों का दण्ड भी उस कृत्य की आजीवन पीड़ा जितना ही कष्टदायक हो जाये तो शायद कुछ अनुपात कम होने लगे उस घृणित अपराध की आवृत्ति में! यौन हिंसा का कोई भी रूप या तरीका किसी भी स्त्री या पुरुष के लिये प्राणघातक हमले से कतई कम नहीं ठहरता। इस घात में उगे तन के छालों का तो उपचार संभव है,परन्तु मन पर उगे नागफनी के जंगलों का कटना असंभव है। भले लाख काउंसलिंग सेशन्स हों या ध्यान डायवर्ट करने के नुस्खे ,,सब विफल हो जाते हैं। नागफनी के ये जंगल बीज गिराते हुए, बढ़ते जाते हैं निरंतर।
सोशल मीडिया बहुत उम्दा प्लेटफॉर्म है अपनी बात या मुद्दे को रखने के लिये। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इसकी फिज़ाओं में चहुँओर बिखरी मिलती है। पर एक कहावत और है- ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’।
सोशल मीडिया के आदी हम लोग किसी भी मुद्दे के हाथ आते ही स्टॉक मार्केट की तरह शुरू हो जाते हैं। मानो किसी कंपनी के शेयर्स उछले नहीं कि बंदरबाँट चालू। एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे तक पहुँचने का।
मुद्दा, घटना-दुर्घटना, बात कितनी भी संवेदनशील क्यों न हो, हम उसे इतना कूटते हैं कि वो चिंदी-चिंदी होकर अपना अस्तित्व ही खो देती है।
स्त्रियों के लिये स्त्रियाँ ही क्रूरतम् हो जाती हैं। कितने असंवेदनशील पढ़े-लिखे मूर्ख दिखने लगते हैं हम!
बलात्कार हुआ नहीं कि हर दूसरी दीवार पर वो फिर-फिर होता जाता है।
ऊपर जिस गलत फैसले का ज़िक्र है, उसको साँझा तो हर जगह किया गया, परंतु भाषाई दायरे लगातार विकृत होते गये पोस्ट दर पोस्ट।
लिखने से पहले हम भूल गये कि पीड़िता इस वर्तमान समय में षोडशी होगी। इस छीछालेदर को देखकर उसके मन या उसके माता-पिता के मन पर क्या गुजरती होगी।
उसके साथ मात्र बारह साल की उम्र में जो बीता, उसे उसके सोलह-सत्रह के होने पर हमने हफ्ते भर में लाखों दफ़ा कर दिया। किसी की इज्ज़त का नारा, किसी के न्याय के लिये ये सामूहिक गुहार पीड़ित या पीड़िता की गरिमा को खंडित कर के मिला भी तो क्या फायदा।
ऐसे एक नहीं अनगिनत उदाहरण हैं, जिनके उधेड़बुन लगातार गंदी से गंदी हद तक सोशल मीडिया पर चलते रहे हैं। हादसा न हुआ, चटपटी चाट का ठेला हुआ हो जैसे!
कभी तो गंभीरता से सोच-विचार कर देखिये कि हम क्या करने में लगे हैं। भाषाई सामर्थ्य की एक लक्ष्मणरेखा होती है, कम से कम हम ये गौर ही कर लें कि जो लिख रहे हैं, वो किसी के कष्ट को कहीं बढ़ा तो नहीं देगा।
किसी की अस्मत के मुद्दे किसी भी राउंडटेबल कॉफ्रेंस से, किसी ईवनिंग टी-पार्टी से, वीकेंड की कॉकटेल गेट टुगेदर से या किटी के गॉसिप्स से कहीं ज्यादा आवश्यक व मुलायम होते हैं। उनकी फ्रिजिलिटी का अहसास हम सबको एक अदद् गंभीरता से होना चाहिये या नहीं?
सोचिये…सोच कर देखिये कि यदि ऐसे हादसा हमारे किसी करीबी जानकार, दोस्त, पड़ोसी या रिश्तेदार के साथ हुआ हो तो!!
सोशल मीडिया पर बिना सोचे-समझे, क्या सारी लक्ष्मणरेखाएँ पार कर देनी चाहिये?
सोचियेगा अवश्य क्योंकि आपका एक गहन मंथन, कुछ बदलाव की हवा तो निश्चित ही लायेगा।
– प्रीति राघव प्रीत