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नज़ीर अकबराबादी का मानवतावादी दृष्टिकोण: इमरान अली
पुरानी रूढि़यों, जर्जर व खोखली परम्पराओं से मुक्त होना आधुनिकता की पहली शर्त है। आधुनिकता से तात्पर्य हमारे चिंतन और उसके बौद्धिक पक्ष से है, न कि बाहरी दिखावे या पहवावे से। आधुनिक युग में समाज को बाँटने और तोड़ने वाले कारकों में साम्प्रदायिकता, जात-पाँत, ग़रीबी, ऊँच-नीच की भावना प्रमुख हैं। समाज की इन बीमार प्रवृत्तियों का विरोध और संघर्ष करने वाला व्यक्ति ही आधुनिक और मानवीय दृष्टि का संवाहक कहा जाता है। इस सन्दर्भ में नज़ीर की कविता समाज और मनुष्य को बाँटने वाली भयावह प्रवृत्तियों के विरोध में खड़ी हुई दिखाई देती है। दामोदर प्रसाद वासिष्ठ जी का कहना है कि-‘‘इस देश में हिन्दू हैं, मुसलमान हैं, धनी हैं, ग़रीब हैं, विद्वान हैं, मूढ़ हैं और इन सबके साथ विरुद्ध संस्कारों और विरोधी स्वार्थों की विराट् वाहिनी है। परन्तु इन समस्त विरोध-संघातों से बड़ा और सारे विश्व को चलाने वाला है मनुष्य। इसी मनुष्य की जययात्रा की गाथा कहना नज़ीर अपना उद्देश्य समझते हैं।’’1
नज़ीर मानवता के पुजारी थे, उन्होंने मानवता को जीवन में श्रेष्ठ माना, उनके लिए मानवता से बड़ा कोई आदर्श नहीं था। ईश्वर ने आदमी को पैदा किया है जब उस की दृष्टि में अन्तर नहीं है तो फिर इन्सान की दृष्टि में अन्तर क्यों? नज़ीर की दृष्टि में उस आदमी का महत्व अधिक है जो नकली व कृत्रिम परिधानों के बीच में सिसक रहा है, हर वर्ग और हर वर्ण का मनुष्य सिर्फ आदमी है और कुछ नहीं-
दुनियां में बादशाह है सो है वह भी आदमी।
और मुफि़्लसो गदा है सो है वह भी आदमी।।
ज़रदार बेनवा है, सो है वह भी आदमी।
नैंमत जो खा रहा है, सो है वह भी आदमी।।
टुकड़े चबा रहा है, सो है वह भी आदमी।2
नज़ीर की दृष्टि में सभी प्राणी समान हैं। वेे बादशाह से लेकर फक़ीर तक सभी को एक समान मानते हंै। उनकी दृष्टि में सज्जन, दुर्जन, धनी, निर्धन सभी मनुष्य हैं। डाॅ0 एहतेशाम हुसैन का कहना है कि-‘‘जनता से नज़ीर का ऐसा घनिष्ट संबंध था कि उनके यहाँ ऊँच-नीच, हिन्दू-मुस्लिम, बड़े-छोटे का भेद-भाव मिट गया था। उनके स्वभाव में ऐसी सरलता और व्यवहार में ऐसी स्वच्छंदता पायी जाती थी कि सभी उनके मित्र थे।’’3 उनके यहाँ मानवधर्म आदर्श रूप में उपस्थित रहा, इसीलिए वे कर्म में विश्वास करते थे। उनका कहना था कि आदमी सिर्फ आदमी है भले ही उसके काम अलग-अलग हों, उसकी वेशभूषा अलग हो, उसका रंग रूप अलग हो-
यां आदमी ही लालो जवाहर हैं बे बहा।
और आदमी ही ख़ाक से बदतर है होगया।
काला भी आदमी है कि उल्टा है जूं तवा।
गोरा भी आदमी है कि टुकड़ा सा चांद का।
बदशक्ल, बदनुमा है सो है वह भी आदमी।4
नज़ीर का यह मानना हैं कि सभी मनुष्य ईश्वर की कृति हैं, और उनमें कोई भेद नहीं हैं। ऊँचे पद पर बैठने से कोई व्यक्ति बड़ा या महान नहीं हो जाता, बल्कि उसके लिए ऊँचे गुणों का होना आवश्यक है न कि ऊँचे पद पर बैठना। नज़ीर युगीन समाज में सामाजिक ढाँचा अस्त-व्यस्त था। उस समय की राजनैतिक उथल-पुथल और सांस्कृतिक-सामाजिक जटिलताएँ ऐसी समस्या बन चुकी थीं कि उन्हें सम्यक् रीति से राह दे पाना कठिन हो गया था। मुग़ल शासन कमज़ोर हो चुका था, अनेक छोटे-छोटे राज्य स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे और विभिन्न धर्मों और मतों में टकराहट की आवाज़ व्यापक स्तर पर फैल रही थी। समाज में दास-प्रथा, वेश्यावृत्ति, शराबख़ोरी, जुआ और जालसाज़ी ने अपना जाल फैला रखा था। ऐसे समय में, नज़ीर की संवेदनशील मानवीय दृष्टि का साक्षात्कार हुआ, जिसके दो रूप दिखाई दिये-एक तो उनका समाज-सुधारक रूप तथा दूसरा ईश्वर के प्रति प्रेम। कविवर नज़ीर हर तरह की सामाजिक बीमारी से मनुष्य को मुक्ति दिलाना चाहते थे-
हुजरे में अगर बैठ के हम हो गए दरवेश।
और चिल्ला कशी करके हमेशा रहे दिलरेश।
आबिद हुए, ज़ाहिद हुए, सरताज हक़ अन्देश।
जब आई अजल, एक रियाज़त न गई पेश।
मर-मर के जो की कोशिशे, ताआत तो फिर क्या?।5
कविवर नज़ीर मनुष्यों को मौत से सावधान करते हंै। मौत जब आती है तो दरवेश, सूफी, सन्त, विद्वान, राजा किसी को नहीं छोड़ती। उनका सारा चिंतन मानव-सापेक्ष है। प्रत्येक मनुष्य संसार में बराबर है, कोई छोटा-बड़ा नहीं है। मध्ययुगीन साहित्य चिन्तन में कविवर नज़ीर विलक्षण कोटि के कवि रहे हैं। उनका पूरा विश्वास है कि मानव का मानव से विवाद उसके अज्ञान का परिचायक है। ईश्वरीय रचना मंे तो सभी एक हैं परन्तु आपसी विग्रह मनुष्य की देन है। उनकी मानवीय संवेदना समकालीन सन्दर्भ में विशेष अर्थ रखती है।
नज़ीर ने, अपने युग के मानव-समाज की विकृति को बड़े क़रीब से देखा था। उन्होंने सदैव यही चाहा कि जाति, धर्म, समाज और हर वर्ग में समन्वय व सामंजस्य स्थापित हो ताकि इस समन्वय के आधार पर समग्र मानवता का सांस्कृतिक विकास सुनिश्चित हो सके। इस संबंध में डाॅ0 अबुल्लेस सिद्दीकी का कहना है कि-‘‘उर्दू शायरी की तारीख़ में शायद ही दूसरा व्यक्ति इंसानियत का इतना बड़ा अलमबदार हुआ हो जितना नज़ीर।’’6 नज़ीर मानवता के पक्षधर थे उनकी नज़र में हिन्दू-मुसलमान, ब्राह्मण व शूद्र का कोई भेद नहीं था। हिन्दू-मुसलमानों की क़ौमी एकता पर उनका चिन्तन निरन्तर बना रहा।
नज़ीर ने अपने युग के अनेक राजा-महाराजाओं के सुख, ऐश्मर्यमय जीवन को देखा और सुना भी। राजा-महाराजों के आपसी कलह और बाहरी आक्रमणकारियों के प्रभाव से राजवंश ध्वस्त हो रहे थे। बाहरी आक्रमणकारियों के प्रभाव और राजवंश ध्वस्त होने से यहाँ न दारा रहे न आज़म, न सिकन्दर रहे न अकबर, बल्कि सब समाप्त हो गये। इन सभी घटनाओं का प्रभाव नज़ीर के संवेदनशील हृदय पर पड़ा। नज़ीर सदैव समाज मे उत्थान और विकास के लिए सोचते रहते थे। उनका मानव जीवन के लिए सदैव यही संदेश रहा कि इस संसार में जो हमारे पास है उस पर अभिमान नहीं करना चाहिये, क्योंकि इस संसार में सब कुछ समाप्त हो जाना है। मौत का समय निश्चित है वह सभी पर समान रूप से वार करती है और उसके दंश को प्रत्येक जीव को भोगना है-
गर तू है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है।
ऐ गा़फि़ल, तुझ से भी चढ़ता एक और बड़ा व्यापारी है।
क्या शक्कर मिश्री क़ंद गरी क्या सांभर मीठा खारी है।
क्या दाख, मुनक़्क़ा सोंठ, मिरच, क्या केसर लौंग सुपारी है।
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा।।7
नज़ीर जातीय संकीर्णता से मुक्त थे, उन्होंने अपने युग के प्रचलित सभी मतों केे सारतत्व को ग्रहण करते हुए मानवीय धरातल को प्रभावित किया। समाज में फैले भेद-भाव को दूर करना और मानवता का प्रचार करना, उनका लक्ष्य था। सभी को ईश्वर की संतान समझना, मनुष्य को मनुष्य के बराबर समझना, जाति और लोक-धर्म के विभेद से आज़ाद रहना और उदार मानवता को वाणी देना नज़ीर की प्रवृत्ति में निहित था। डाॅ0 अब्दुल अलीम का मत हैं कि-‘‘नज़ीर एक मानवतावदी कवि थे, और वह मानवतावादी विचारधारा से पोषित समाज का निर्माण चाहते थे।’’8 मानव जाति के लिए उनके मन में जो संवेदना थी, वह आधुनिक युग कीं माँग है। आधुनिक युग मानवतावादी संवेदना से वंचित है। मानव मन के प्रति नज़ीर के व्यक्तित्व का संवेदनात्मक रूप समाज को झकझोर देता है। नज़ीर के काव्य में लोकोन्मुखता, मानवीयता और सामाजिक जुड़ाव जैसी आदर्श भावनाओं का संगम रहा है। आधुनिक युग में नज़ीर, कबीरदास के समतुल्य समाज सेवक के रूप में उपस्थित दीखते हैं। नज़ीर हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए निरन्तर प्रयासशील बने रहे। उनकी दृष्टि में आदर्श व्यक्ति वह रहा जो ईश्वर में आस्था रखता हो, भेद-भाव से परे हो, वाणी से मृदु-भाषी हो, लोगों से सच्चाई से पेश आता हो, और कर्म से महान हो-
तू सबका ख़ुदा सब तुझ पे फि़दा।
अल्लाहो ग़नी अल्लाहो ग़नी।
हे कृष्ण कन्हैया, नंद लला।
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी।9
नज़ीर आस्तिक विचारधारा वाले व्यक्ति थे। वे ईश्वर में विश्वास करते थे इसीलिए अल्लाह और भगवान में कोई अन्तर नहीं करते और सभी को ईश्वर का ही रूप मानते। उन्होंने वर्ग रहित समाज की कल्पना की। वे समाज की मौलिक एकता के पक्षधर, सम्पूर्ण मानवता के लिए संकल्पबद्ध तथा नैतिक नियमों के आचरण पर बल देते थे। कपट, पाखंड, अत्याचार के वे विरोधी रहे। नज़ीर शुद्ध हृदय, सादगी, और पे्रम के प्रबल समर्थक रहे। वे चेतना सम्पन्न और सहृदय व्यक्ति थे। जीवन के किसी विशिष्ट पहलू पर ज़ोर न देकर वे सम्पूर्ण मानव समाज की काया पलट करने की बात करते रहे-
क्या ओछी ज़ात पात के, अशराफ़ क्या नजीब।
कि़स्मत से फूटी कौड़ी, किसी को न हुई नसीब।
जिस दम क़ज़ा के हाथ ने, बंद आंख की हबीब।
क्या होशियारो आकि़लो दानाओं क्या तबीब।
कोई ख़ज़ाने ख़ाक में गड़वा के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया।10
नज़ीर ने एक साधारण व्यक्ति की तरह समकालीन सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों, अलगावों, असमानताओं, विरोधाभासों एवं द्वन्द्वों को नज़दीक से सिर्फ देखा ही नहीं बल्कि भोगा भी। इस संबंध में दामोदर प्रसाद वासिष्ठ का कथन है कि-‘‘कबीर मानवता की पृष्ठभूमि और दर्शन को ही मानते हैं और नज़ीर भी। किन्तु मियां नज़ीर ने किसी को डांट फटकार नहीं लगाई क्योंकि वे मूलतः सुधारक नहीं थे, इसी कारण उनका मानवतावाद अधिक ग्राह्य और उपादेय रहा।’’11 उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम के साथ सिक्खों को भी जोड़कर साझा संस्कृति का निर्माण किया-
है कहते नानक शाह जिन्हें वह पूरे हैं आगाह गुरू।
वह कामिल रहबर जग में हैं यूँ रौशन जैसे माह गुरू।
मक़्सूद मुराद, उम्मीद सभी, बर लाते हंै दिलख़्वाह गुरु।
नित लुत्फ़ो करम से करते हैं हम लोगों का निरबाह गुरू।
इस बखि़्शश के इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरू।
सब सीस नवा अरदास करो, और हर दम बोलो वाह गुरू।12
निश्चित रूप से जिस प्रकार नज़ीर ने कृष्ण, दुर्गा, शिव, भैरों तथा अल्लाह की प्रशंसा की उसी प्रकार गुरु नानक देव की वंदना करके समता, समन्वय और मानवता का संदेश दिया। नज़ीर का काव्य मध्यकालीन भारतीय सामन्ती व्यवस्था की सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य-चेतना को प्रस्तुत तो ज़रूर करता है लेकिन उनके काव्य का मूल आधार आदमी को आदमी से जोड़ना ही रहा। इसीलिए नज़ीर नैतिक मूल्यों के निर्माण में विश्वास करते हैं-
ज़रदार, मालदार, गदा, शाह क्या वज़ीर।
सरदार क्या ग़रीब तवंगर हो या फ़क़ीर।
हर दम सबों को देखा इसी हाल में असीर।
अपनी यही दुआ है शबो रोज़ ऐ ‘नज़ीर’।।
दे शर्मों आबरू से ख़ुदा पेट के लिए।13
नज़ीर ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर सबको पेट की भूख के लिए खाना दे लेकिन इज्ज़त और आबरू के साथ। वे अपनी कविताओं में मनुष्य की नैतिकता पर बल देते रहे, उनकी मूल्य-चेतना लोक-चेतना से प्रेरित रही। यह सच है कि प्रत्येक मनुष्य दुनियाँ में अच्छा या बुरा जो भी काम करता है, वह पेट के लिए ही करता है। इसीलिए उन्होंने ईश्वर से इज्ज़त और आबरू के साथ पेट की क्षुधा शान्त करने की प्रार्थना की। अतः नज़ीर ने जिस वातावरण में आँख खोली, वहाँ इंसान रंग, नस्ल और मज़हब के आधार पर विभिन्न भागों में बँटा था। आर्थिक आधार पर भी मज़दूर, मालिक, किसान-ज़मीदर आदि के बीच बँटवारा था। यह विभाजन केवल मध्यकाल तक सीमित नहीं रहा बल्कि आज भी है। आज भारत में ही नहीं बल्कि समस्त संसार में नस्ली विभाजन तथा आर्थिक विभाजन मौजूद हंै। इस विभाजन और भेद-भाव का विरोध नज़ीर ने मध्यकाल में ही किया। आधुनिक युग में भी इस भेद का विरोध करना आवश्यक है। इस दृष्टि से नज़ीर के मन में मानव, समाज व देश के प्रति जो संवेदना रही है वह आज भी प्रासंगिक है।
आधुनिक युग में पूँजीवाद ने समाज को बाँट दिया है। निम्न वर्ग का शोषण तथा मध्यवर्गीय जीवन का दिखावा और खोखलापन जैसी विकृतियाँ आ गई हैं, मनुष्य-मनुष्य न रहकर केवल मशीन बनकर रह गया है और आदमी का वजूद खो गया है, ऐसे आधुनिक युग में नज़ीर और उनका काव्य अधिक मूल्यवान है।
संदर्भः-
1. डाॅ0 दामोदर प्रसाद वासिष्ठ, कविवर नज़ीर अकबराबादी के हिन्दी काव्य का आलोचनात्मक अध्ययन, शोध-प्रबन्ध प्रकाशन, दिल्ली, 1973, पृ0सं0 278
2. डाॅ0 नज़ीर मुहम्मद (संपा0), नज़ीर ग्रन्थावली (आदमीनामा), हिन्दी संस्थान, उत्तर प्रदेश, लखनऊ, 1992, पृ0सं0 239
3. डाॅ0 एहतेशाम हुसैन, उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2008, पृ0सं0 98
4. डाॅ0 नज़ीर मुहम्मद (संपा0), नज़ीर ग्रन्थावली, (आदमीनामा), पृ0सं0 241
5. वही, (दुनियाँ में), पृ0सं0 150
6. अबुल्लेस सिद्दीकी, नज़ीर अकबराबादी: उनकी शायरी और अहद, उर्दू ऐकेडमी, कराँची, 1959, पृ0सं0 61
7. डाॅ0 नज़ीर मुहम्मद (संपा0), नज़ीर ग्रन्थावली (बंजारानामा), पृ0सं0 176
8. डाॅ0 अब्दुल अलीम, नज़ीर अकबराबादी और उनकी विचारधारा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1992, पृ0सं0 185.
9. डाॅ0 नज़ीर मुहम्मद (संपा0), नज़ीर ग्रन्थावली(श्री कृष्ण की तारीफ में), पृ0सं0 81
10. वही, (मौत), पृ0सं0 147
11. डाॅ0 दामोदर प्रसाद वासिष्ठ, कविवर नज़ीर अकबराबादी के हिन्दी काव्य का आलोचनात्मक अध्ययन, पृ0सं0 279
12. डाॅ0 नज़ीर मुहम्मद (संपा0), नज़ीर ग्रन्थावली (गुरू नानक शाह), पृ0सं0 84
13. वही, (पेट की फि़लासफ़ी), पृ0 सं 224
– इमरान अली