दिसंबर माह, वर्ष का सबसे विशेष एवं प्रिय माह होता है। पूरे वर्ष का लेखाजोखा करने के लिए एक ठहराव यहीं आता है। एक नज़र उस सूची पर जाती है, जो इस वर्ष के प्रारम्भ में लिखित/मौखिक रूप में बनाई गई थी। अचानक अहसास होता है, ओह्ह! कितना कुछ पीछे छूट गया और कितना कुछ ऐसा हुआ, जिसका अनुमान तक न था। कहीं कोई, गहरी कसक लिए दुःख को अलविदा कहने का समय तय करता है तो कहीं प्रसन्नता के साथ एक नए उत्सव की तैयारियाँ प्रारम्भ हो जाती हैं। समय न किसी का कभी हुआ है और न होगा; कब, कहाँ, क्या हो जाए, कोई नहीं जानता लेकिन फिर भी हम योजनाएँ बनाना नहीं छोड़ते। छोड़ना चाहिए ही नहीं क्योंकि यह भी अनुशासित जीवन जीने का एक तरीका ही है, जो हमें समयानुसार ढालने में सहायता करता है और हम किसी भी परिस्थिति से जूझने के लिए स्वयं को सशक्त पाते हैं।
‘क्या खोया, क्या पाया’ की तर्ज़ पर यूँ ही हर वर्ष बीतता आया है, पर इस दिसंबर से इश्क़ की बात ही कुछ और है। गुलाबी सर्दी और गुनगुनी धूप का ये आनंद और कहाँ देखने को मिलता है। कोहरे को चीरते हुए चलना और चुपचाप जेब में हाथ डाल चार-पाँच मूँगफलियाँ गटक लेना भला किसे नहीं भाता! जीवन की परेशानियाँ अपनी जगह हैं पर अंगीठी की चटकती लाल-नारंगी रौशनी में, गरमा-गरम चाय का कप लिए नववर्ष के स्वागत का उत्साह अब भी कई दिलों में शेष है। विदाई की ओस में भीगे, आँगन में पसरे हरसिंगार और डालियों से झूलते मखमली गेंदे के पुष्प शीत ऋतु का आँचल थामे आगामी वर्ष के आगमन की प्रतीक्षा इस तरह करते हैं, जैसे कोई बच्चा अपनी विशलिस्ट क्रिसमस-ट्री के नीचे रख सांटा क्लॉज़ के आने की आशा में टुकटुकी लगाए, अगली सुबह की पहली किरण की राह तका करता है। पुष्प हो कि बच्चे, ये सदैव ही महकते-चहकते हुए नववर्ष के स्वागत को आतुर रहे हैं।
हाँ, नोटबंदी की मार ने उल्लास में कुछ कमी तो अवश्य की है। इस पर विमर्श किया जाए तो प्रारम्भ में एक सकारात्मक सोच लिए सरकार का यह निर्णय अत्यंत ही प्रशंसनीय और कारगर प्रतीत होता था लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, बात बिगड़ती नज़र आ रही है। प्रश्न लंबी, अंतहीन कतारों का नहीं है बल्कि इस नए उत्पन्न भ्रष्टाचार का है, जिसने इतने कम समय में नकली नोटों का व्यापार बढ़ा दिया है, प्रतिशत के हिसाब से काले धन को सफ़ेद किये जाने के विविध तरीक़े ईजाद कर दिए हैं और धनाढ़्य, सक्षम वर्ग के घरों में नए नोटों की बाढ़ लगा दी है। गरीब तो अब भी वहीं रहा बल्कि और भी गहरे रसातल में चला गया है। उच्च वर्ग के खर्चों में कोई कमी नहीं आई और न ही उन्हें इतनी परेशानी उठानी पड़ी। आम जनता को भी धक्के खाने की आदत है पर प्रतिदिन मज़दूरी करके दो वक़्त की रोटियां कमाते उन श्रमिकों का क्या? जिनके घरों में इन दिनों चूल्हा नहीं जल रहा! उनके मालिकों के पास उन्हें देने को छोटे नोट नहीं। यदि नोटबंदी को लागू करने के चार-पांच माह पूर्व से सभी बैंक और ए.टी.एम से सिर्फ पचास और सौ के नोट ही मिलते तो यह समस्या इतनी विकराल नहीं होती और हालात वर्तमान से बेहतर दिखाई देते! हालाँकि बीते दिनों में अन्य विभागों की तरह कुछ बैंक अधिकारियों के काले कारनामों ने भी इस परेशानी में इज़ाफ़ा करने के पुख़्ता सबूत पेश कर देश को शर्मिंदा किया है। यूँ भ्रष्टाचार की ख़बरें हमें अचरज में डालना तो कब का छोड़ चुकी हैं।
इन सभी घटनाओं से इतना तो पुन: स्पष्ट हुआ है कि नोट बदल देने से देश नहीं सुधरेगा। सोच बदलनी होगी। यह कर्त्तव्य मात्र सरकार का नहीं अपितु हर भारतीय का भी उतना ही है। सरकार, नैतिक शिक्षा को अनिवार्य विषय बनाए और हम भी अपने-अपने घरों में नैतिक मूल्यों का ज्ञान दें। देश का हर नागरिक शिक्षित हो, ईमानदार हो, देशभक्त हो ताकि उसे आसानी से बेवकूफ़ न बनाया जा सके। बेरोजगारी दूर हो कि कोई पैसे का प्रलोभन न दे सके। संवेदनशील हो कि दूसरे के दुःख को समझ सके। सत्य की राह पर चलने वाला और बाधाओं से न घबराने वाला धैर्यवान हो कि कोई उसे डिगा न सके। भ्रष्टाचार की जड़ों में गरीबी और महत्वाकांक्षा के सिवाय आखिर है ही क्या? इसे उखाड़ने के लिए, बदले नोटों की नहीं बल्कि उचित मूल्यों की समझ भरी कुदाली की आवश्यकता है। दुर्भाग्य! वोट की राजनीति इन सब पर भारी होती आई है। फिलहाल उम्मीद की खाली टोकरी के भरे जाने की आशा ही कर सकते हैं।
कैशलैस व्यवस्था एक अच्छा विकल्प है पर शिक्षा के अभाव में इसका अस्तित्व संदेहात्मक ही नज़र आता है। तकनीकी कमजोरियां भी डिजिटल लूटपाट को बढ़ावा देंगीं। पहले इन पक्षों को सुदृढ़ किया जाना ज्यादा जरुरी है। सोचने वाली बात यह भी है कि जहाँ नागिन, पुनर्जन्म, भूतप्रेत और मक्खी -मच्छर बनने वाले जैसे धारावाहिक रेटिंग में प्रथम आते हैं, वहाँ डिजिटल युग की कल्पना को यथार्थ के धरातल तक पहुँचने में कितनी दूरी तय करनी होगी!
इधर राष्ट्रगान को लेकर मचा विवाद व्यर्थ ही है। ये कहीं भी बजे, इसकी धुन और शब्दों में वो ताक़त है कि सीधे रूह में उतर जाता है, अपनी भारतीयता पर और भी गर्व होने लगता है। यह हम सब के हृदय में यूँ बसा है, ज्यों फूलों में सुगंध बसती है, जल में तरंग बजती है। इसका असर सचमुच गहरा होता है।
यदि ऐसी मान्यता है कि इससे देशप्रेम की भावना बलवती होती है तो सबसे पहले इसे संसद के हर सत्र में बजाएं, जहाँ इन दिनों शोरोगुल के अलावा और कोई आवाज़ नहीं आती! इसे चुनाव रैलियों में बजाएं, जहाँ वोटों को खरीदने के तमाम प्रयत्न किये जाते हैं। इसे न्यायालय और बंदीगृहों में बजाया जाए कि इससे प्रेरित होकर सच्चा न्याय मिल सके और अपराधियों की घृणित मानसिकता में बदलाव आए। इसे बसों, ट्रेनों और यातायात के हर साधनों में बजाया जाए कि स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराध में कमी आये। इसे हर स्कूल-कॉलेज में अनिवार्य कर दिया जाए कि बच्चों के प्रति स्नेह का और भी उत्तम वातावरण बने। हमारा अपना गान है, सबको प्रिय है। हम सब इसे सदैव ही खुलकर गाते आये हैं। बस…बाध्य न करें क्योंकि यह प्रेम है, स्वत: ही भीतर से उपजता है!
नए वर्ष में आप सभी एक बार फिर से नई उम्मीद, नए स्वप्न और नए उत्साह के साथ प्रवेश करें। देश की शक्ति में वृद्धि हो, शांति बनी रहे और सत्य की जयकार हो। इस पावन भूमि की उर्वरता और भी समृद्ध हो, सबके जीवन में खुशहाली आये। गतिशील,सुन्दर जीवन हो। तिरंगे के इसी संदेश के साथ हमारे सभी पाठकों, मित्रों, रचनाकारों को ‘हस्ताक्षर टीम’ की ओर से नववर्ष की अशेष शुभकामनाएं!
– प्रीति अज्ञात