रचना समीक्षा
धारणाएँ तोड़ती एक ज़रूरी ग़ज़ल: के.पी. अनमोल
आज ग़ज़ल एक बहुत लोकप्रिय छंद है। विश्वभर में इसे बहुत सारी भाषाओँ में लिखा जा रहा है। इस पर तरह तरह के प्रयोग किये जा रहे हैं। ग़ज़ल की भाषा को लेकर हमारे यहाँ भी बहुत सारे अलग-अलग मत है। उर्दू की ग़ज़ल, हिंदी की ग़ज़ल, हिंदुस्तानी ग़ज़ल आदि आदि। मैं स्वयं ग़ज़ल का एक छोटा-सा साधक हूँ और हिंदी का विद्यार्थी। ग़ज़ल की भाषा को लेकर मेरा यही मत शुरू से रहा और स्पष्ट रहा कि अभिव्यक्ति जितनी सहज और सरल शब्दों में हो, उतना ही बेहतर। अब उसके लिए चाहे हमें हिंदी के साथ उर्दू शब्दों का सहयोग लेना पड़े या अंग्रेज़ी या किसी अन्य भाषा का, बस उद्देश्य सिर्फ इतना हो कि रचना के सौन्दर्य में निखार आये और आम पाठक को आसानी से समझ आये।
हिंदी ग़ज़ल के नाम पर बहुत सारे प्रयोग होते रहे हैं और हो रहे हैं। भाषा के नाम पर कहीं कहीं भारी तत्सम शब्द लेकर तिलिस्म रचने की कोशिशें भी होती हैं और कहीं कहीं हर मिसरे में एक तत्सम शब्द ‘फिट’ करने के प्रयास भी हो रहे हैं, लेकिन बात बनती दिखी नहीं कभी। अब तक की मेरी धारणा के अनुसार यही था कि तत्सम गूढ़ शब्दों का ज़खीरा लेकर अच्छी ग़ज़ल कह पाना लगभग नामुमकिन काम है, मगर जब कानपुर (उ.प्र.) से प्रकाशित पत्रिका ‘समकालीन सांस्कृतिक प्रस्ताव’ का अक्टूबर-दिसम्बर 2015 अंक पढ़ा तो मेरा यह भ्रम पूरी तरह टूट गया। इसे तोड़ा इंदौर के आदरणीय चंद्रसेन विराट ने।
शब्द उसका जिस समय अपशब्द के स्तर तक गया
तब उठा है हाथ मेरा और कॉलर तक गया
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
2122 2122 2122 212
इस बह्र पर लिखी गयी ग़ज़ल के मतले (मुखड़े) से ही यह आभास हो जायेगा कि ग़ज़लकार ने निश्चय ही कमाल किया है। ‘अपशब्द’ और ‘स्तर’ जैसे शब्दों ने मिसरे (पंक्ति) का हुस्न संवार दिया तो अंग्रेज़ी का ‘कॉलर’ शब्द लेकर ग़ज़लकार ने भाषा के लोच को बरकरार रखा।
ग़ज़ल के हर शेर में ग़ज़लकार ने अपना जीवनानुभव जमकर इस्तेमाल किया है। हर शेर एक गहरी बात कहता है और पाठक के लिए गाँठ बाँधने वाली सीख देता है।
सज्जनों से बात करने का सलीका ही न था
इसलिए वह आज ख़ुद अपने अनादर तक गया
‘सज्जन’ और ‘अनादर’ शब्द देखिये। ग़ज़ल के ऐतबार से ऐसे शब्द बिल्कुल उचित नहीं लगते लेकिन यह रचनाकार का कमाल ही है कि इन शब्दों के प्रयोग के बावजूद ग़ज़ल की शेरिअत पर कोई फ़र्क नहीं पड़ने दिया। शेर अपनी उसी उर्दू वाली नज़ाकत को बरक़रार रखे हुए है। साथ ही ‘लोच’ के लिए ‘सलीक़ा’ शब्द भी उपस्थित है।
पूरी ग़ज़ल में आपको भाषा का इसी तरह का कमाल का सामंजस्य और हिंदी का सामर्थ्य देखने को मिलगा। ‘प्राण’, ‘उर्ध्वपथगामी’, ‘वासना’, ‘ताप’, ‘प्रखर’, ‘जिज्ञासु’, ‘अंततः’, ‘प्रश्न’, ‘उत्तर’, ‘दंभ’, ‘आहत’, ‘बहुधा’, ‘विनय’, यश’, ‘संप्रेषण’, ‘कथ्य’, ‘पुरस्कारेच्छु’, ‘तिकड़म’, ‘संग्रहण’, ‘मिष्ट’, ‘परिधि’, ‘प्रतिभा’, ‘तिरस्कृत’, स्वयंवर’ आदि अनेक कठिन शब्दों का सहज प्रयोग किसी को भी हैरत में डाल देगा। ग़ज़ल के हर शेर में जितना प्रभावी कथ्य है उतना ही असरकारक भाषा का सौन्दर्य है। ग़ज़ल पढ़ते समय मतले से मक़ते तक अनायास मन से वाह्ह्ह निकलता है।
प्रस्तुत ग़ज़ल में रचनाकार की रचनाशीलता की क्षमता का पूरा शबाब देखने को मिलता है। इससे पहले भी मैं चंद्रसेन विराट जी की अनेक रचनाएँ, अनेक पत्रिकाओं में पढ़ चुका हूँ लेकिन इस बार वे अपने चरम पर दिखे।
मैं पत्रिका के संपादक आदरणीय कैलाश बाजपेयी जी को सादर साधुवाद देता हूँ, इस तरह की महत्त्वपूर्ण रचना के प्रकाशन हेतु और ग़ज़ल के रचनाकार चंद्रसेन जी को एक चिरकालिक रचना के सृजन के लिए बहुत बधाई प्रेषित करता हूँ।
समीक्ष्य ग़ज़ल-
शब्द उसका जिस समय अपशब्द के स्तर तक गया
तब उठा है हाथ मेरा और कॉलर तक गया
सज्जनों से बात करने का सलीका ही न था
इसलिए वह आज ख़ुद अपने अनादर तक गया
प्रेम था तो, प्राण दोनों उर्ध्वपथगामी हुए
वासना थी तो तनों का ताप बिस्तर तक गया
सत्य तो वह खोज ही लेता, प्रखर जिज्ञासु जो
इसलिए ही अंततः हर प्रश्न उत्तर तक गया
दंभ ने मेरे मुझे आहत किया बहुधा मगर
पर विनय से यश मिला ऐसा कि जो घर तक गया
गीत के हित मूल संप्रेषण समस्या कब रही
कथ्य कानों के पथों से ठीक भीतर तक गया
वे पुरस्कारेच्छु तिकड़म की सियासत में कुशल
हर मुकुट अक्सर अपात्रों के ग़लत सर तक गया
संग्रहण के लोभ ने खारा किया है अन्यथा
हर नदी का मिष्ट जल ही नित समंदर तक गया
ज्ञान की सब परिधियों के पार जो भी शक्ति है
आदमी का सोच उसको मान ईश्वर तक गया
कर्ण की प्रतिभा तिरस्कृत जाति के कारण हुई
सोचता है व्यर्थ ही वह क्यों स्वयंवर तक गया
– चंद्रसेन विराट (इंदौर)
– के. पी. अनमोल