आलेख
‘ध्रुवस्वामिनी’ में नारी जागरण की चेतना- डॉ. सुरंगमा यादव
1933 ई. में प्रकाशित जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ में नारी स्वातन्त्र्य का भाव आद्योपान्त विद्यमान है। ये वो समय था, जब देश में स्वाधीनता आंदोलन और नवजागरण का बिगुल पूर्ण तीव्रता के साथ बज उठा था। राजनीतिक स्वतन्त्रता के साथ-साथ ऐसी परम्परागत रूढ़ियों एवं मान्यताओं से मुक्त होने की छटपटाहट भी जन-मानस को उद्वेलित कर रही थी, जो सदियों से वर्ग विशेष के शोषण और दमन का कारण बनी हुई थी। दलित और नारी ये दोनों युगों से उत्पीड़न और शोषण का शिकार होते आये थे। इनका जीवन कठिन संघर्षों की कहानी रहा है। आधुनिक युग में इस वर्ग से जुड़ी समस्याओं के समाधान और उनके सम्मान के लिए बुद्धिजीवी विचारकों, समाज-सुधारकों, विद्वानों-मनीषियों, नेताओं तथा साहित्यकारों ने अपने-अपने स्तर से महती प्रयास किये। उन्हीं प्रयासों का परिणाम है कि बहुत सारी कुप्रथाओं और परम्पराओं से नारी और दलित को न केवल मुक्ति मिली वरन् इनके उन्नयन के लिए अनेक उपाय भी किए गये।
जागरुक साहित्यकार युगीन परिस्थितियों और समाज से कदापि विमुख नहीं रह सकता। यही कारण है कि जयशंकर प्रसाद अपने नाटकों में नारी मुक्ति के प्रश्न को किसी न किसी रूप में हमेशा ही उठाते रहे हैं। ‘ध्रुवस्वामिनी’ में उन्होंने स्त्री-अस्तित्व, अधिकार एवं पुनर्विवाह की समस्या को उठाया है। इसमें उन्होंने पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी शोषण के विरुद्ध विद्रोही स्वर व्यक्त किया है। इस नाटक के नारी पात्र प्रगतिशील विचारों के हैं तथा अन्याय का प्रतिरोध करने वाले हैं। नाटक की नायिका ध्रुवस्वामिनी, पुरुषों द्वारा स्त्रियों पर किए जा रहे अत्याचारों एवं पुरुषों की अधिकारवादी प्रवृति का कड़े शब्दों में विरोध करती है। पुरुष स्त्री को भोग-विलास की वस्तु समझता है। उसके साथ मनमाना व्यवहार करता है। ध्रुवस्वामिनी के लिए ये असहनीय है। जब रामगुप्त शकराज के सन्धि प्रस्ताव को स्वीकार कर ध्रुवस्वामिनी को शक-शिविर में भेजने का निर्णय करता है, तो वह दृढ़तापूर्वक कहती है, “पुरुषों ने स्त्रियों को अपनी पशु-संपत्ति समझकर उन पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है, वह मेरे साथ नहीं चल सकता। यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, तो मुझे बेच भी नहीं सकते हो।” ध्रुवस्वामिनी अन्याय के आगे झुकती नहीं है। वह स्वाभिमानी है। अपने आत्म-सम्मान पर आँच नहीं आने देती है। उसके विरोध के बावजूद जब रामगुप्त उसे शकराज के पास भेजने के अपने निश्चय पर अडिग रहता है, तो वह उसकी कायरता और नीचता की भर्त्सना करती है। वह अपने आत्म-सम्मान की रक्षा स्वयं करने का संकल्प लेती है, “मैं अपनी रक्षा स्वयं करूँगी। मैं उपहार में देने की वस्तु, शीतलमणि नहीं हूँ। मुझमें रक्त की तरल लालिमा है। मेरा हृदय उष्ण है और उसमें आत्म-सम्मान की ज्योति है। उसकी रक्षा मैं ही करूँगी।” ध्रुवस्वामिनी के इस कथन के माध्यम से प्रसाद जी स्त्रियों में आत्मबल और आत्म-सम्मान जाग्रत करना चाहते हैं। ताकि वे अपने निर्णय स्वयं ले सकें और उन पर कोई दूसरा अपनी बात थोप न सके।
ध्रुवस्वामिनी धर्मशास्त्रों की स्त्री-विरोधी मान्यताओं का भी विरोध करती है। इनके द्वारा विवाह के नाम पर स्त्रियों को पुरुषों के इतना अधीन बना दिया जाता है कि वह किसी भी स्थिति में पति की अवज्ञा नहीं कर सकती। भले ही वह आज्ञा अनुचित, अन्यायपूर्ण तथा स्त्री सम्मान को ठेस पहुँचाने वाली ही क्यों न हो। ध्रुवस्वामिनी पुरोहित से प्रश्न करती है, “आपका कर्मकाण्ड और आपके शास्त्र क्या सत्य हैं, जो सदैव रक्षणीया स्त्री की यह दुर्दशा हो रही है?” भारतीय समाज में बचपन से ही लड़कियों का पालन-पोषण इस प्रकार किया जाता है कि वे स्वयं को पुरुषों के समकक्ष समझने की बात सोच भी नहीं सकतीं। पुरुष प्रधान समाज में हमेशा से ही पुरुषों को श्रेष्ठ समझा जाता रहा है। बाल्यकाल से ही स्त्रियों के मन-मस्तिष्क में रोपा गया पुरुषों की श्रेष्ठता का पौधा धीरे-धीरे इतना विकसित और मजबूत हो जाता है कि वे पुरुषों की अधीनता को सहज भाव से स्वीकार करने लगती हैं। अपने साथ हो रहे भेदभाव और अन्याय को सहना उनके स्वभाव का अंग बन जाता है। पुरुषों के मन में स्त्रियों के प्रति सम्मान का भाव न होने के कारण ही वे हमेशा उसका तिरस्कार और अपमान करते हैं। नाटक की एक अन्य स्त्री पात्र मन्दाकिनी के माध्यम से प्रसाद जी ने स्त्रियों की दयनीय दशा का चित्रण इन शब्दों में किया है, “स्त्रियों के इस बलिदान का भी कोई मूल्य नहीं। कितनी असहाय दशा है। अपने निर्बल और अवलम्बन खोजने वाले हाथों से यह पुरुषों के चरणों को पकड़ती हैं और वह सदैव ही इनको तिरस्कार, घृणा और दुर्दशा की भिक्षा से उपकृत करता है। तब भी यह बावली मानती नहीं।” ध्रुवस्वामिनी स्त्रियों की इस दुर्दशा के लिए उनकी उस गुलाम मनोवृति को उत्तरदायी मानती है, जिसकी वजह से वह स्वयं को अबला मानकर अन्याय सहती रहती है। वह कहती है, “पराधीनता की एक परम्परा-सी उनकी नस-नस में, उनकी चेतना में न जाने किस युग से घुस गयी है।”
धर्म और विवाह के नाम पर स्त्रियों को उनकी सहमति के बिना ही एक ऐसे बन्धन में बाँध दिया जाता था, जिसमें बँधकर भले ही उन्हें कितने ही कष्ट क्यों न उठाने पड़ें पर उस बन्धन को तोड़ने की बात भी सोचना पाप समझा जाता था। हमारे धर्मशास्त्र विधान करते हैं कि पति चाहे जैसा भी हो पत्नी हर स्थिति में उसकी सेवा करे तथा उसके साथ निर्वाह करे। श्रीमद् भागवत् के अनुसार-
दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोऽपि वा।
पतिः स्त्रीभिनं हातव्यो लोकेप्सुभिरपातकी।।
‘सूरसागर’ में भी कृष्ण गोपियों को करोड़ों कुकर्म करने वाले पति का भी परित्याग न करने तथा सेवा करने का उपदेश देते हैं-
“जुवती सेवा तऊ न त्यागै जौ पति करै कोटि अपकर्म।”
सारे विधान स्त्रियों के लिए बनाकर पुरुषों ने अपनी महत्ता और स्वतन्त्रता सुरक्षित कर ली। इसीलिए मंदाकिनी कहती है, “भगवान ने स्त्रियों को उत्पन्न करके ही अधिकारों से वंचित नहीं किया है। किन्तु तुम लोगों की दस्युवृत्ति ने उन्हें लूटा है।”
जिस देश के धर्मशास्त्रों और धर्माचार्यों ने दुर्गुणी पति से भी स्त्री-मुक्ति का निषेध किया है। वहीं प्रसाद जी ने दुःखदायी विवाह सम्बन्ध से मुक्ति और पुनर्विवाह का पक्ष लिया है। मंदाकिनी पुरोहित से प्रश्न करते हुए कहती है कि धर्म-विधान और विवाह के नाम पर स्त्रियों की स्वतन्त्रता और अधिकारों का हरण कर लिया जाता है। परन्तु यदि स्त्री किसी संकट में है तो धार्मिक-विधान में उसके लिए कोई उपाय है या नहीं। “जिन स्त्रियों को धर्म-बन्धन में बाँधकर, उनकी सम्मति के बिना आप उनका सब अधिकार छीन लेते हैं, तब क्या धर्म के पास कोई प्रतिकार, कोई संरक्षण नहीं रख छोड़ते, जिससे वे स्त्रियाँ अपनी विपत्ति में अवलम्ब माँग सकें?” मंदाकिनी अपने प्रश्नों द्वारा राज पुरोहित को इस बात के लिए प्रेरित करती है कि वह धर्मशास्त्रों में किए गये विधानों में ऐसे पक्ष को खोजें, जो स्त्री हितों की रक्षा करते हों ताकि ध्रुवस्वामिनी को न्याय मिल सके। अन्त में वह अपने प्रयासों में सफल होती है। ध्रुवस्वामिनी को रामगुप्त जैसे क्लीव, मद्यप और स्त्री का सम्मान न करने वाले पति से मुक्ति मिल जाती है तथा चन्द्रगुप्त के साथ उसका पुनर्लग्न हो जाता है।
‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक में प्रसाद जी का उद्देश्य स्त्रियों के प्रति समाज की रूढ़िवादी मानसिकता का खण्डन करना तथा स्त्रियों के प्रति स्वस्थ एवं संवेदनशील दृष्टिकोण विकसित करना है। जब स्त्रियों के प्रति परम्परागत सोच बदलेगी तभी घर-परिवार तथा समाज में उन्हें सम्मानजनक स्थान प्राप्त हो सकेगा। ध्रुवस्वामिनी और मंदाकिनी स्त्रियों की स्वतन्त्रता और अधिकारों की माँग न केवल बड़े सशक्त ढंग से करती हैं वरन् वे समाज के पथ-प्रदर्शकों को इस सम्बन्ध में उचित निर्णय लेने के लिए प्रेरित भी करती हैं।
निष्कर्षतः प्रसाद जी ने ‘ध्रुवस्वामिनी’ में स्त्रियों की स्थिति और उनकी समस्याओं के समाधान के लिए रामगुप्त, ध्रुवस्वामिनी और चन्द्रगुप्त को केन्द्र में रखकर अयोग्य और दुर्गुणी पति से मुक्ति तथा पुनर्विवाह का समर्थन किया है। शकराज और कोमा के प्रसंग में उन्होंने बहु-विवाह और सती प्रथा के प्रति अपना विरोध प्रदर्शित किया है।
– डाॅ. सुरंगमा यादव