आलेख
नरेश मेहता के काव्य में प्रकृति चित्रण
– डाॅ. मुकेश कुमार
नरेश मेहता प्रकृति के परम प्रेमी हैं। संवेदना, भाव, विचार आदि दृष्टि से देखी गई प्रकृति भेदता के मन में अद्भुत प्रभा और प्रभाव का संचार करती है। जिसमें बादल, बिजली, वर्षा, वायु, सूर्य, चन्द्रमा, वन, वनस्पति, सागर, झील, नदी, नाले, खेत-खलियान, फूल, पत्ती, पेड़-पौधे आदि का वर्णन कवि द्वारा बड़ी गहनता के साथ किया गया है।
दूसरा सप्तक के कवि नरेश मेहता का हिन्दी साहित्य में उदात्त स्थान है। बहु-आयामी पारगामी ऋतम्भरा प्रज्ञा के अनुयायी, कारयित्री एवं भावयित्री प्रतिभा के धनी नरेश मेहता का प्रादुर्भाव 15 फरवरी, सन् 1922 ई. में मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के शाजापुर कस्बे में एक भिन्न मध्यमवर्गीय वैष्णव परिवार में हुआ। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक व साहित्य में परास्नातक की उपाधि प्राप्त की। ‘अरण्या’ पर साहित्य अकादमी व सम्पूर्ण रचनाओं पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से अलंकृत किया गया।
‘वन पाखी सुनो’, ‘बोलने दो चीड़ को’, ‘मेरा समर्पित एकांत’, ‘पिछले दिनों नंगे पैरों’, ‘उत्सवा’, ‘प्रवाद-पर्व,’ ‘महाप्रस्थान’, ‘शबरी’, ‘अरण्या’, ‘संशय की एक रात’, ‘आखिरी समुद्र से तात्पर्य’, ‘प्रार्थना पुरुष’ आदि रचनाओं का सृजन किया। 22 नवम्बर सन् 2000 ई. में साहित्य जगत् का चमकता हुआ यह सितारा बुझ गया।
नरेश मेहता समिधाखण्ड एक में सागर का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, जिसमें एक ‘चिरंजीविता’ कविता में सागर की विशालता का वर्णन किया है। कवि कहता है कि सागर जब उलटफेर करता है तब वह छोटे जल से मनोरम मधुरता नहीं प्राप्त कर सकता।
”सागर! तुम्हें नहीं लगता कि,
तुम्हारी यह चिरंजीविता
स्वयं तुम्हारे ही लिए अभिशाप है?
तुम किसी भी दिन क्या
किसी भी क्षण
कहीं भी
ध्रुव से लेकर ध्रुव तक
अपनी इस विशालता से
कितना ही उलटो-पलटो
पछाड़े खाओ
पर यह विशालता
तुम्हारे व्यक्तित्व में, ऐसी निबद्ध हो गई है कि,
छोटे से जलाशय वाली
न मनोरम काम्यता ही प्राप्त हो सकती है,
और न मधुरिमा।।“1
नरेश मेहता जी प्रकृति के एक-एक अंग से प्रेम करता है। वह प्रकृति और प्रेम को सम्मिश्रण करता है। जिस प्रकार समय का प्रवाह बहता है उस समय वह जल के प्रवाह को प्रतीक मानकर समय के प्रति क्षण के बारे मंे सोचता है और उसके लिए वह प्रकृति का अंग शाश्वत बन जाता है-
”आओ इस झील को अमर कर दे
छू कर नहीं
किनारे बैठकर भी नहीं
एक संग झांक इस दर्पण में
अपने को दे दें हम
इस जल को
जो समय है।।“2
कवि नरेश मेहता ने ‘ताल-जल’ नामक कविता मंे बादल का बड़ी रमणयी से चित्रण किया है। वह बहुत अद्भुत बिम्ब सा बना देता है। ताल-जल की प्रति छवि से वह उसी चित्रण में खो जाता है।
”तुम क्यों हिलाती ताल-जल ?
बादल कापं जाते हैं।
देखो-।
हवा तक ने कर रखी है कृपा
सोया ताल है।।“3
‘मालवी फाल्गुन’ नामक कविता में कवि नरेश मेहता पेड़, पौधे, पुष्प आदि का वर्णन किया है। उन्होंने खजूर, पलाश, अमलताश, कपास, सरसों, महुआ आदि का वर्णन करके ऋतु व वनस्पति का के बारे मंे परिचित करवाया है। इस कविता मंे प्रकृति की सुंदर छटा का वर्णन किया है।
”काली माटी सरसों फूली,
फागमाग में नीचे ढूली,
खिरनी जंगल, हिरनी चंचल,
फागुआ चलती ज्यों बट भूली।।“4
‘महाप्रस्थान’ प्रबन्ध काव्य मंे नरेश मेहता ने वन-वनस्पतियों का बहुत व्यापकता के साथ सुन्दर चित्रण किया है। ऊँचे-ऊँचे पर्वत, वहाँ की प्रकृति, फल-फूल, जंगल, विभिन्न प्रकार की औषधियों, वन, जंगल मंे फिरते मृग, विभिन्न प्रकार के वृक्ष आदि का बहुरंगी बहुत रमणीय चित्रण किया है।
”छूट गये पीछे,
कस्तूरी मृग वाले वे
मधु-माधव से उत्सव-जंगल,
ग्रीष्म तपे
तंवियाये झरे पात की
वे वनानियों
मिटे चीड़ फूलों से लदी भूमि,
औषधियों के वल्कल पहने
परम हितैषी वृक्ष
सभी कुछ छूट गये।।“5
कवि नरेश मेहता प्रातःकाल की पावन बेला का चित्रण किया है जिसके संदर्भ में ग्राम की प्रातः यात्रा व उसकी सभ्यता संस्कृति, प्रातः काल में चक्की चलाना, जिससे स्त्रियों के आंगन की आवाज सुनाई देती है। ग्रामीण परिवेश की सुन्दर छटा का वर्णन किया है।
”भिनसारे में चक्की संग
फैल रही गीतों की किरने
पास हृदय छाया लेटी है
देख रही मोती के सपने
गीत न टूटे, जीवन का
यह कंगन बोल रहे।।“6
नरेश मेहता ने ‘देखना एक दिन’ अपने काव्य संग्रह मंे सायं काल का सुंदर चित्रण किया है। ‘शाम’ का बहुत गहनता के साथ जाजम रूप में वर्णन किया है। शाम रूपी जाजम को बिछाने का कार्य छोटे-बड़े पक्षी करते हैं। क्योंकि सायं होते ही सभी पक्षी अपने-अपने रैन बसेरा मंे प्रवेश कर लेते हैं।
”बड़े पाखियों से लेकर
छोटी गोरियाएँ तक
चोचों में थामे
बिछाती आ रही हैं,
शाम, आकाश में
हर पक्षी दल
अपने पेड़ के आते ही
थमा देता है।
आगे जाने वाले पाखियों को
शाम की यह जाजम
और स्वयं
अपने पेड़ों पर उतर
कैसा शोर करते
अपने बच्चों को
पेड़ों को सुनाने लगते हैं
यह जाजम पुराण।।“7
बसन्त ऋतु के आगमन पर प्रकृति रंग-बिरंगी दिखाई देती है। क्योंकि बसन्त सबसे मादक और मोहक ऋतु मानी जाती है। ‘बोलने दो चीड़ को’ काव्य संग्रह मंे कवि द्वारा फागुन पर्व व बसन्त ऋतु का बड़ा मनोरम चित्रण किया है। क्योंकि फागुन आने पर प्रकृति पीताम्बर वस्त्र धारण कर लेती है। फूल, खिलने लगते हैं। मधुकर अपना गुंजन करता है। नदियों में जल साफ व सुन्दर बहता हुआ दिखाई देता है। प्रकृति अपना विभिन्न प्रकार से शृंगार करती है। मयूर पंख फैलाकर नृत्य करते हैं। बागों में कोयल अपना सुन्दर राग सुनाने लगती है। इसी प्रकार से नरेश मेहता ने प्रकृति का पूर्ण चित्रण व उसकी रंग शोभा का रमणीय चित्रांकन किया है।
”ओ फाल्गुनी आकाश
तुम्हारी पीताम्बरा
धूप के लिए ही तो
मैं प्रतीक्षित था
नदी थी
बुरूस थी
खिड़कियों से झाँकता
सहजन प्रति प्रतीक्षित था
सुना था उत्सुक बहुत थे
ठाक और पलाश।।
उतरने माघ का यह
सोन पर्वी दिन-
कबूतर कण्ठ के आकाश में
यशस्वी है।
पीले ज्वार सी।।“8
कवि नरेश मेहता द्वारा ‘महाप्रस्थान’ नामक कविता में हिम और हिमालय के सुन्दर चित्रण का वर्णन किया है। हिम और हिमालय के प्रतीक मानकर दृष्टि और सृष्टि का वर्णन किया है। शिव का वर्णन, पर्वत की ऊँची-ऊँची चोटियों का बहुत मनोरम दृश्य दिखाया है। पर्वत मालाएँ आदि का चित्रण किया है। क्योंकि हिमालय का हिमाच्छादित रूप अपनी सम्पूर्णता के साथ साकार हो उठता है। शिखर-प्रतिश्विर आदि दृश्यों का वर्णन है।
”पता नहीं
किस इतिहास-प्रतीक्षा में,
यहाँ शताब्दियाँ भी लेटी है
हिम थुल्मों में।
शिव की गौर प्रलम्ब भुजाआंे सी
पर्वत मालाएँ।
नभ के नील पटल पर
पृथिवी-सूक्त लिख रही।
नीलमवर्णी नभ के इस ब्रह्माण्ड-सिन्धु में
हिम का राशि भूत
यह ज्वार
शिखर, प्रतिशिखर
गगनामुल।।“9
नरेश मेहता जी ने हिम शिखरों को देवात्मा एवं देवतुल्य व देवकन्याओं रूपी मानकर हिम की पवित्रता का वर्णन किया है। क्योंकि जल ही जीवन का आधार है। कवि कहता है-
”हिमता ऊध्र्वमुखी हो
रेंग रही नस-नस मंे से
चेतना ओर।
ठिठुर कर गले जा रहे अंग।।
आसन्न देह
विक्षुब्ध चेतना के क्षत-विक्षत पर्दे।।“10
कवि नरेश मेहता ने प्रकृति के अनेक रूप का वर्णन किया है। वह प्रकृति को पशु, पक्षी, खेत-खलिहान, जीव-जन्तु, फूल, पत्ती आदि के रूप में भी देखता है। कवि द्वारा कोयल, मैना, तोता, कूप, बावली, कनेर, यमुनातट, बटेर, नदीतट, पलाश, फागुन, सरसों, वायु आदि का चित्रण किया है।
”पीले फूल कनेर के,
पथ अंजोरते।
सिन्दूरी बडरी अंखियन के
फूले फूले दुपेर के।।
दौड़ी हिरना
बन-बार अंगना
बेतवनों की चोट मुरलिया
समय-संकेत सुनाये
नाम बजाये,
सांझ सकारे
कोयल तोते के संग हारे
ये रतनारे-
खोजे कूप बावली, झाऊ
बाट बटोही जमुन, कद्दारे
कहां रास के मधु पलाश है ?
बट शाखों पे सगुन डाकते मेरे मिथुन बटेर के
पीले फूल कनेर के!!“11
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि नरेश मेहता के काव्य सर्जन मंे प्रकृति का विभिन्न रूपों मंे सुन्दर चित्रण दिखाई देता है। वे प्रकृति के परम प्रेमी हैं। वे प्रकृति में घुल-मिल जाते हैं, बहुत ही नजदीकी से प्रकृति के एक-एक अंग का रसास्वादन करते हैं। नदी नाले, पर्वत, आकाश, हिम, मेघ, फल-फूल, पेड़-पौधे, हिमालय, सागर विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ आदि का रमणीय चित्रण किया है और मानव को प्रकृति के प्रति वफादार व उसका प्रेमी बनने की प्रेरणा दी है जो जीवन के लिए बहुत उपयोगी है।
संदर्भ सूची:-
1. नरेश मेहता, समिधा, खण्ड-एक (चिरंजीविता) कविता, पृष्ठ 406
2. विश्वम्भर ‘मानव’, रामकिशोर शर्मा, आधुनिक कवि, पृष्ठ 226
3. नरेश मेहता, समिधा, खण्ड-एक (ताल-जल) कविता, पृष्ठ 75
4. वही, समिधा खण्ड-एक (मालवी फाल्गुन) कविता, पृष्ठ 76
5. वही, समिधा खण्ड-एक (महाप्रस्थान) कविता, पृष्ठ 266
6. वही, पृष्ठ 18
7. वही (देखना एक दिन) कविता, पृष्ठ 153
8. वही (बोलने दो चीड़ को) काव्य संग्रह, पृष्ठ 120-121
9. वही (महाप्रस्थान) समिधा खण्ड-दो, पृष्ठ 265
10. वही, पृष्ठ 267
11. वही, पृष्ठ 172
– डाॅ. मुकेश कुमार