उभरते-स्वर
धर्म
जब रची गयी, धर्म की किताबें
वो वक्त की ज़रुरत रही होगी
किया नहीं मूल्यांकन फिर कभी
ये हमारी भी कहीं कमज़ोरी होगी
ऐसा नहीं, आज धर्म ज़रुरत नही है
धर्म तो एक आधार व व्यवहार है
जीवन की उठापटक में, किन्तु वह
प्रासंगिकता का गर मूल्य बने
अन्धा कानून नहीं वो धर्म भी है
जो आदमी से आदमी को तोड़ दे
दीवारों व फासलों में पाट दे, फिर
ऐसा धर्म किस काम का मित्र
छोड़ दो वो धर्म, गर नफरतों से
सींचा जाए किसी की मौत को
सुनो! आगाज़ करो बदलने का
जला दो धर्म की ऐसी किताबें
जिसका कर रहे इस्तेमाल कुछ कहीं
सिर्फ अपने कायदे व फायदे के लिये
ज़रुरत है फिर से एक मन्थन की
फिर एक नई किताब गढ़ने की
एक पहल, फिर धर्म को गढ़ने की
जिसका दृश्य और अदृश्य मंतव्य
वो सिर्फ इंसान और इंसानियत हो
इंसानियत नहीं गर, तो वो साजिश है
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मैं
विकलांग से दिव्यांग तक
सफर तय कर आया ‘मैं’
घिसटते हुये बैसाखी तक
भले ही एक अर्सा लगा हो
पर अब इस भीड़ में भी
आईना हूँ आज समाज का
क्योंकि आज छुपकर नहीं
बिन्दास होकर आया हूँ ‘मैं’
खुद का दिव्यांग से वेदांग यानि
सहज-सा नाम होगा अब मेरा
और आसान होगी वो दूूरी जो
चन्द फासलों में कोसों दूर थी
दुकान, घर, ऑफिस, बैंक, स्कूल
बस, ट्रेन, रोड, सिनेमा और कहीं
असमान नज़रों की कमज़ोरी भी
अब रोड से सदन तक हलचल है
दबी आवाजें भी मुखर हो रही हैं
समावेशन पर पहल जो हो रही है
देखो कुछ बातें हल हो रही हैं
केवल कुछ अवसरों की ज़रूरत है
‘मैं’ तो थोड़ा बोल भी लेता हूँ
आज बदलाव पर, किन्तु जो खामोश है
वर्षो से उनको सुनने की दरकार हो रही है
– नीलम पांडेय नील