जो दिल कहे!
धारा 377 का निरस्त्रीकरण: भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात!!
‘नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले।
नूपुरे त्वभिजानामीनित्यं पादाभिवंदनात्त’।।
श्रीराम ने जब लक्ष्मण को वन में मिले बिखरे आभूषण को दिखाते हुए पूछा था कि जरा इन्हें पहचान कर बताओ तो, क्या यह जानकी के ही आभूषण हैं। उत्तर में लक्ष्मण ने कहा मैं इन केयूरों को नहीं पहचान सकता; क्यूंकि यह हाथ के आभूषण हैं और न ही इन कुण्डलों को। मैं तो सिर्फ पैरों के नुपुर को ही पहचान सकता हूँ क्यूंकि मैंने माता जानकी को उनके चरणों से ऊपर देखा ही नहीं है……..जिस संस्कृति का वाहक और पोषक हमारा यह देश रहा है, वहां की माननीय सर्वोच्च न्यायलय की खंडपीठ यह यह व्याख्या करती है कि भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 377 और धारा 497 तथा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 198 अब अप्रासंगिक है…..इससे हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता बाधित होती है। तब मुझे मैकाले की वह पंक्ति स्मरण हो रही है कि ‘यदि किसी देश की उन्नति एवं विकास को छिन्न-भिन्न करना हो………तो उसकी संस्कृति पर ही सीधा कुठाराघात करो’…..देश स्वतः कमजोर हो जाएगा।’
माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा धारा 377 के तहत समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के साथ ही 158 साल पुराने इस औपनिवेशिक कानून के संबंधित हिस्से को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया और कहा कि यह समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है, समलैंगिक संबंध वैध मानता हैं। वहीं दूसरी तरफ कुछ ही दिनों के अंतराल में धारा 497 को निरस्त करते हुए यह व्यक्त करता है कि स्त्री किसी भी मर्द की जागीर नहीं है, वह खुद की स्वामिनी (स्वतंत्र) है।
यत्र त्वेत्त्कुल्ध्वंसा जायन्ते वर्णदूषकाः।
राष्ट्रिकै: सह तद राष्ट्रं क्षिप्रमेव विनश्यति।।
अर्थात धर्म और संस्कार से विहीन प्रजा स्वतः अपने साथ देश और समाज का विनाश कर देती है। आज भारत पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति से प्रभावित होता जा रहा है। वर्तमान पीढ़ी अपनी गौरवमयी संस्कृति रूपी विरासत से वंचित होती जा रही है। वह सब धर्म, कर्म एवं पुनीत संस्कारों से विमुख होकर सुख-शांति चाहती है, परन्तु उसकी यह कामना मृग मरीचिका मात्र ही सिद्ध हो रही है।
अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो समय के साथ-साथ नष्ट होती रही हैं, किन्तु भारत की संस्कृति आदि काल से ही अपने परम्परागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। इसकी उदारता तथा समन्यवादी गुणों ने अन्य संस्कृतियों को समाहित तो किया है, किन्तु अपने अस्तित्व के मूल को सुरक्षित रखा है। गीता और उपनिषदों के सन्देश हज़ारों साल से हमारी प्रेरणा और कर्म का आधार रहे हैं। किंचित परिवर्तनों के बावजूद भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्त्वों, जीवन मूल्यों और वचन पद्धति में एक ऐसी निरन्तरता रही है, कि आज भी करोड़ों भारतीय स्वयं को उन मूल्यों एवं चिन्तन प्रणाली से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं और इससे प्रेरणा प्राप्त करते हैं। अपनी प्राचीन संस्कृति को बचाए रखने में सबसे महत्वपूर्ण ज्यादा महत्वपूर्ण योगदान ‘गृहस्थ आश्रम’ का है। भारत में विवाह को एक संस्था का दर्जा प्राप्त है।
भारतीय परिदृश्य में लम्बे अंतराल से स्त्री को पुरूष के साथ नत्थी करके देखने का रिवाज है। निश्चित ही हमें अब यह सोच बदलनी ही होगी। स्त्री को हमें एक स्वतंत्र इकाई के रूप में स्वीकार करना होगा। जब किसी को(स्त्री) एक स्वतंत्र व्यक्ति माना जाता है तो, उसे उसकी इच्छा के विरूद्ध वश में नहीं किया जा सकता। इसके लिए हमें सबसे पहले खुद से खुद पर अमल करना होगा। सोशल प्लेटफॉर्म पर जिस तरह से हमारा व्यवहार हो रहा है यह एक सोचनीय विषय है। कुछ पुरुष महिला मित्रों की तस्वीरों पर जिस तरह की टिप्पणी करते हैं, इनबॉक्स में जाकर लिखते हैं, कॉल/विडिओ कॉल करते हैं वह अत्यंत ही शर्मनाक है। हालांकि इसमें कुछ महिलाएं भी स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंद व्यवहार कर रही हैं वह भी कम शर्मनाक नहीं है। माननीय न्यायालय के इस अहम् फैसले से तो कुछ लोग इतने उतावले हो रहे हैं कि लगता है उनके पड़ोस की महिला से बहुत ही जल्द मधुर संबंध बनने के आसार हैं, पर यह भूल जा रहे हैं कि उसी घर में उनकी भी पत्नी और माँ रहती है। प्राचीन काल से ही यह सब व्यवहार में है ….और आगे भी जारी रहेगा, भले ही आज या आज से पूर्व कानूनन नाजायज था अथवा आज जायज हो गया है। मेरे ख्याल से इस तरह के जायज/नाजायज संबंध सिर्फ उनके लिए एक छुट है जिन्हें परिवार जैसी बातों की, समाज की परवाह कभी भी न थी।
आदिम युग में भी जब सेक्स संबंधों को लेकर किसी तरह का नैतिक बोध और मानदंड विकसित नहीं हुआ था, तब होमोसेक्सुअल संबंध आम थे। प्राचीन महान सभ्यताओं में भी समलैंगिकता को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। लगभग पांच हजार साल पहले सीरिया में समलैंगिक संबंधों का प्रचलन था और इसे अस्वाभाविक अथवा काम-विकृति नहीं माना जाता था। पुनर्जागरण काल में यूरोप भी इससे अछुता नहीं था। वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ में भी समलैंगिकता का उल्लेख है, जिसे उन्होंने अनुचित बताया है।
विडंबना है कि भारतीय स्त्री की मनोदशा यह है कि निज व्यक्तित्व के उद्धार के प्रयत्नशील होने की बजाय चुपचाप गुलामी की स्थिति को स्वीकार कर लेना आसान समझती है। हमारे यहां जीवित से अधिक मृतक के अनुकूल बना लेने में स्वर्गानुभूति मिलती है। यही मनोदशा स्त्री के कष्ट की जड़ है। किसी भी रूप में अतीत की स्थिति को स्वीकार करना न तो वांछित है और न सही है। स्त्री अपने लिए जीना सीखें बंधनों और निषेधों के लिए जीना बंद करे। स्त्री का रहस्यमय रूप ही पुरूष को सबसे अधिक मान्य है।
भारत में परिवार नामक संस्था की आड़ में आए दिन परिवार के सदस्यों (व्यक्ति) की स्वायत्तता, स्वतंत्रता और निजता पर आए दिन हमले होते रहते हैं। भारत में परिवार नामक परंपरागत फंडामेंटलिज्म का बड़ा स्रोत है। उसकी पुनः व्याख्या होनी ही चाहिए। आधुनिक मनुष्य के लिए नए किस्म के परिवार की जरूरत है जो व्यक्ति की निजता और स्वतंत्रता को माने और वैचारिक समानता के आधार पर टिका हो।
भारत के बारे में यह आम धारणा है कि यह प्राचीन संस्कृति और परंपरा के रक्षकों का देश है। परंपरा और प्राचीन धरोहर के प्रति कागजों में खूब आदर और सम्मान का भाव प्रदर्शित किया जाता है। बचपन से हमें यही सिखाया जाता है कि हमें अपने देश की प्राचीन संस्कृतियों की रक्षा करनी चाहिए। असल में यह सब पाखंड़ है इसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है।
पिछले दिनों ट्रांस जेंडर को समाज में मान्यता देकर माननीय न्यायलय ने एक अच्छी पहल की शुरुआत की है, परन्तु ‘लिव इन रिलेशनशिप’, ‘समलेंगिकता’ और अब स्त्री-स्वतन्त्रता के आड़ में व्याभिचार को लेकर जो माननीय न्यायलय की खंडपीठ का फैसला है इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा, जिससे ‘परिवार’ जैसी मजबूत इकाई के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगेगा। माननीय न्यायलय के इस खंडपीठ के निर्णय पर कुछ भी मंतव्य जाहिर करना कानून- सम्मत एवं न्याय-संगत तो नहीं है, परन्तु इतना तो अवश्य ही कहा जा सकता है कि यह सब युग एवं पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव है।
– नीरज कृष्ण